अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में फ़ासिस्ट ट्रम्प की जीत
साम्राज्यवाद के चौधरी के मुँह से उतरा उदारवादी मुखौटा
आनन्द सिंह
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में घोर नस्लवादी, स्त्री-विरोधी, प्रवासी-विरोधी, मुस्लिम-विरोधी और लम्पट डोनाल्ड ट्रम्प की जीत से वहाँ का उदारवादी तबका सदमे में है। ग़ौरतलब है कि अमेरिका का उदारवादी तबका, वहाँ का कॉरपोरेट मीडिया और पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा भी हिलेरी क्लिंटन की जीत पर दाँव लगा रहा था और अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति बनने की घोषणा का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहा था। लेकिन ट्रम्प जैसे फ़ासिस्ट प्रवृत्ति के लम्पट व्यक्ति के राष्ट्रपति चुने जाने से विश्व-पूँजीवाद के सिरमौर के मुँह से भी उदारवादी मुखौटा उतर गया है और उसका घिनौना चेहरा सामने आ गया है। यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि ट्रम्प की यह जीत ढाँचागत संकट की शिकार पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अमेरिका की जनता के ग़ुस्से और बुर्जुआ लोकतंत्र के दायरे के भीतर उसकी लाचारी की भी अभिव्यक्ति है। ट्रम्प की यह जीत 2007 से जारी विश्वव्यापी मन्दी के दौर में दुनिया के तमाम देशों में धुर-दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट ताक़तों के उभार के आम रुझान के ही अनुरूप है।
कई विश्लेषक ट्रम्प की इस जीत के लिए अमेरिकी समाज में व्याप्त नस्लवादी और स्त्री-विरोधी मानसिकता को जिम्मेदार मान रहे हैं। अमेरिकी समाज में पैठी नस्लवादी और स्त्री-विरोधी मानसिकता से इनकार तो हरगिज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन ऐसे विश्लेषणों से हम यह नहीं समझ सकते कि ट्रम्प जैसे लम्पट व्यक्ति की राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार्यता मौजूदा दौर में ही क्यों बढ़ी। इस सवाल का जवाब हमें वर्ग-विश्लेषण के मार्क्सवादी उपकरण के इस्तेमाल से ही मिल सकता है।
ग़ौरतलब है कि 2007 में अमेरिका में आवासीय बुलबुले के फटने के साथ शुरू हुई विश्वव्यापी महामन्दी अभी तक जारी है। जब यह मन्दी शुरू हुई थी तब अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी का जार्ज बुश राष्ट्रपति था। 2008 के राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिकी जनता ने रिपब्लिकन पार्टी को खारिज कर डेमोक्रैटिक पार्टी के बराक ओबामा को इस उम्मीद में राष्ट्रपति चुना था कि उसकी नीतियाँ मन्दी से उबारेंगी। लेकिन ओबामा के दो कार्यकाल पूरा होने पर भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था मन्दी के भँवरजाल से बाहर नहीं निकल पायी है। ओबामा ने जनता की गाढ़ी कमाई से कई ट्रिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज देकर बैंकों और वित्तीय महाप्रभुओं को जीवनदान दिया जिसका फ़ायदा बैंकों और कम्पनियों के शीर्ष अधिकारियों को हुआ, लेकिन आम लोगों की ज़िन्दगी की परेशानियाँ बढ़ती ही गयीं। अमेरिका में रोज़गार के नये अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं और पिछले आठ वर्षों के दौरान मज़दूर वर्ग के साथ ही साथ टटपुँजिया मध्य वर्ग की भी आमदनी और क्रयशक्ति में तेज़ी से गिरावट देखने में आयी है। इसका नतीजा अमेरिकी समाज में आर्थिक असमानता की खाई के चौड़ा होने के रूप में सामने आया। इस घोर आर्थिक असमानता की अभिव्यक्ति निम्न-बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में चले ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन में भी हुई थी जिसका निशाना कॉरपोरेट पूँजी थी। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में हालाँकि ओबामा को जीत हासिल हुई, लेकिन उसे 2008 के मुकाबले बहुत कम वोट मिले थे जो डेमोक्रैटिक पार्टी की घटती लोकप्रियता का ही संकेत था।
अमेरिका का बुर्जुआ लोकतंत्र वहाँ के लोगों को राष्ट्रपति चुनने का जो अधिकार देता है उसका इस्तेमाल करके ज़्यादा से ज़्यादा लोग यह कर सकते हैं कि बुर्जुआ वर्ग के एक नुमाइन्दे से त्रस्त आकर बुर्जुआ वर्ग के दूसरे नुमाइन्दे को चुन लें। इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में अमेरिकी जनता का ग़ुस्सा डेमोक्रैटिक पार्टी ही नहीं बल्कि पूरे बुर्जुआ लोकतंत्र के ख़िलाफ़ देखने में आया। यह इस बात से समझा जा सकता है कि इस बार के चुनाव में 45 प्रतिशत मतदाताओं ने किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं डाला। हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रम्प दोनों को महज़ 25 प्रतिशत के आसपास ही वोट मिले। विस्कॉन्सिन, पेन्सिलवेनिया और मिशीगन जैसे राज्य जो कभी डेमोक्रैटिक पार्टी के गढ़ हुआ करते थे उनमें मज़दूर वर्ग का ग़ुस्सा हिलेरी क्लिंटन और डेमोक्रैटिक पार्टी पर फूटा जिसका लाभ डोनाल्ड ट्रम्प को मिला। हालाँकि ट्रम्प खुद एक पूँजीपति और धनपशु है लेकिन उसने आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहे अमेरिकी मध्यवर्ग और मज़दूर वर्ग के ग़ुस्से को अपनी सस्ती लोकरंजक जुमलेबाज़ी के ज़रिये जमकर भुनाया। उसने अमेरिका को फिर से महान बनाने के सब्ज़बाग दिखाये। उसने लोगों को यह यकीन दिलाया कि उनकी समस्याओं की वजह बाहर से आ रहे प्रवासी मज़दूर हैं। उसने यहाँ तक कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद आप्रवासन रोकने के लिए वह अमेरिका और मेक्सिको की सीमा पर ऊँची दीवार बनवायेगा। यही नहीं उसने मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत को चरम पर ले जाते हुए कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद वह मुसलमानों के अमेरिका में आने पर प्रतिबन्ध लगा देगा। वर्ग चेतना के अभाव में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिका के मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को ये घनघोर मज़दूर-विरोधी बातें जँचीं और उन्होंने ट्रम्प जैसे लम्पट और अय्याश पूँजीपति के पक्ष में वोट देने से गुरेज़ नहीं किया। पिछले चुनाव में ऐसी ही बातों के ज़रिये नरेन्द्र मोदी भी भारत के बहुत से ग़रीबों और मज़दूरों का वोट पाने में कामयाब हो गया था।
डोनाल्ड ट्रम्प जैसे धुर दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति के विश्व-पूँजीवाद की चोटी पर विराजमान होने से निश्चय ही अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया भर के मज़दूरों की मुश्किलें और चुनौतियाँ आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। मज़दूर वर्ग को नस्लीय और धार्मिक आधार पर बाँटने की साज़िशें आने वाले दिनों में और परवान चढ़ने वाली हैं। लेकिन ट्रम्प की इस जीत से मज़दूर वर्ग को यह भी संकेत साफ़ मिलता है कि आज के दौर में बुर्जुआ लोकतंत्र से कोई उम्मीद करना अपने आपको झाँसा देना है। बुर्जुआ लोकतंत्र के दायरे के भीतर अपनी चेतना को क़ैद करने का नतीजा मोदी और ट्रम्प जैसे दानवों के रूप में ही सामने आयेगा। आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में परिस्थितियाँ चिल्ला-चिल्लाकर पूँजीवाद के विकल्प की माँग कर रही हैं। इसलिए वोट के ज़रिये लुटेरों के चेहरों को बदलने की चुनावी नौटंकी पर भरोसा करने की बजाय दुनिया के हर हिस्से में मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद को कचरे की पेटी में डालकर उसका विकल्प खड़ा करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभाने के लिए आगे आना ही होगा।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर-नवम्बर 2016
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन