Tag Archives: आनन्‍द सिंह

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (पच्चीसवीं किस्त)

समाजवादी क्रान्ति की वजह से सोवियत संघ की महिलाओं की स्थिति में जबर्दस्त सुधार आया। सोवियत संघ उन पहले देशों में एक था जिसने महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया। सोवियत सरकार ने ऐसी नीतियाँ बनायी जिससे महिलायें अपने घर की चारदिवारी को लाँघकर सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में बढ़चढ़ कर हिसा लेने लगीं। बड़े पैमाने पर शिशुगृहों, सार्वजनिक भोजनालयों आदि बनाये गये ताकि महिलाएँ नीरस घरेलू कामों से छुटकारा पाकर सामाजिक उत्पादन से जुड़ सकें। सोवियत राज्य ने मातृ-शिशु कल्याण पर विशेष ध्यान देते हुए सारे देश में प्रसूतिगृहों और प्रसव सहायता केन्द्रों का व्यापक जाल बिछाया गया जिनकी सेवायें भावी माताओं को निःशुल्क उपलब्ध थी। सभी मेहनतकश नारियों को प्रसवकाल के दौरान चार महीने का सवेतन अवकाश दिया जाता था। इसके अतिरिक्त शिशुगृहों और किंडरगार्टनों का व्यापक जाल भी बिछाया गया था जिसकी वजह से सोवियत महिलाओं की मुक्ति की दिशा में लम्बी छलांग लग पायी।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (चौबीसवीं क़िस्त)

जब क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग द्वारा सम्पन्न बुर्जुआ क्रान्तियों के बाद अस्तित्व में आये समाज की ये दशा हुई तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक देशों में जो बुर्जुआ जनवाद अस्तित्व में आया वह निहायत ही अधूरा और विकृत है। भारत में तो बुर्जुआ वर्ग ने औपनिवेशिक सत्ता के खि़लाफ़ जुझारू संघर्षों की बजाय समझौता-दबाव-समझौता की रणनीति से सत्ता हासिल की, परन्तु जिन उत्तर-औपनिवेशिक देशों में बुजुआ वर्ग क्रान्तिकारी संघर्षों के ज़रिये सत्तासीन हुआ वहाँ की जनता को भी पश्चिमी देशों जितने जनवादी अधिकार नहीं मिले।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (तेईसवीं क़िस्त)

भारतीय संविधान में जो थोड़े-बहुत अधिकार जनता को दिये गये हैं उनकी हिफ़ाज़त करने में भी भारतीय न्यायपालिका निहायत ही अक्षम साबित हुई है। ज्ञात हो कि भारतीय पूँजीवादी राज्य को एक नग्न फासिस्ट तानाशाही में तब्दील करने वाले आपातकाल को न्यायपालिका ने न्यायसंगत ठहराया था। इस धारावाहिक लेख में हम पहले ही यह चर्चा कर चुके हैं कि किस तरह संवैधानिक उपचार जनता की पहुँच से बाहर हैं। समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भी पैसे वालों की तूती बोलती है। अगर आपके पास पैसा है तो जघन्य से जघन्यतम अपराध करने के बावजूद क़ानून की आँखों में धूल झोंककर बाइज़्ज़त बरी हो सकते हैं क्योंकि तब आप राम जेठमलानी, कपिल सिब्बल, अरुण जेटली और हरीश साल्वे सरीखे वकीलों की सेवाएँ ख़रीद सकते हैं जिन्हें पहले से ही धनिकों के पक्ष में झुके बुर्जुआ क़ानून को पूरी तरह उनके पक्ष में करने में महारत हासिल है। इसकी एक ज़िन्दा मिसाल हाल ही में बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे मामले में देखने में आयी जिसमें पटना उच्च न्यायालय ने 27 महिलाओं और 15 बच्चों सहित 58 निर्दोष दलितों के बर्बर नरसंहार के मुकदमे में सभी 26 अभियुक्तों को बरी कर दिया। इसी तरह भोपाल गैस त्रासदी, 1984 के सिख विरोधी दंगे, 2002 के गुजरात दंगों को अंजाम देने वाले मुख्य अपराधियों का न्यायपालिका कुछ भी न बिगाड़ पायी। इसी तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इस देश में न्याय प्रक्रिया के सुस्त और लचर होने और ग़रीबी की वजह से लाखों निर्दोष अण्डरट्रायल के रूप में जेलों में सड़ रहे हैं। इस देश की विभिन्न अदालतों में लगभग 3 करोड़ मुकदमे लम्बित हैं। एक आकलन के मुताबिक यदि भारतीय न्याय व्यवस्था इसी रफ़्तार से फैसले देती रहे तो उसे कुल लम्बित मामलों का निपटारा करने में 320 साल लग जायेंगे।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (बाइसवीं क़िस्त)

राज्यसत्ता का असली स्वरूप तब सामने आता है जब जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है और कोई आन्दोलन संगठित होता है। ऐसे में विकास प्रशासन और कल्याणकारी प्रशासन का लबादा खूँटी पर टाँग दिया जाता है और दमन का चाबुक हाथ में लेकर राज्यसत्ता अपने असली खूनी पंजे और दाँत यानी पुलिस, अर्द्ध-सुरक्षा बल और फ़ौज सहित जनता पर टूट पड़ती है। पुलिस से तो वैसे भी जनता का सामना रोज़-मर्रे की जिन्दगी में होता रहता है। पुलिस रक्षक कम और भक्षक ज़्यादा नज़र आती है। आज़ादी के छह दशक बीतने के बाद भी आलम यह है कि ग़रीबों और अनपढ़ों की तो बात दूर, पढ़े लिखे और जागरूक लोग भी पुलिस का नाम सुनकर ही ख़ौफ़ खाते हैं। ग़रीबों के प्रति तो पुलिस का पशुवत रवैया गली-मुहल्लों और नुक्कड़-चौराहों पर हर रोज़ ही देखा जा सकता है। भारतीय पुलिस टॉर्चर, फ़र्जी मुठभेड़, हिरासत में मौत, हिरासत में बलात्कार आदि जैसे मानवाधिकारों के हनन के मामले में पूरी दुनिया में कुख़्यात है। महिलाओं के प्रति भी पुलिस का दृष्टिकोण मर्दवादी और संवेदनहीन ही होता है जिसकी बानगी आये दिन होने वाली बलात्कार की घटनाओं पर आला पुलिस अधिकारियों की टिप्पणियों में ही दिख जाती है जो इन घटनाओं के लिए महिलाओं को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। भारतीय पुलिस के चरित्र को लेकर कुछ वर्षों पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला ने एक बेहद सटीक टिप्पणी की थी कि भारतीय पुलिस जैसा संगठित अपराधियों का गिरोह देश में दूसरा कोई नहीं है।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (इक्कीसवीं किश्त)

इन धन्नासेठों और अपराधियों की तू-तू-मैं-मैं और नूराकुश्ती के लिए संसद के सत्र के दौरान प्रतिदिन करोड़ो रुपये खर्च होते हैं जो देश की जनता के खून-पसीने की कमाई से ही सम्भव होता है। उसमें भी सत्र के ज़्यादातर दिन तो किसी न किसी मुद्दे को लेकर संसद में कार्यस्थगन हो जाता है और फिर जनता के लुटेरों को अय्याशी के लिए और वक़्त मिल जाता है। आम जनता की ज़िन्दगी से कोसों दूर ये लुटेरे आलीशान बंगलों में रहते हैं, सरकारी ख़र्च से हवाई जहाज और महँगी गाड़ियों से सफर करते हैं और विदेशों और हिल स्टेशनों पर छुट्टियाँ मनाते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ बहुसंख्यक जनता को दस-दस बारह-बारह घण्टे खटने के बाद भी दो जून की रोटी के लाले पड़े रहते हैं, जनता के तथाकथित प्रतिनिधियों की विलासिता भरी ज़िन्दगी अपने आप में लोकतन्त्र के लम्बे-चौड़े दावों को एक भद्दा मज़ाक बना देती है।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है ? (बीसवीं किस्त)

उत्तर-पूर्व के समान ही जम्मू एवं कश्मीर की जनता के साथ भारतीय राज्य अपने जन्म से ही छल और कपट करता आया है जिसका दुष्परिणाम वहाँ की जनता को आज तक झेलना पड़ रहा है। भारत का खाता-पीता मध्य वर्ग जब राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर कश्मीर को भारत का ताज़ कहता है तो उसे यह आभास भी नहीं होता कि यह ताज़ कश्मीरियों की कई पीढ़ियों की भावनाओं और आकांक्षाओं को बेरहमी से कुचल कर बना है। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि कश्मीर में आतंकवाद की हरक़तों को बढ़ावा देने में पाकिस्तान का भी हाथ है परन्तु यह सच्चाई आमतौर पर दृष्टि ओझल कर दी जाती है कि कश्मीर में आतंकवाद के पनपने की मुख्य वजह भारतीय राज्य की वायदाखि़लाफ़ी और कश्मीरी जनता के न्यायोचित संघर्षों के बर्बर दमन और उससे बढ़ते असंतोष एवं अलगाव की भावना रही है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (उन्नीसवीं किस्त)

भारत की शक्तिशाली केन्द्रीय राज्यसत्ता से टकराकर उत्तर-पूर्व की छोटी-छोटी राज्य राष्ट्रीयताएँ भले ही अपनी मुक्ति न प्राप्त कर पायें, परन्तु वे हारेंगी भी नहीं। उनका संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक उनके अलगाव और उपेक्षा की स्थिति बनी रहेगी। किसी काल्पनिक एकाश्मी राष्ट्रवाद में उनकी राष्ट्रीय भावनाओं का विलयन पूँजीवाद की चौहद्दी में सम्भव भी नहीं लगता। इसलिए उनके संघर्ष भी विसर्जित नहीं होंगे। नेतृत्व की कोई एक धारा जब समर्पण करेगी तो दूसरी धारा उभरकर सामने आयेगी और संघर्ष को ज़ारी रखेगी। इस समस्या का समाधान केवल और केवल एक समाजवादी राज्य के तहत ही सम्भव है जो सही मायने में विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्णय के अधिकार और अलग होने के अधिकार के आधार पर एक संघात्मक ढाँचा विकसित करेगा।

नोएडा के निर्माण मज़दूरों पर बिल्डर माफिया का आतंकी कहर

जिस बस्ती में मज़दूर रहते हैं उसके हालात नरकीय हैं। इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि टिन के शेड से बनी इस अस्थायी बस्ती में मज़दूर कैसे रहते हैं। मुर्गी के दरबों जैसे कमरों में एक साथ कई मज़दूर रहते हैं और उनमें से कई अपने परिवार के साथ भी रहते हैं। बस्ती में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। मज़दूरों को पानी खरीद कर पीना पड़ता है। बिजली भी लगातार नहीं रहती। शौचालय के प्रबन्ध भी निहायत ही नाकाफी हैं और समूची बस्ती में गन्दगी का बोलबाला है। नाली की कोई व्यवस्था न होने से बस्ती में पानी जमा हो जाता है और बरसात में तो हालत और बदतर हो जाती है। यही नहीं, जैसे ही यह प्रोजेक्ट पूरा हो जायेगा, इस बस्ती को उजाड़ दिया जायेगा और मज़दूरों को इतनी ही ख़राब या इससे भी बदतर किसी और निर्माणाधीन साइट के करीब की मज़दूर बस्ती में जाना होगा।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (अठारहवीं किस्त)

पूँजीवादी विकास के फ़लस्वरूप अलग-अलग राज्यों और राष्ट्रीयताओं में क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग भी पैदा हुआ है। इस क्षेत्रीय बुर्जुआजी की परिपक्वता के साथ ही साथ केन्द्रीय बुर्जुआजी से इसके अन्तर्विरोध भी बढ़े हैं। इनमें से अधिकांश इसी व्यवस्था के दायरे में अन्तर्विरोधों को हल करने के पक्षधर हैं। पिछले दो दशकों से केन्द्र में मिली-जुली सरकारों का अस्तित्व इसी की निशानी है और यह दर्शाता है कि केन्द्रीय बुर्जुआजी से मोल-तोल में भी क्षेत्रीय बुर्जुआजी की ताकत बढ़ी है। क्षेत्रीय बुर्जुआजी विभिन्न राष्ट्रीयताओं की जनता को असली मुद्दों से दूर करके अन्य राज्यों के प्रवासी मज़दूरों को वापस भेजने, नये राज्य बनाने अथवा नदियों के जल के बँटवारे जैसे मुद्दे उछालकर क्षेत्रीय अन्धराष्ट्रवादी भावनायें फैलाती है और लोगों की वर्ग-चेतना को भोथरा कर इस व्यवस्था की उम्र लम्बी करने मे अपनी भूमिका अदा करती है। इस प्रकार यह क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की बजाय उसे आपस में बाँटने का ही काम करता है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सत्रहवीं किश्त)

पूँजीवादी शासक वर्ग तमाम हथकण्डों से जनता को अपने शासन के प्रति निष्ठावान और समर्पित बनाने की कोशिश करता आया है और भारतीय संविधान में मौजूद मूलभूत कर्तव्य भी इसी की एक कड़ी है। परन्तु एक मेहनतकश इन्सान का सर्वोपरि दायित्व यह है कि वह उत्पादन और शासन-प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए जी जान से जुट जाये जो एक इन्सान द्वारा दूसरे इन्सान के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे।