मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (छठी किस्त)
अनुवाद: आनन्द सिंह
अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने 1934 में मार्क्स की ‘पूँजी’ के आधार पर एक पुस्तक ‘कार्ल मार्क्सेज़ कैपिटल इन लिथोग्राफ़्स’ लिखी थी जिसमें ‘पूँजी’ में दी गयी प्रमुख अवधारणाओं को चित्रों के ज़रिये समझाया गया था। गेलर्ट के ही शब्दों में इस पुस्तक में ‘‘…मूल पाठ के सबसे महत्वपूर्ण अंश ही दिये गये हैं। लेकिन मार्क्सवाद की बुनियादी समझ के लिए आवश्यक सामग्री चित्रांकनों की मदद से डाली गयी है।’’ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए इस शानदार कृति के चुनिन्दा अंशों को एक श्रृंखला के रूप में दिया जा रहा है। — सम्पादक
मशीनरी और बड़े पैमाने का उद्योग: मशीनों द्वारा उत्पाद को हस्तान्तरित किया गया मूल्य
… सहकारिता और श्रम-विभाजन की वजह से श्रम की बढ़ी उत्पादकता के लिए पूँजी को कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती है। ये सामूहिक श्रम की प्राकृतिक शक्तियाँ होती हैं।
उसी प्रकार भाप, पानी आदि जैसी प्राकृतिक शक्तियाँ जो उत्पादन की प्रक्रियाओं में उपयोग के लिए उपयुक्त होती हैं, उनकी भी कोई क़ीमत नहीं होती है। लेकिन जिस प्रकार इंसान को साँस लेने के लिए फेफड़ों की ज़रूरत होती है, उसी प्रकार उसे प्राकृतिक शक्तियों का उपभोग करने के लिए इंसान के हाथों की बनी किसी चीज़ की ज़रूरत होती है। पानी की मोटर शक्ति का उपयोग करने के लिए एक पनचक्की की ज़रूरत होती है, और भाप की प्रत्यास्थता (इलास्टिसिटी) का उपयोग करने के लिए भाप के इंजन की ज़रूरत होती है।
जो बात प्राकृतिक शक्तियों पर लागू होती है वह विज्ञान पर भी लागू होती है। कोई चुंबकीय सूई विद्युत धारा के क्षेत्र में विचलित होती है, या एक ऐसी लोहे की रॉड जिसमें विद्युत धारा प्रवाहित होती है वह चुंबकीकृत हो जाती है, इस तरह के नियम जब एक बार खोज लिये जाते हैं तो उसके बाद उन पर एक पैसा भी ख़र्च नहीं करना होता है। लेकिन जब इन नियमों का उपयोग टेलीग्राफ़ी आदि में करने का सवाल आता है तो ख़र्चीले और जटिल उपकरणों की ज़रूरत होती है।
मशीनें औजारों को नष्ट नहीं करतीं। हाथ के औजारों से काम करवाने की बजाय पूँजी अब मज़दूर को मशीन से काम करने के लिए तैयार करती है।
स्थिर पूँजी के किसी भी अन्य घटक की ही तरह मशीनें कोई मूल्य नहीं पैदा करतीं, बल्कि वे खुद के मूल्य को अपने द्वारा निर्मित उत्पाद में हस्तांतरित कर देती है।
जिस हद तक मशीन का कोई मूल्य है, और इसलिए वह उत्पाद को मूल्य हस्तान्तरित करती है, उस हद तक वह उस उत्पाद के मूल्य का अंग बन जाती है। उत्पाद को सस्ता करने की बजाय वह स्वयं के मूल्य के अनुपात में उत्पाद को महँगा कर देती है। यह स्पष्ट है कि मशीनें और मशीनरी के तंत्र, बड़े पैमाने के उद्योग द्वारा उपयोग किये जाने वाले अभिलाक्षणिक श्रम के साधन, दस्तकारी और मैन्युफैक्चरिंग में उपयोग किये जाने वाली श्रम के साधनों से अतुलनीय रूप से अधिक मूल्यवान हैं।
हालाँकि मशीनें हमेशा श्रम की प्रक्रिया में समूचे रूप में शामिल होती हैं, परन्तु मूल्य निर्माण की प्रक्रिया में वे आंशिक रूप से ही शामिल होती हैं। वे कभी उस मूल्य से अधिक मूल्य नहीं जोड़ती है जिसे वह औसतन घिसकर खोती हैं।
अत: मशीन के बतौर मूल्य-निर्माता पहलू और बतौर उत्पाद-निर्माता पहलू में बहुत बड़ा अन्तर है। एक ही श्रम प्रक्रिया में एक ही मशीन जितनी लंबी अवधि के लिए बार-बार इस्तेमाल की जायेगी, यह अन्तर उतना ही अधिक होगा।
निश्चित तौर पर हमने देखा है कि हर वो चीज़ जो वास्तव में श्रम का साधन या उत्पादन का उपकरण कही जा सकती है वह श्रम की प्रक्रिया में समूचे तौर पर शामिल होती है; जबकि मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया में वह घिसने से होने वाले रोज़ाना औसत नुकसान के अनुपात में केवल टुकड़ों में शामिल होती है। परन्तु मशीन के मामले में हाथ के औजारों के मुक़ाबले उपयोग एवं घिसने में अन्तर कहीं ज़्यादा होता है, और ऐसा कई वजहों से होता है।
चूँकि मशीन अधिक टिकाऊ सामग्री की बनी होती है इसलिए उसकी उम्र लंबी होती है; चूँकि उसका उपयोग बिल्कुल वैज्ञानिक नियमों से विनियमित होता है इसलिए उसके संघटक हिस्सों में घिसाई में और उसके उपभोग के साधनों में ख़र्च अधिक किफ़ायती होता है; और अन्त में उसके उत्पादन का क्षेत्र हाथ के औजारों के मुक़ाबले विपुल रूप से विस्तृत होता है।
मशीन और हाथ के औजार दोनों ही मामलों में उनके रोज़ाना औसत लागत, यानी वह मूल्य जो वे घिसने के द्वारा और तेल, कोयला जैसी सहयोगी सामग्रियों के उपभोग के द्वारा उत्पाद में डालते हैं, को छोड़ दिया जाय तो उसके बाद वे अपना काम मुफ़्त में ही करते हैं – प्राकृतिक शक्तियों की ही तरह जो मानव श्रम के सहायता के बिना ही काम करती हैं। जिस प्रकार मशीन का उत्पादक कार्य क्षेत्र हाथ के औजारों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है उसी प्रकार उसके अलाभकारी सेवाओं का क्षेत्र भी हाथ की औजारों की तुलना में बहुत अधिक होता है। बड़े पैमाने के उद्योग के स्थापित होने के बाद ही इंसान प्रकृति की शक्तियों की ही तरह अपने अतीत के श्रम के उत्पादों, उनके श्रम के मूर्त रूपों, को बड़े पैमाने पर मुफ़्त में काम करवा पाने में सफल हुआ….
जिस दर से मशीन अपना मूल्य दिये गए उत्पाद में हस्तांतरित करती है उसके स्थिर होने पर, इस प्रकार हस्तांतरित मूल्य की मात्रा मशीन के स्वयं के मूल्य पर निर्भर करती है। जितना ही कम श्रम उसमें निहित होता है उतना की कम मूल्य वह उत्पाद में हस्तांतरित करती है। उतना ही कम वह स्वयं के मूल्य का त्याग करती है, वह उतना ही अधिक उत्पादक होती है, और इसलिए वह अपनी सेवाओं में उतना ही अधिक प्रकृति की शक्तियों की तरह प्रतीत होती है। लेकिन मशीन के द्वारा मशीन का उत्पादन उसके विस्तार और क्षमता के अनुपात में उसके मूल्य को कम कर देता है….
मशीनरी और बड़े पैमाने का उद्योग: मशीनोफैक्चर के मज़दूर पर पड़ने वाले प्राथमिक प्रभाव
जैसाकि दिखाया जा चुका है, बड़े पैमाने के उद्योग का आरंभिक बिन्दु श्रम के उपकरणों में क्रान्ति होता है, और श्रम के उपकरणों का सबसे प्रभावी तरीके से क्रान्तिकारीकरण मशीनो-फैक्चर की संगठित व्यवस्था में हुआ है। इससे पहले कि हम इस पर ग़ौर करें कि इस वस्तुगत संघटन में मानव सामग्री किस प्रकार निहित है, आइये हम मज़दूरों पर उपरोक्त कथित क्रान्ति के समान्य प्रभावों का अध्ययन करें।
जिस हद तक मशीनें मांसपेशियों की शक्ति की किसी विचारणीय खपत की ज़रूरत को ख़त्म करती हैं, उस हद तक वे अपेक्षाकृत कम ताक़त वाले मज़दूरों और अपरिपक्व शारीरिक विकास वाले किन्तु लचीले अंगों वाले लोगों के उपयोग का माध्यम बन जाती हैं। इसलिए महिलाओं और बच्चों का श्रम मशीनों के पूँजीवादी उपयोग का आरंभिक बिन्दु था! काम और मज़दूरों का यह ताक़तवर स्थानापन्न तेज़ी से रूपान्तरित होकर मज़दूर वर्गीय परिवार के सभी सदस्यों को लिंग और आयु के भेद के बिना पूँजी के प्रत्यक्ष प्रभाव में लाने के लिए उन्हें शामिल करके उजरती मज़दूरों की संख्या बढ़ाने का साधन बन जाता है। पूँजीपति के लिए जबरिया श्रम ने न सिर्फ़ बच्चों के खेलने की गुंजाइश को छीना बल्कि स्वयं परिवार के लिए किये जाने वाले सीमित ढंग के घरेलू क्षेत्र के मुक्त श्रम की भी जगह ले ली।
श्रमशक्ति का मूल्य व्यक्तिगत वयस्क मज़दूर के भरण-पोषण के लिए आवश्यक श्रमकाल से नहीं बल्कि मज़दूर-वर्गीय परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक श्रमकाल से निर्धारित होता था। मज़दूर वर्ग के परिवार को श्रम बाज़ार में झोंककर मशीन इंसान की श्रमशक्ति के मूल्य को उसके पूरे परिवार तक फैला देती है और इस प्रकार उसके श्रमशक्ति के मूल्य को कम कर देती हैं।
चार मज़दूरों के किसी परिवार की श्रमशक्ति को ख़रीदने में अतीत में परिवार के प्रमुख की श्रमशक्ति ख़रीदने के मुकाबले संभवत: अधिक ख़र्च आयेगा; लेकिन ख़रीदने वाला एक की बजाय चार कार्यदिवस ख़रीद रहा है और एक के अतिरिक्त श्रम की बजाय चार के अतिरिक्त श्रम की अधिकता के अनुपात में क़ीमत गिर जाती हैं। परिवार जीवित रह सके इसके लिए अब 4 लोगों को न सिर्फ़ काम करना होगा बल्कि उन्हें पूँजी को अतिरिक्त श्रम की आपूर्ति भी करनी होगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि शुरू से ही पूँजीवादी शोषण का महत्वपूर्ण क्षेत्र बनाने वाली मानव सामग्री को बढ़ाने के साथ ही साथ मशीनरी शोषण की दर को भी बढ़ाती हैं।
मशीनरी मज़दूर और पूँजीपति के बीच के भेद – जो उनके पारस्परिक सम्बन्धों की औपचारिक अभिव्यक्ति है – में एक संपूर्ण क्रान्ति लाने का भी काम करती हैं। मालों के विनिमय को आधार मानते हुए, प्रमुख धारणा यह थी कि पूँजीपति और मज़दूर एक-दूसरे का आमना-सामना स्वतंत्र व्यक्तियों के रूप में, मालों के स्वतंत्र स्वामियों के रूप में करेंगे, उनमें से एक मुद्रा व उत्पादन के साधनों का स्वामी है और दूसरा श्रमशक्ति का स्वामी हैं। लेकिन पूँजी अब बच्चों या कम उम्र के लोगों को भी ख़रीद रही है।
पहले के दिनों में मज़दूर अपनी खुद की श्रमशक्ति बेचा करता था, इस रूप में वह प्रत्यक्षत: एक स्वतंत्र व्यक्ति हुआ करता था। अब वह अपनी पत्नी और बच्चों को भी बेचता है। वह एक दास व्यापारी बन जाता है।….
बहुत बडे़ अनुपात में महिलाओं और बच्चों को अपने द्वारा नियुक्त मज़दूरों में शामिल करके मशीनें उस प्रतिरोध को तोड़ने में सक्षम रहीं जिसके द्वारा मैन्युफैक्चरिंग काल में पुरुष मज़दूर पूँजी की निरंकुशता का विरोध करते रहे थे।…
(…फै़क्टरी व्यवस्था की विस्तीर्ण होने की विराट क्षमता, जिस तरीके से वह दिन-दूनी रात-चौगुनी की रफ़्ताार से उत्पादन बढ़ाती है, और विश्व बाज़ार पर उसकी निर्भरता ने अपरिहार्य रूप से उत्पादन में बेतहाशा तेज़ी लायी, बाज़ार में मालों के आधिक्य की स्थिति लायी और उसके बाद माँग की सापेक्षिक अपर्याप्तता और इसलिए उद्योग की पंगुता की स्थिति उत्पन्न हुई। मन्द गतिविधि, समृद्धि, अतिउत्पादन, संकट और गतिहीनता की अवधियों की श्रृंखला उद्योग के जीवन की विशेषता बन जाती है। इस औद्योगिक चक्र की नियमितता, जो अनिश्चितता और अस्थिरता मशीनोफैक्चर मज़दूर के पेशे पर और इसलिए उसके जीवन की सामान्य परिस्थितियों पर थोपती है, वे अब नियमित विशेषता बन जाती हैं। समृद्धता के काल के अलावा पूँजीपति सदैव बाज़ार में स्थान के लिए एक-दूसरे से प्रचण्ड प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। प्रत्येक का हिस्सा उसके उत्पाद के सस्ते होने से प्रत्यक्ष रूप से समानुपाती होता है। सस्तेपन की यह ज़रूरत पूँजीपतियों में श्रमशक्ति को प्रतिस्थापित करने में सक्षम उन्नत मशीनों और उत्पादन की नई विधियों के लिए होड़ पैदा करती है। इसके अतिरिक्त हमेशा ऐसा समय आता है जब मज़दूरी को जबरन श्रमशक्ति के मूल्य से भी नीचे करके मालों को और भी सस्ता करने की कोशिश की जाती है।…)
मशीनरी और बड़े पैमाने का उद्योग: कार्यदिवस का बढ़ना
हालाँकि मशीनें श्रम की उत्पादकता बढ़ाने की, यानी किसी माल के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम काल की मात्रा घटाने की, सबसे प्रबल साधन हो सकती हैं, लेकिन पूँजी के हाथों में उन्होंने जिन उद्योगों में अपनी पकड़ बनायी उनमें वे कार्यदिवस को प्रकृति द्वारा आरोपित सीमाओं से कहीं ज़्यादा लम्बा करने की सबसे शक्तिशाली साधन बन गयीं। ऐसा इसलिए क्योंकि जहाँ एक ओर वे ऐसी नयी परिस्थितियाँ बनाती हैं जो इस दिशा में पूँजी को उसकी अभिन्न प्रवृत्ति के लिए खुली छूट देती हैं, वहीं दूसरी ओर वे पूँजी की दूसरों के श्रम की भूख मिटाने के लिए नयी प्रेरणा भी देती हैं।
सबसे पहले तो मशीनरी में श्रम के उपकरणों की गतियाँ और गतिविधियाँ मानो स्वयं का स्वतंत्र जीवन प्राप्त कर लेती हैं और इस प्रकार वे मज़दूर से जूझती हैं। मशीनरी एक प्रकार की सतत औद्योगिक गति का निर्माण करती है, जिन्हें अगर अपने मानवीय सहयोगी की कुछ बाधाओं – उनकी शारीरिक कमज़ोरियाँ और उनकी इच्छाशक्ति – का सामना न करना पड़े तो वे बिना रुके चलती रहेंगी।
यह स्वचालन मशीनरी की पूँजी है जिसे वह पूँजीपति के माध्यम से, उसकी चेतना और इच्छा दोनों से, प्राप्त करती है; इसलिए यह मानव सामग्री, जिसके माध्यम से वह काम करती है, की प्राकृतिक किन्तु लचीली सीमाओं द्वारा किये जाने वाले प्रतिरोध को कम से कम करने की इच्छा से अनुप्राणित होती है। इसके अतिरिक्त मानव सामग्री का प्रतिरोध मशीन पर काम के प्रतीतिगत आसानी के द्वारा और महिलाओं व बच्चों की भर्ती से कम हो जाता है जो पुरुषों की तुलना में आसानी से वश में आने वाले और विनीत होते हैं।
जैसाकि हमने देखा, मशीनरी की उत्पादकता पूर्ण वस्तु में उसके द्वारा हस्तान्तरित आवयविक मूल्य के परिमाण के व्युत्क्रमानुपात में होती है। मशीन की उम्र जितनी ही अधिक होती है, उतने ही अधिक उत्पादों में वह अपना मूल्य हस्तान्तरित करती है, और इसलिए उसके द्वारा किसी एक माल में दिये गये मूल्य का अनुपात उतना ही कम होता है। परन्तु मशीन का सक्रिय जीवन ज़ाहिरा तौर पर कार्यदिवस की लम्बाई अथवा दैनिक श्रम प्रक्रिया की अवधि और उन दिनों की संख्या के गुणनफल पर निर्भर करता है जिनमें यह प्रक्रिया चलाई जाती है।
मशीन की घिसाई उसके इस्तेमाल के समय की गणितीय परिशुद्धता के सदृश नहीं होती। यदि वह होती तो भी, 7 ½ वर्षों की अवधि में 16 घण्टे प्रतिदिन काम करने वाली माशीन उतनी ही अवधि के लिए काम करती है और कुल उत्पाद को उतनी ही मात्रा में मूल्य हस्तान्तरित करती है जितनी कि वह तब करती जब वह 15 वर्षों तक 8 घण्टे प्रतिदिन काम करती, लेकिन पहले वाले मामले में मशीन का मूल्य बाद वाले के मुक़ाबले दोगुनी तेज़ी के साथ पुनरुत्पादित होगा, और पूँजीपति उस मशीन के इस्तेमाल से 7 ½ वर्षों में उतना ही अतिरिक्त मूल्य इकट्ठा कर लेगा जितना कि मशीन की आधी रफ़्तार से चलने पर वह 15 वर्षों में करता।….
इस प्रकार मशीनरी का पूँजीवादी अनुप्रयोग एक ओर कार्यदिवस को बढ़ाने का नया और शक्तिशाली प्रोत्साहन प्रदान करता है और श्रम के तरीके और सामाजिक कार्यकारी संघटक के चरित्र दोनों को आमूलचूल तरीके से इस प्रकार बदल देता है कि वह इस प्रवृत्ति के हर विरोध को ध्वस्त करे। लेकिन दूसरी ओर आंशिक तौर पर पूँजीपति के लिए मज़दूर वर्ग का एक नया संस्तर खोलकर, जो पहले पहुँच से बाहर था, और आंशिक तौर पर अपने द्वारा प्रतिस्थापित मज़दूरों को मुक्त करके मशीनरी एक अतिरिक्त कार्यरत आबादी पैदा करती है जो पूँजी की तानाशाही के सामने झुकने के लिए विवश होती है।
यह आधुनिक उद्योग के इतिहास की सबसे उल्लेखनीय परिघटनाओं में से एक के कारण को बताता है; यह बताता है कि किस तरीके से मशीनरी कार्यदिवस पर लगने वाली सभी नैतिक व प्राकृतिक बंदिशों को ख़त्म कर देती है। यह इस आर्थिक विरोधाभास की भी व्याख्या करता है कि श्रमकाल को छोटा करने का सबसे शक्तिशाली उपकरण मज़दूर और उसके परिवार के समय के एक-एक क्षण को पूँजी का संचय करने के लिए पूँजीपति को सुपुर्द करने का साधन बन गया।
मशीनें और बड़े पैमाने का उद्योग: श्रम की सघनता
इस प्रकार पूँजी के हाथ में मशीनरी का नतीजा कार्यदिवस की लम्बाई में अत्यधिक बढ़ोतरी के रूप में सामने आता है। जैसाकि हमने देखा कि यह अन्तत: श्रम को सघन बनाता है, जिसे मशीनरी के युग में पहले भी देखा जा सकता था, लेकिन अब यह कहीं ज़्यादा स्पष्ट हो जाता है। जब हम निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का विश्लेषण कर रहे थे तो हमारा सरोकार मुख्य रूप से श्रम के विस्तार पर था जबकि उसकी अवधि और उसकी सघनता को स्थिर माना गया था। अब हमें यह ग़ौर करना होगा कि किस प्रकार अधिक सघनता कम विस्तार की जगह ले सकती है; हमें इस पर ग़ौर करना है कि किस हद तक श्रम को सघन किया जा सकता है।
ज़ाहिरा तौर पर मशीनों के फैलाव और इस्तेमाल के अनुपात में और मशीनरी पर काम करने की आदत वाले मज़दूर वर्ग के सदस्यों में अनुभव एकत्र होने के अनुपात में श्रम तेज़ हो जाता है जिसकी वजह से मानो एक प्राकृतिक नियम के तौर पर सघनता बढ़ती है। अत: इंग्लैण्ड में आधी सदी के दौरान कार्यदिवस की लम्बाई में बढ़ोतरी फै़क्टरी श्रम की सघनता में बढ़ोतरी के साथ-साथ घटित हुई।
परन्तु यह स्पष्ट है कि यदि हम सघन श्रम के अस्थायी झोंके की बात नहीं बल्कि उस श्रम की बात कर रहे हैं जो अनिश्चितकाल के लिए और पूरी निरंतरता के साथ रोज़-ब-रोज़ करना होता है, तो निश्चित ही एक ऐसा महत्वपूर्ण बिन्दु आयेगा जिस पर कार्यदिवस का विस्तार और श्रम की सघनता परस्पर अपवर्जी होंगी, यानी कार्य दिवस में बढ़ोतरी केवल तभी हासिल की जा सकती है जब श्रम की सघनता कम की जाए और इसके उलट श्रम तभी सघन हो सकता है जब कार्यदिवस छोटा किया जाए।
जैसे ही मज़दूर वर्ग के क्रमश: बढ़ते हुए आक्रोश ने राज्य को कार्यदिवस पर कानूनी सीमा लगाने के लिए विवश कर दिया और तथाकथित रूप से फैक्टरियों में सामान्य कार्यदिवस कठोरता से लागू करने की शुरुआत हुई, उसी क्षण से, यानी जब कार्यदिवस बढ़ाकर अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन बढ़ाना हमेशा के लिए असंभव बना दिया गया, पूँजी ने जानबूझकर और अपनी तमाम शक्ति के साथ मशीनो फैक्चर के विकास को गति देकर अपने आप को सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य के लिए समर्पित कर दिया।
श्रम के घण्टों में कमी श्रम की सघनता के लिए आवश्यक मनोगत परिस्थितियाँ प्रदान करती है क्योंकि इससे दिये गए समय में अधिक ऊर्जा लगाने की मज़दूर की क्षमता बढ़ जाती है। जैसे ही कानूनी प्रावधानों के माध्यम से छोटा कार्यदिवस लागू किया जाता है, पूँजी के हाथ में मशीनरी का उपयोग वस्तुगत रूप से और व्यवस्थित रूप से दिये गए समय में अधिक श्रम निचोड़ने के लिए किया जाता है। ऐसा दो तरीकों से किया जाता है; पहला, मशीनों की गति बढ़ाकर, और दूसरा, मज़दूर के कार्यक्षेत्र को बढ़ाकर, उसे अधिक संख्या में मशीनों को सँभालने की जिम्मेदारी देकर….
… वर्ष 1844 में लॉर्ड ऐशले, जो अब लॉर्ड शैफ़टेशबरी हैं, ने हाउस ऑफ कॉमन्स में दस्तावेज़ी प्रमाणों के साथ निम्न बयान दिया:
‘‘मैन्युफैक्चर की प्रक्रियाओं में लगे लोगों द्वारा किया जाने वाला श्रम ऐसे परिचालनों की शुरुआत में लगे श्रम की तुलना में तीन गुना अधिक है। निस्सन्देह मशीनरी ने ऐसे काम किये हैं जो लाखों व्यक्तियों की मांसपेशियों की माँग करते हैं; लेकिन इसने उन लोगों के श्रम को भी असाधारण रूप से कई गुना अधिक कर दिया है जो इसके भयावह गति के द्वारा संचालित होते हैं…’’
इस तरीके से ट्वेल्व आवर्स एक्ट के प्रभाव में श्रम ने जो उल्लेखनीय सघनता हासिल की है उसको देखते हुए उस समय के ब्रिटिश फै़क्टरी मालिकों के द्वारा किया गया दावा कुछ हद तक जायज़ लगता है कि उस दिशा में और प्रगति असंभव है, इसका आशय यह है कि कार्यदिवस में और अधिक कटौती का नतीजा उत्पादन में कटौती के रूप में आयेगा।
आइये अब 1847 के काल के बाद वापस लौटते हैं, जब टेन आवर्स एक्ट ब्रिटिश कपास, ऊन, सिल्क और फ्लैक्स टेक्सटाइल वर्क्स में लागू हुआ….
… यह पूर्ण रूप से निर्विवाद है कि जैसे ही कार्यदिवस को बढ़ाया जाना हमेशा के लिए प्रतिबंधित किया जाता है, पूँजी की प्रवृत्ति श्रम की सघनता व्यवस्थित रूप में बढ़ाकर इस कमी को पूरा करने की होती है, और श्रमशक्ति से सबसे प्रभावी तरीके से अधिक से अधिक निकालने के लिए मशीनरी में हुए हर सुधार को इस्तेमाल करने की पूँजी की यह प्रवृत्ति लंबे समय में ऐसी परिस्थिति बना देगी जिसमें श्रम के घण्टों को और कम करना अवश्यंभावी होगा…
मशीनरी और बड़े पैमाने का उद्योग: फै़क्टरी
… हमने देखा कि किस प्रकार मशीनरी के कारण महिलाओं और बच्चों के श्रम को क़ब्ज़े में करने से शोषण के लिए मानव सामग्री के परिमाण में बढ़ोतरी होती है; किस प्रकार वह कार्यदिवस के असामान्य विस्तार से मज़दूर के समूचे जीवन-काल पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेती है; और किस प्रकार उसकी प्रगति, जो कम से कम समय में उत्पादन में पहले के मुक़ाबले ज़बर्दस्त बढ़ोतरी करना संभव बनाती है, एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने का साधन बनती है जिससे कम से कम समय में अधिक से अधिक काम किये जाते हैं – एक ऐसे साधन के रूप में जिसके द्वारा श्रमशक्ति अधिक से अधिक सघनता से शोषित की जा सकती है। आइये अब हम समूचे रूप में फै़क्टरी पर विचार करने की ओर बढ़ते हैं, फै़क्टरी अपने सर्वाधिक विकसित रूप में….
औजारों के साथ ही उनका इस्तेमाल करने का मज़दूर का हुनर भी मशीन को हस्तान्तरित हो जाता है। औजार की कार्यकारी क्षमता अब मज़दूर की श्रमशक्ति पर लगी व्यक्तिगत बंदिशों से मुक्त हो जाती है। यह उस तकनीकी आधार को उखाड़ देता है जिसपर मैनयुफैक्चरिंग श्रम-विभाजन टिका होता है। विशिष्ट मज़दूरों के पदसोपानक्रम, जो मैन्युफैक्चरिंग श्रम-विभाजन की अभिलाक्षणिकता थी, की बजाय हम पाते हैं कि स्वचालित फै़क्टरी में काम के समानीकरण या समतलीकरण की प्रवृत्ति होती है जिसे मशीनरी के सहायकों को करना होता है। विस्तृत मज़दूरों के बीच के कृत्रिम अन्तर का स्थान मुख्य रूप से उम्र और लिंग के अन्तर ने ले लिया है…
मैन्युफैक्चर और हस्तशिल्प में मज़दूर किसी औजार का उपयोग करता है; फै़क्टरी में वह मशीन की सेवा करता है। पहले वाले मामले में श्रम के औजारों की हरकतें मज़दूर के मातहत होती है; लेकिन बाद वाले में मज़दूर की हरकतें मशीन के मातहत होती है।
मैन्युफैक्चर में मज़दूर एक जीवित प्रक्रिया के अंग होते हैं। फै़क्टरी में उनसे स्वतंत्र एक निर्जीव प्रक्रिया होती है, और वे उस प्रक्रिया में उसके पिछलग्गू के रूप में शामिल रहते हैं।
‘‘लगातार अरुचिकर काम और कड़ी मेहनत की नीरस दिनचर्या, जिसमें एक ही यांत्रिक प्रक्रिया निरंतर दोहरायी जाती है, सिसीफ़स (ग्रीक पौराणिक कथाओं का एक राजा जिसे एक चट्टान को अनन्त काल तक पहाड़ी पर चढ़ाते रहने की सज़ा मिली थी) के सन्ताप जैसा है – चट्टान की ही तरह मेहनत हमेशा कुम्हलाये हुए मज़दूर की ओर वापस लुढ़क जाती है।’’
मशीन पर श्रम करने का स्नायु तंत्र पर बहुत कष्टदायी प्रभाव तो होता ही है, साथ ही यह मांसपेशियों की बहुरूपीय गतिविधि को भी बाधित करता है और स्वतंत्र शारीरिक व मानसिक गतिविधि को निषिद्ध करता है। यहाँ तक कि श्रम का बोझ हल्का करना भी यातना देने का साधन बन जाता है क्योंकि मशीन मज़दूर को उसके काम से मुक्त नहीं करती है, वह बस उसे उसकी रूचि के क्षेत्र से वंचित कर देती है।
हर प्रकार के पूँजीवादी उत्पादन, जिस हद तक वे महज़ श्रम प्रक्रियाएँ नहीं बल्कि पूँजी के स्व-विस्तार को प्रोत्साहित करने की प्रक्रियाएँ भी हैं, में यह चीज़ साझा है कि उनमें मज़दूर श्रम के औजारों का इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि श्रम के औजार मज़दूर का इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि केवल मशीन उत्पादन में ही यह उलटाव एक तकनीकी और सुस्पष्ट वास्तविकता बन पाते हैं।
स्वचालन के इस रूपान्तरण के ज़रिये श्रम का औजार श्रम की प्रक्रिया के दौरान मज़दूर के सामने पूँजी अथवा मृत श्रम के रूप में होता है, जोकि जीवित श्रम को नियंत्रित करता है और उसे निचोड़ डालता है।
उत्पादन की प्रक्रिया की बौद्धिक शक्तियों का शारीरिक श्रम से अलगाव, और इन शक्तियों का श्रम पर पूँजी की शक्तियों में रूपान्तरण मशीन उत्पादन पर आधारित बड़े-पैमाने के उद्योग में पूरा होता है (जैसाकि पहले इंगित किया गया था)। इस प्रकार निचोड़ा जाने वाला मशीन पर काम करने वाले प्रत्येक मज़दूर का व्यक्तिगत विशिष्ट कौशल, मशीन तंत्र में निहित उस विज्ञान के, प्रकृति की उन विराट शक्तियों के और सामाजिक श्रम के पुंज के मुक़ाबले एक महत्वहीन चीज़ बनकर रह जाता है जिसके कारण ‘‘मालिक’’ के हाथ में इतनी ताक़त होती है। इस मालिक का, जिसके दिमाग़ में मशीनरी और उसपर उसकी इजारेदारी अविच्छिन्न रूप से गुँथी होती है, जब भी अपने ‘‘हाथों’’ से तकरार होता है तो वह उनसे तिरस्कारपूर्वक कहता है, ‘‘फै़क्टरी के मज़दूरों को यह बात गाँठ बाँधकर रख लेनी चाहिए कि उनका श्रम वास्तव में निम्न प्रजाति का कुशल श्रम है; और यह कि दूसरा ऐसा कोई श्रम नहीं है जिसे इतनी आसानी से हासिल किया जा सकता हो, या जो इस गुणवत्ता का इससे अधिक पारिश्रमिक वाला हो, या जो कम से कम विशेषज्ञों द्वारा एक लघु प्रशिक्षण से ज़्यादा जल्दी और साथ ही अधिक पूर्णता के साथ सीखा जा सकता हो।…मालिक की मशीनरी वाकई उत्पादन के कारोबार में श्रम और मज़दूर के कौशल से कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है और यह कौशल मात्र छह महीने प्रशिक्षण से आसानी से सिखाया जा सकता है और एक साधारण मज़दूर भी सीख सकता है।’’…
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन