Tag Archives: आनन्‍द सिंह

कश्मीर में अल्पसंख्यकों और प्रवासी मज़दूरों की हत्या की बढ़ती घटनाएँ

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस प्रकार निर्दोषों की लक्षित हत्या की बदहवास कार्रवाइयों को किसी भी रूप में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है और अन्ततोगत्वा ये कार्रवाइयाँ कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की न्यायसंगत लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करती हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन हत्याओं के लिए सीधे तौर पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के नेतृत्व में लागू की जा रही भारतीय राज्य की तानाशाहाना नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि ये नीतियाँ ही वे हालात पैदा कर रही हैं जिसकी वजह से कुछ कश्मीरी युवा बन्दूक़ उठाकर निर्दोषों का क़त्ल करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। इसलिए कश्मीर में शान्ति क़ायम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य के कन्धों पर है जिसे पूरा करने में वह नाकाम साबित हुआ है।

आगरा में विद्युत वितरण के निजीकरण का अनुभव

उत्तर प्रदेश में मई 2009 में तत्कालीन मायावती सरकार के कार्यकाल में कानपुर और आगरा में बिजली के वितरण के निजीकरण का निर्णय लिया गया था। बिजली कर्मचारियों के विरोध के चलते कानपुर की बिजली वितरण की व्यवस्था निजी हाथों में नहीं सौंपी जा सकी। लेकिन आगरा में यह व्यवस्था लागू कर दी गयी।

उत्तर प्रदेश में बिजली के निजीकरण पर आमादा सरकार

उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता के आगे आख़िरकार योगी सरकार को झुकना पड़ा। गत 6 अक्टूबर को विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति के साथ हुए समझौते में प्रदेश सरकार को पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड का निजीकरण करने की अपनी योजना को तीन महीने के लिए टालने मजबूर होना पड़ा। निश्चित रूप से यह प्रदेश के 15 लाख कर्मचारियों की एकजुटता की शानदार जीत है। लेकिन इस जीत से संतुष्ट होकर सरकार पर दबाव कम करने से बिजली के वितरण प्रक्रिया का निजीकरण करके निजी वितरण कम्पनियों को मुनाफ़े की सौग़ात देने के मंसूबे को पूरा करने में कामयाब हो जायेगी।

‘यूएपीए’ संशोधन बिल : काले कारनामों को अंजाम देने के लिए लाया गया काला क़ानून

हर बार ऐसे काले क़ानूनों को बनाने का मक़सद क़ानून-व्यवस्था और अमन-चैन क़ायम रखना बताया जाता है, लेकिन असलियत यह है कि शासक वर्गों को ऐसे काले क़ानूनों की ज़रूरत अपने शोषणकारी, और दमनकारी शासन के ख़ि‍लाफ़ उठने वाली आवाज़ों को बर्बरता से कुचलने के लिए पड़ती है। अब चूँकि केन्द्र में एक फ़ासीवादी सत्ता काबिज़ है, काले क़ानूनों को बेशर्मी से लागू करने के मामले में पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त किये जा रहे हैं। मोदी सरकार अब कुख्यात ‘यूएपीए’ क़ानून में संशोधन करके अपनी फ़ासीवादी नीतियों का विरोध करने वालों को आतंकी घोषित करने की पूरी तैयारी कर चुकी है। इसीलिए इस संशोधन के बाद ‘यूएपीए’ को आज़ाद भारत के इतिहास का सबसे ख़तरनाक क़ानून कहा जा रहा है।

फ़्रांस की सड़कों पर फूटा पूँजीवाद के ख़िलाफ़ जनता का गुस्सा

फ़्रांस के लगभग सभी बड़े शहरों में मज़दूर, छात्र-युवा और आम नागरिक राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की पूँजीपरस्त नीतियों के विरोध में सड़कों पर हैं और विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह लेख लिखे जाते समय ‘येलो वेस्ट मूवमेण्ट’ नाम से मशहूर इस स्वत:स्फूर्त जुझारू आन्दोलन को शुरू हुए एक महीने से भी अधिक का समय बीत चुका है। मैक्रों सरकार द्वारा ईंधन कर में बढ़ोतरी करने के फ़ैसले के विरोध से शुरू हुआ यह आन्दोलन देखते ही देखते संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा आम जनता की ज़िन्दगी की बढ़ती कठिनाइयों के ख़िलाफ़ एक व्यापक जनउभार का रूप धारण करने लगा और आन्दोलन द्वारा उठायी जा रही माँगों में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने, करों का बोझ कम करने, अमीरों पर कर बढ़ाने और यहाँ तक कि राष्ट्रपति मैक्रों के इस्तीफ़े जैसी माँगें शामिल हो गयीं। आन्दोलन की शुरुआत में मैक्रों ने इस बहादुराना जनविद्रोह को नज़रअन्दाज़ किया और उसे सशस्त्र बलों द्वारा बर्बरतापूर्वक दमन के सहारे कुचलने की कोशिश की। कई जगहों पर प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों की झड़पें भी हुईं। इस आन्दोलन के दौरान अब तक क़रीब 2000 प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया जा चुका है। परन्तु जैसाकि अक्सर होता है पुलिसिया दमन की हर कार्रवाई से आन्दोलन बिखरने की बजाय और ज़्यादा फैलता गया और जल्द ही यह जनबग़ावत जंगल की आग की तरह फ़्रांस के कोने-कोने तक फैल गयी।

गुजरात से उत्तर भारतीय प्रवासी मज़दूरों का पलायन : मज़दूर वर्ग पर बरपा ‘गुजरात मॉडल’ का कहर

28 सितम्बर की घटना से पहले ही गुजरात में प्रवासियों के खि़लाफ़ नफ़रत का माहौल था, क्योंकि संघ परिवार के तमाम आनुषंगिक संगठन और ठाकोर सेना जैसे तमाम प्रतिक्रियावादी संगठन लोगों की समस्याओं के लिए प्रवासियों को जि़म्मेदार ठहराने का ज़हरीला काम कर रहे थे, ताकि उनका गुस्सा व्यवस्था के खि़लाफ़ न हो जाये। ग़ौरतलब है कि 28 सितम्बर की घटना के तीन दिन पहले ही गुजरात के मुख्यमन्त्री विजय रूपानी ने गुजरात के उद्योगों में 80 प्रतिशत नौकरियाँ गुजरातियों के लिए आरक्षित करने की नीति को सख्ती से लागू करने का आश्वासन दिया था।

जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट – अगर समय रहते पूँजीवाद को ख़त्म न किया गया तो वह मनुष्यता को ख़त्म कर देगा

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन द्वारा उपजे संकट के मूल में पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था ही है क्योंकि जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई से लेकर ग्रीन हाउस गैसें पैदा करने वाले ईंधन की बेरोकटोक खपत के पीछे मुनाफ़े की अन्तहीन हवस ही है जिसने प्रकृति में अन्तर्निहित सामंजस्य को तितर-बितर कर दिया है। इस व्यवस्था से यह उम्मीद करना बेमानी है कि इस संकट का समाधान इसके भीतर से निकलेगा। समाधान तो दूर इस व्यवस्था में इस संकट से भी मुनाफ़ा पीटने के नये-नये मौक़े दिन-प्रतिदिन र्इज़ाद हो रहे हैं। उदाहरण के लिए समुद्र तट पर स्थित बस्तियों के डूबने के ख़तरे से बचने के लिए एक संरक्षण दीवार बनाने की कवायद हो रही है, जिससे भारी मुनाफ़ा पीटा जा सके। ऐसे में जीवन का नाश करने पर तुली इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था का नाश करके ही इस संकट से छुटकारा मिल सकता है।

मदरसा आधुनिकीकरण के ढोल की पोल – 50 हज़ार मदरसा शिक्षक 2 साल से तनख़्वाह से महरूम

अगर मोदी सरकार वाक़ई मदरसों में आधुनिक व वैज्ञानिक शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध होती तो वह मदरसों में हिन्दी, अंग्रेज़ी, गणित, कम्प्यूटर और विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने के लिए नये शिक्षकों की भर्ती करती। परन्तु नये शिक्षकों को भर्ती करना तो दूर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड सहित 16 राज्यों में मदरसों में आधुनिक व वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करने के लिए नियुक्त किए गये करीब 50 हज़ार शिक्षकों को पिछले 2 सालों से केन्द्र सरकार ने कोई वेतन या मानदेय ही नहीं दिया है।

आँधी-तूफ़ान से हुई जानमाल की भयंकर क्षति

आँधी-तूफ़ान अपने आप में जानलेवा नहीं होते। आँधी-तूफ़ान में जान गँवाने वाले ज़्यादातर लोग किसी इमारत, घर या दीवार के ढहने से या फिर पेड़ के गिरने से मरते हैं। इस बार की आँधी में भी ज़्यादा मौतें उन लोगों की हुईं जिनके घर कच्चे थे। कुछ लोग बिजली के टूटे तार के करेण्ट से भी मरते हैं। बिजली गिरने से मरने वाले लोग भी ज़्यादातर इसलिए मरते हैं क्योंकि वे उस समय पानी भरे खेतों में काम कर रहे होते हैं। प्राकृतिक परि‍घटनाओं पर भले ही मनुष्य का नियन्त्रण न हो परन्तु उन परिस्थितियों पर निश्चय ही मनुष्य का नियन्त्रण है जो इन मौतों का प्रत्यक्ष कारण होती हैं।

बर्बर ज़ायनवादियों ने ग़ाज़ा में करवाया एक और क़त्लेआम – फ़िलिस्तीनियों‍ ने पेश की बहादुराना प्रतिरोध की एक और मिसाल

अत्याधुनिक हथियारों से लैस इज़रायली सेना का मुक़बला ग़ाज़ावासी पत्थरों और गुलेल से कर रहे हैं और इस प्रक्रिया में बहादुराना प्रतिरोध की एक अद्भुत मिसाल पेश कर रहे हैं। इस बहादुराना संघर्ष को दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से समर्थन मिल रहा है। अमेरिका से लेकर यूरोप तक और अफ़्रीका से लेकर अफ़्रीका तक में ग़ाज़ा के समर्थन और इज़रायल के विरोध में रैलियाँ निकल रही हैं और फ़िलिस्तीनियों का संघर्ष स्थानीय न रहकर वैश्विक रूप धारण कर चुका है। कई देशों में इज़रायल के बहिष्कार का आन्दोलन गति पकड़ रहा है। ऐसे में स्पष्ट है कि बर्बर ज़ायनवादी ग़ाज़ा को नेस्तनाबूद करने के लिए जितना ही ज़्यादा बलप्रयोग करेंगे उतनी ही तेज़ी से उनके ख़िलाफ़ जारी मुहिम दुनिया भर में फैलेगी।