अरब देशों में भारतीय मज़दूरों की दिल दहला देने वाली दास्तान
50 डिग्री तापमान में हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी भूख से मरने और प्यास से तड़पने की नौबत

आनन्द

इस साल अप्रैल के महीने में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी की सऊदी अरब की यात्रा के दौरान सऊदी शाह सलमान बिन अजीज ने उन्हें सऊदी अरब के सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान से सम्‍मानित किया। जिस समय नरेन्‍द्र मोदी यमन के नागरिकों के ताज़ा खून से सने सऊदी अरब के बर्बर हुक्‍़मरानो के हाथों मिले सम्‍मान से गदगद हो रहे थे और इन बर्बर शेखों के साथ फ़ोटो खिंचवाने में मसरूफ़ थे उसी समय रोजी-रोटी की तलाश में सऊदी अरब गए भारत के लाखों मज़दूर 50 डिग्री की तपती गर्मी में खट रहे थे और उनमें से तमाम मज़दूर तो हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी भरपेट भोजन और प्‍यास बुझाने के लिए पानी को तरस रहे थे। खुद को देश का मज़दूर नंबर 1 कहने वाले नरेन्‍द्र मोदी ने सऊदी अरब में अमानवीय हालत में जी रहे लाखों भारतीय मज़दूरों की सुध लेना ज़रूरी नहीं समझा। आखिर लेते भी क्यों, उनकी यात्रा का मक़सद मज़दूरों का हित साधना थोड़े ही था, वे तो भारत के पूँजीपति वर्ग के हितों की हिफ़ाजत के वास्ते सऊदी अरब के बर्बर शेखों और शाहों के साथ गलबहियाँ करने गए हुए थे!

immigrant_workersजब सऊदी अरब में भारत के मज़दूरों के हालात इतने खराब हो गए कि वे भूख-प्‍यास से मरने की कगार पर पहुँच गए और जब उनके दर्दनाक हालात की ख़बरें अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में छाने लगीं तो मोदी सरकार को अपनी साख बचाने के लिए भूखे-प्‍यासे मज़दूरों को भारत वापस लाने की क़वायद शुरू करनी पड़ी। लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर सऊदी अरब की तपती गर्मी में हाड़तोड़ मेहनत करने के बावजूद मज़दूरों को भूखों मरने की नौबत क्यों आन पड़ी। इसका जवाब जानने के लिए हमें खाड़ी के अरब देशों (सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर) के तेल भण्‍डार से प्राप्त पेट्रोडॉलर पर टिके और इस्‍लामिक राजवंश की सरपरस्ती में पिछले कुछ दशकों में तेज़ी से विकसित हुए विशेष क़‍िस्‍म के पूँजीवाद पर नज़र दौड़ानी होगी।

हालाँकि अरब के देशों में तेल की खोज 20वीं सदी की शुरुआती दशकों में ही हो गयी थी, लेकिन 1960 के दशक तक अरब के तेल उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी कम्‍पनियों का ही दबदबा था। 1970 के दशक की शुरुआत में खाड़ी में देशों के शेखों और शाहों ने तेल उत्पादन का राष्ट्रीयकरण करना शुरू किया जिससे उन देशों में पूँजीवादी विकास की ज़मीन पुख्‍़ता हुई। दुनिया भर में तेल बेचने से प्राप्त राजस्व का इस्तेमाल स्थानीय निर्माण एवं सेवा क्षेत्र में लगाया गया जिसकी वजह से स्थानीय पूँजीपतियों के वर्ग को फलने-फूलने का मौका मिला। तेल के राजस्व के बढ़ने के साथ ही साथ इन मुल्‍कों में हथियारों और अन्य साजो-सामान का आयात भी बढ़ा और इसके फलस्वरूप एजेंटों और दलालों का वर्ग भी फलने-फूलने लगा। स्थानीय पूँजीपतियों और व्यापारियों ने बैंकों में भी पूँजी लगानी शुरू की और इस्‍लामिक राज्‍यसत्‍ता की सरपरस्ती में खाड़ी के बैंकों और तेल के राजस्व का प्रबंधन करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र व निजी क्षेत्र की कंपनियों (सॉवरेन वेल्‍थ फण्‍ड) ने विदेशों (ख़ासकर अमेरिका) के शेयर बाज़ार में पूँजी लगानी शुरू की। इस प्रकार खाड़ी के देश विश्‍व पूँजीवादी व्यवस्था से नाभिनालबद्ध हो गए।

arab-workers-1हाल के वर्षों में खाड़ी के देश दुनिया के प्रमुख वित्‍तीय केन्‍द्रों के रूप में भी उभरे हैं। इस विशेष क़ि‍स्‍म के पूँजीवादी विकास ने विशेषकर निर्माण क्षेत्र में मज़दूरों की जबर्दस्त माँग बढ़ी जिसको पूरा करने के लिए इन देशों ने मध्य-पूर्व के अन्य देशों और भारत, पाकिस्तान, बांग्‍लादेश, नेपाल, इंडोनेशिया, फिलीपीन्स जैसे देशों के प्रवासी मज़दूरों पर निर्भरता का रास्ता चुना क्योंकि देशी मज़दूरों के मुक़ाबले प्रवासी मज़दूरों का अतिशोषण करना और काम पूरा होने पर उनकी छँटनी करना ज़्यादा आसान होता है।

विदेशों से मज़ूदरों के अरब देशों में आप्रवासन को नियंत्रित करने के लिए इन देशों में एक विशेष प्रणाली लागू की जाती है जिसे काफ़ला प्रणाली कहते हैं। इस प्रणाली की शर्तें इतनी कठोर हैं कि अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन ने इसे गुलामी का समकालीन रूप कहा है। इस प्रणाली के तहत इन मुल्‍कों में अकुशल मज़दूरों को लाने के लिए एक प्रायोजक की ज़रूरत होती है जो आमतौर पर इन मज़दूरों से काम लेने वाली कंपनियों का ही नुमाइंदा होता है और वही मज़दूर के वीजा और कानूनी स्थिति के लिए जिम्‍मेदार होता है। इस प्रणाली के तहत बुलाये जाने वाले मज़दूर प्रायोजक की अनुमति के बगैर न तो किसी अन्य कंपनी में काम कर सकते हैं और न ही वापस अपने देश लौट सकते हैं। खाड़ी के इन देशों में प्रवासी मज़दूरों के पहुँचते ही उनका पासपोर्ट ज़ब्‍त कर लिया जाता है।

काफ़ला प्रणाली के तहत खाड़ी के देशों में पहुँचे प्रवासी मज़दूरों का भयंकर शोषण किया जाता है, उनसे जमकर मेहनत भी करवायी जाती है और बदले में न तो नियमित मज़दूरी मिलती है और न ही कोई सुविधाएँ। ये मज़दूर नरक जैसे हालात में काम करते हैं और ऐसे श्रम शिविरों में रहने को मजबूर होते हैं जहाँ शायद कोई जानवर भी रहना न पसंद करे। अरब की तपती गर्मी में ऐसे हालात में ये मज़दूर किस तरह से रहते होंगे यह सोचने मात्र से रूह कांप उठती है।

अरब देशों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूर पहले ही दोयम दर्जे का जीवन जी रहे थे, हाल के वर्षों में विश्‍व बाज़ार में तेल की कीमतों में गिरावट आने से अरब में काम करने वाले प्रवासी मज़दूरों के हालात बद से बदतर हो गए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि तेल से मिलने वाले राजस्व की कमी की वजह से अरब की राज्‍यसत्‍ताओं द्वारा निर्माण क्षेत्र को दिये जाने वाले ठेकों में जबर्दस्त गिरावट आयी है। इसका सीधा असर निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले प्रवासी मज़दूरों पर हुआ क्योंकि महीनों से उनकी तनख्‍वाहें मिलनी बंद हो गयीं और नया काम मिलने की कोई गुंजाइश नहीं बची। यही नहीं उनमें से जो मज़दूर अपने देश वापस जाना चाहते हैं वे वापस भी लौट नहीं सकते क्योंकि वापस लौटने के लिए भी प्रायोजक की अनुमति की ज़रूरत होती है जो आसानी से नहीं मिलती। यही वो हालात थे जिनमें मज़दूरों को भूखे और प्‍यासे रहने की नौबत आन पड़ी क्योंकि महीनों से मज़दूरी न मिलने के कारण या काम से निकाल दिये जाने के कारण मज़दूरों के पास न तो भोजन-पानी खरीदने के लिए पैसा बचा और न ही घर वापस लौटने के भाड़ा।

अरब देशों में काम करने वाले भारत के मज़दूरों की संख्या 60 लाख से भी ज़्यादा है। ये मज़दूर भारत के विभिन्न हिस्‍सों में काम करने वाली ऐसी तमाम एजेंसियों के झाँसे में आकर देश छोड़कर विदेश में जाकर काम करने के लिए इसलिए तैयार हो जाते हैं क्योंकि उन्हें मोटी तनख्‍़वाह और खुशहाल ज़‍िन्‍दगी के सब्‍ज़बाग दिखाये जाते हैं। एक बार खाड़ी के देशों में जाने पर जब उनका पासपोर्ट जब्‍त कर लिया जाता है और उनकी आवाजाही पर बंदिशें लग जाती हैं तो वे खुद को ठगा हुआ पाते हैं। यही नहीं अमानवीय हालातों में काम करने की वजह से हज़ारों मज़दूर हर साल मारे जाते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक अकेले वर्ष 2015 में खाड़ी के देशों में 5900 मज़दूर मारे गए जिनमें से अधिकांश सऊदी अरब और संयुक्त राज्‍य अमीरात में मारे गए। कतर, जहाँ 2022 में फुटबॉल का फीफा विश्‍वकप आयोजित करने की तैयारियाँ चल रही हैं, में तपती आँच में लगातार काम करने की वजह से 2012 से अब तक 500 से भी अधिक मज़दूरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है।

2007 से जाारी विश्‍वव्यापी मन्‍दी और पिछले कुछ वर्षों के दौरान विश्‍व बाज़ार में तेल की क़ीमतों में आयी गिरावट से अरब क‍ी पेट्रोडॉलर आ‍धारित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के चरमराने के संकेत साफ़ नज़र आ रहे हैं। इसके अतिरिक्त सीरिया और यमन में जारी युद्धों की वजह से भी समूचा अरब जगत भयंकर अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। अरब देशों की जनता के बीच भी वहाँ के विलासी हुक्‍़मरानों के ख़‍िलाफ़ गुस्‍सा लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में आने वाले दिनों में इस समूचे क्षेत्र की अस्थिरता बढ़ने ही वाली है। इसका सीधा असर वहाँ काम कर रहे प्रवासी मज़दूरों पर होगा। खाड़ी में काम कर रहे 60 लाख भारतीय मज़दूरों की जीविका ख़तरे में दिख रही है। इन प्रवासी मज़दूरों की जीविका छिनने का सीधा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला है क्योंकि खाड़ी के देशों में काम करने वाले भारतीय मज़दूर वापस देश में हर साल 30 अरब डॉलर भेजते हैं जो भारत के भुगतान संतुलन और विदेशी मुद्रा भण्‍डार को क़ायम रखने में अहम भूमिका निभाता है। यह पूरा घटनाक्रम एक बार फिर से भूमण्‍डलीकरण के इस दौर में पूँजीवाद के मानवद्रोही चरित्र को नंगे रूप में सामने ला रहा है।

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2016


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments