Tag Archives: आनन्‍द सिंह

लगातार बढ़ती मज़ूदरों की असुरक्षा

भारत जैसे देश में जहाँ 90 प्रतिशत से ज़्यादा मज़दूर अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने को मजबूर हैं, मज़ूदरों का जीवन तमाम कि़स्मे की असुरक्षाओं से घिरा रहता है। वैकल्पिक रोज़गार की अनुपलब्धता, वेतन की कमी व अनियमितता, छँटनी का ख़तरा, कार्यस्थल पर सुरक्षा उपकरणों की कमी, अपर्याप्त स्वास्थ्य   सुविधाएँ, आवास की तंगी और सामाजिक असुरक्षा उनके जीवन के जोखिम को लगातार बढ़ाती रहती हैं। कार्यस्थल पर बदसलूकी, भेदभाव और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएँ लगातार बढ़ती रही हैं।

तटीय आन्ध्र में जाति‍ व्यवस्था के बर्बर रूप की बानगी

1990 के दशक में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद कम्मा, रेड्डी, राजू और कापु जैसी कुलक जातियों की आर्थिक शक्तिमत्ता में और इज़ाफ़ा हुआ क्योंकि इन जातियों से आने वाले धनी किसानों ने अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा मत्स्य पालन, नारियल के विशाल फ़ार्म, राइस मिल और तटीय आन्ध्र के शहरी इलाक़ों में होटल-रेस्तराँ व सिनेमा जैसे उद्योगों में लगाना शुरू किया। बाद में इस पूँजीपति वर्ग ने अपने अधि‍शेष को हैदराबाद में आईटी व फ़ार्मा कम्पनियों में तथा रियल एस्टेट, शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्रों में निवेश करना शुरू किया।

उत्तर प्रदेश – क़र्ज़-माफ़ी के टोटके से खेती-किसानी का संकट नहीं हल हो सकता

अक्सर इस बात को दृष्टिओझल कर दिया जाता है कि किसानों की क़र्ज़-माफ़ी से सरकार को पड़ने वाला अतिरिक्त आर्थिक बोझ भी मुख्यत: गाँवों और शहरों की सर्वहारा आबादी को ही उठाना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में किसानों की क़र्ज़-माफ़ी का बोझ भी मज़दूर वर्ग पर पड़ने वाला है। ग़ौरतलब है कि केन्द्र सरकार द्वारा क़र्ज़-माफ़ी के लिए आर्थिक मदद करने से मना करने के बाद क़र्ज़-माफ़ी के लिए मुद्रा जुटाने के लिए योगी सरकार ने किसान राहत बॉण्ड जारी करने का फै़सला किया है। ज़ाहिर है कि उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व के 8 प्रतिशत से भी अधिक क़ीमत के इन बॉण्डों की सूद सहित भरपाई मज़दूर वर्ग को करनी पड़ेगी, क्योंकि इसके लिए जो अतिरिक्त कर लगाना होगा, उसका बोझ मुख्यत: मज़दूरों पर ही पड़ेगा।

फ़ासिस्ट ट्रम्प की जीत ने उतारा साम्राज्यवाद के चौधरी के मुँह से उदारवादी मुखौटा

डोनाल्ड ट्रम्प जैसे धुर दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति के विश्व-पूँजीवाद की चोटी पर विराजमान होने से निश्‍चय ही अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया भर के मज़दूरों की मुश्किलें और चुनौतियाँ आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। मज़दूर वर्ग को नस्लीय और धार्मिक आधार पर बाँटने की साज़‍िशें आने वाले दिनों में और परवान चढ़ने वाली हैं। लेकिन ट्रम्प की इस जीत से मज़दूर वर्ग को यह भी संकेत साफ़ मिलता है कि आज के दौर में बुर्जुआ लोकतंत्र से कोई उम्मीद करना अपने आपको झाँसा देना है। बुर्जुआ लोकतंत्र के दायरे के भीतर अपनी चेतना को क़ैद करने का नतीजा मोदी और ट्रम्प जैसे दानवों के रूप में ही सामने आयेगा। आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में परिस्थितियाँ चिल्ला-चिल्लाकर पूँजीवाद के विकल्प की माँग कर रही हैं। इसलिए वोट के ज़रिये लुटेरों के चेहरों को बदलने की चुनावी नौटंकी पर भरोसा करने की बजाय दुनिया के हर हिस्से में मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद को कचरे की पेटी में डालकर उसका विकल्प खड़ा करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभाने के लिए आगे आना ही होगा।

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (छठी किस्त)

जिस हद तक मशीन का कोई मूल्य है, और इसलिए वह उत्पाद को मूल्य हस्तान्तरित करती है, उस हद तक वह उस उत्पाद के मूल्य का अंग बन जाती है। उत्पाद को सस्ता करने की बजाय वह स्वयं के मूल्य के अनुपात में उत्पाद को महँगा कर देती है। यह स्पष्ट है कि मशीनें और मशीनरी के तंत्र, बड़े पैमाने के उद्योग द्वारा उपयोग किये जाने वाले अभिलाक्षणिक श्रम के साधन, दस्तकारी और मैन्युफैक्चरिंग में उपयोग किये जाने वाली श्रम के साधनों से अतुलनीय रूप से अधिक मूल्यवान हैं।

अरब देशों में भारतीय मज़दूरों की दिल दहला देने वाली दास्तान

काफ़ला प्रणाली के तहत खाड़ी के देशों में पहुँचे प्रवासी मज़दूरों का भयंकर शोषण किया जाता है, उनसे जमकर मेहनत भी करवायी जाती है और बदले में न तो नियमित मज़दूरी मिलती है और न ही कोई सुविधाएँ। ये मज़दूर नरक जैसे हालात में काम करते हैं और ऐसे श्रम शिविरों में रहने को मजबूर होते हैं जहाँ शायद कोई जानवर भी रहना न पसंद करे। अरब की तपती गर्मी में ऐसे हालात में ये मज़दूर किस तरह से रहते होंगे यह सोचने मात्र से रूह कांप उठती है।

लाखों खाली पड़े घर और करोड़ों बेघर लोग – पूँजीवादी विकास की क्रूर सच्चाई

खाये-पीये-अघाये लोग ज़ि‍न्दगी की हक़ीक़त से इतना कटे रहते हैं कि महानगरों के भूदृश्य में उन्हें बस गगनचुंबी इमारतें ही नज़र आती हैं और चारों ओर विकास का गुलाबी नज़ारा ही दिखायी देता है। लेकिन एक आम मेहनतकश की नज़र से महानगरों के भूदृश्य पर नज़र डालने पर हमें झुग्गी-झोपड़ि‍यों और नरक जैसे रिहायशी इलाकों के समुद्र के बीच कुछ गगनचुंबी इमारतें विलासिता के टापुओं के समान नज़र आती हैं। विलासिता के इन टापुओं पर थोड़ा और क़रीबी से नज़र दौड़ाने पर हमें इस अजीबोगरीब सच्चाई का भी एहसास होता है कि झुग्गियों के समुद्र के बीच के इन तमाम टापुओं में ऐसे टापुओं की कमी नहीं है जो वीरान पड़े रहते हैं, यानी उनमें कोई रहने वाला ही नहीं होता।

दिल्ली के सीलमपुर के ई-कचरा मज़दूरों की ज़िन्दगी की ख़ौफ़नाक तस्वीर

पिछले दो दशकों में भारत में तथाकथित सूचना क्रान्ति की चमक-दमक के पीछे सीलमपुर जैसे ई-कचरा केन्द्रों में काम कर रहे मज़दूरों की अँधेरी ज़ि‍न्दगी मानो छिप सी जाती है। जहाँ भारत इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की खपत के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल है, वहीं दूसरी ओर इन गैजेट्स से पैदा होने वाले ई-कचरे के मामले में यह विकसित देशों को भी मात दे रहा है।

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (चौथी किस्त)

किसी चीज़ की उपयोगिता उसे उपयोग-मूल्य प्रदान करती है। परन्तु यह उपयोगिता अपने आप में उससे कोई अलग चीज़ नहीं है। माल के गुणों से निर्धारित होने के नाते उनके बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए माल अपने आप में, जैसे लोहा, गेहूँ, हीरा आदि, उपयोग-मूल्य या वस्तु है…

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (तीसरी किस्त)

औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति की प्रक्रिया फार्मर की उत्पत्ति से कम धीमी थी। निस्संदेह शिल्प संघों के कई छोटे मालिक, और उनसे भी अधिक संख्या में स्वतंत्र दस्तकार या यहाँ तक कि उजरती मज़दूर भी छोटे पूँजीपति बने, और बाद में उजरती मज़दूर के शोषण की सीमा का विस्तार करके, और इस प्रकार संचय का विस्तार करके, उनमें से कुछ पूर्ण रूप से विकसित पूँजीपति बन गये।