Tag Archives: आनन्‍द सिंह

यह कमरतोड़ महँगाई क़ुदरत की नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था की देन है

इस महँगाई का कारण ढाँचागत है। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि एक ओर तो 6 करोड़ टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है या फिर चूहों की भेंट चढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर देश में करोड़ों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हैं जिसमें सबसे अधिक संख्या बच्चों और महिलाओं की है। प्रसिध्द अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के एक अध्‍ययन के मुताबिक इस समय प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धाता 1942-43 में बंगाल में आये भीषण अकाल के दिनों के बराबर पहुँच गयी है। भारत दूध, ताजे फलों और खाद्य तेलों के उत्पादन में दुनिया के देशों में अग्रणी है और गेहूँ, चावल, प्याज, अण्डे इत्यादि के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। इसके बावजूद इण्टरनेशनल पॉलिसी रिसर्च इंस्टीटयूट द्वारा 2010 में जारी वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 85 देशों में 67 वाँ था।

माइक्रो फ़ाइनेंस : महाजनी का पूँजीवादी अवतार

माइक्रो फाइनेंस एक नयी परिघटना के रूप में लगभग 2 दशक पहले ख़ासकर तीसरी दुनिया के देशों में ग़रीबी हटाने के उपक्रम के नाम पर विश्व पूँजीवाद के पटल पर आया। चूँकि पूँजीवादी बैंकों से कर्ज लेने के लिए एक निश्चित सम्पत्ति होना अनिवार्य होता है, अत: बहुसंख्यक ग़रीब आबादी इन बैंकों की पहुँच से बाहर ही रहती है। पारम्परिक रूप से ग़रीब अपनी खेती और पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए गाँव के महाजन या साहूकार द्वारा दिये गये कर्ज पर निर्भर रहते थे। ऐसे कर्र्जों पर ब्याज दर बहुत अधिक हुआ करती थी जिसकी वजह से ग़रीबों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में निकल जाता था और इस प्रकार वे एक दुष्चक्र में फँस जाते थे। गाँव के ग़रीबों को महाजनों और साहूकारों से मुक्ति दिलाने और उनको ग़रीबी के दुष्चक्र से बाहर निकालने के नाम पर पिछले 2 दशकों में माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं को ख़ूब बढ़ावा दिया गया। ऐसी संस्थाएँ ग़रीबों को एक समूह (सेल्फ हेल्प ग्रुप) में संगठित करती हैं और एक व्यक्ति के बजाय पूरे समूह को कर्ज देती हैं। ऐसे समूहों को छोटे-मोटे उपक्रम जैसे टोकरी बनाना, पापड़ बनाना, अचार बनाना, मुर्ग़ी पालन इत्यादि में निवेश के लिए प्रेरित किया जाता है। महिला सशक्तीकरण के नाम पर महिलाओं को ऐसे समूहों में वरीयता दी जाती है। सतही तौर पर देखने में किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि ये संस्थाएँ वाकई ग़रीबी हटाने के प्रयास में संलग्न हैं। लेकिन इन संस्थाओं की संरचना, काम करने का तरीका, फण्ंडिग के ड्डोत,इनके द्वारा दिये गये कर्ज पर ब्याज की दरों की गहरायी से पड़ताल करने पर इनके मानवद्रोही चरित्र का पर्दाफाश हो जाता है और हम इस घिनौनी सच्चाई से रूबरू होते हैं कि दरअसल ऐसी संस्थाएँ ग़रीबों का महाजनों और साहूकारों से भी अधिक बर्बर किस्म का शोषण करती हैं और ग़रीबों का ख़ून चूसकर इनके संस्थापक और शीर्ष अधिकारी अपनी तिजोरियाँ भरते हैं।

हिटलर को हराकर दुनिया को फासीवाद के राक्षस से मजदूरों के राज ने ही बचाया था

सच तो यह है कि स्तालिन हिटलर के सत्ता पर काबिज होने के समय से ही पश्चिमी देशों को लगातार फसीवाद के ख़तरे से आगाह कर रहे थे लेकिन उस वक्त तमाम पश्चिमी देश हिटलर के साथ न सिर्फ समझौते कर रहे थे बल्कि उसे बढ़ावा दे रहे थे। स्तालिन पहले दिन से जानते थे कि हिटलर समाजवाद की मातृभूमि को नष्ट करने के लिए उस पर हमला जरूर करेगा। उन्होंने आत्मरक्षार्थ युद्ध की तैयारी के लिए थोड़ा समय लेने के वास्ते ही हिटलर के साथ अनाक्रमण सन्धि की थी जबकि दोनों पक्ष जानते थे कि यह सन्धि कुछ ही समय की मेहमान है। यही वजह थी कि सन्धि के बावजूद सोवियत संघ में समस्त संसाधनों को युद्ध की तैयारियों में लगा दिया गया था। दूसरी ओर, हिटलर ने भी अपनी सबसे बड़ी और अच्छी फौजी डिवीजनों को सोवियत संघ पर धवा बोलने के लिए बचाकर रखा था। इस फौज की ताकत उस फौज से कई गुना थी जिसे लेकर हिटलर ने आधे यूरोप को रौंद डाला थां रूस पर हमले के बाद भी पश्चिमी देशों ने लम्बे समय तक पश्चिम का मोर्चा नहीं खोला क्योंकि वे इस इन्तजार में थे कि हिटलर सोवियत संघ को चकनाचूर कर डालेगा। जब सोवियत फौजों ने पूरी सोवियत जनता की जबर्दस्त मदद से जर्मन फौजों को खदेड़ना शुरू कर दिया तब कहीं जाकर पश्चिमी देशों ने मोर्चा खोला।

भारत का संविधान कहता है…

विज्ञान हमें यह शिक्षा देता है कि हम अपने पूर्वजों द्वारा कही गयी बातों और “पवित्र ग्रन्थों” में लिखे प्रवचनों पर अन्धभक्ति की बजाय अपनी राय वस्तुगत परिस्थितियों का आकलन करके बनायें। भारतीय लोकतन्त्र की वस्तुगत परिस्थितियों के अनुसार तो निम्नलिखित व्याख्या ही की जा सकती है

करोड़ों “स्‍लमडॉग” और मुट्ठीभर करोड़पति!

झुग्गियों के जीवन की असली तस्वीर पेश करने के बावजूद यह फ़िल्म झुग्गी में रहने वालों की समस्याओं के बारे में नहीं है। इसके बजाय, यह झूठ के बारे में है कि यह व्यवस्था हरेक को इतना मौक़ा देती है कि एक झुग्गीवाला भी करोड़पति बनने की उम्मीद पाल सकता है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, सच्चाई से इसका नाता ख़त्म हो जाता है। सच तो यह है कि भारत में झुग्गियों का कोई निवासी सिर्फ़ अपराध की दुनिया में जाकर ही 1 करोड़ रुपये कमाने की बात सोच सकता है। अगर क़िस्मत से उसकी लॉटरी लग ही जाये, जैसाकि फ़िल्म में दिखाया गया है, तो भी इससे भारत की झुग्गियों में रहने वाले करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा जो अब भी इन्सान की तरह जीने के लिए ज़रूरी सुविधाओं से वंचित हैं। सच्चा कलाइमेक्स तो यह होगा कि करोड़ों झुग्गीवासियों की ज़िन्दगी को मानवीय बनाने के लिए व्यवस्था में बदलाव किया जाये न कि करोड़पति बनने के झूठे सपने दिखाये जायें। कई मामलों में यह फ़िल्म उसी पूँजीवादी सोच को पेश करती है जो देश में करोड़पतियों की बढ़ती तादाद पर जश्‍न मनाती है लेकिन इस तथ्य की अनदेखी करती है कि करोड़ों लोग नर्क जैसे हालात में जी रहे हैं। आज के भारत की ही तरह, यह फ़िल्म भी इन्सान बनने के संघर्ष की प्रेरणा देने के बजाय करोड़पति बनने की झूठी आशा जगाती है। हम चाहें या न चाहें, सच तो यह है कि भारत करोड़ों “स्‍लमडॉग” और मुट्ठीभर करोड़पतियों का देश है।