उत्तर प्रदेश में बिजली के निजीकरण पर आमादा सरकार
आन्‍दोलन के दबाव में सरकार एक क़दम पीछे हटी, लेकिन यह सन्तुष्ट होने का समय नहीं है!

– आनन्द सिंह
(इस रिपोर्ट के बहुत-से तथ्य
श्री अमित कुमार के लेख
से साभार लिये गये हैं)

उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता के आगे आख़िरकार योगी सरकार को झुकना पड़ा। गत 6 अक्टूबर को विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति के साथ हुए समझौते में प्रदेश सरकार को पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड का निजीकरण करने की अपनी योजना को तीन महीने के लिए टालने मजबूर होना पड़ा। निश्चित रूप से यह प्रदेश के 15 लाख कर्मचारियों की एकजुटता की शानदार जीत है। लेकिन इस जीत से संतुष्ट होकर सरकार पर दबाव कम करने से बिजली के वितरण प्रक्रिया का निजीकरण करके निजी वितरण कम्पनियों को मुनाफ़े की सौग़ात देने के मंसूबे को पूरा करने में कामयाब हो जायेगी। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि सरकार ने निजीकरण की योजना को रद्द नहीं किया गया, बस टाला है और वह भी महज़ तीन महीने के लिए। इन तीन महीनों के दौरान पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड को कहा गया है कि वह अपने घाटे को कम करे और तीन महीने बाद सरकार उसकी समीक्षा करने के बाद आगे का रास्ता तय करेगी। स्पष्ट है कि सरकार ने फ़िलहाल बिजली कर्मचारियों के आक्रोश पर ठण्डा पानी डालते हुए भविष्य में निगम द्वारा घाटा कम न कर पाने का तर्क देते हुए उसको निजी हाथों में सौंपने की पूर्वपीठिका तैयार कर ली है।
ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में बिजली के वितरण का काम पाँच निगमों के ज़रिये होता है – पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम, कानपुर विद्युत आपूर्ति कम्पनी, दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम, मध्यांचल विद्युत वितरण निगम और पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम। इनमें से पहली दो ही ऐसे हैं जो घाटे में नहीं हैं। ये वितरण कम्पनियाँ वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद को भंग करके बनायी गयी थीं। उस समय इन निगमों को बनाने का मक़सद भविष्य में इनको निजी हाथों में सौंपने की तैयारी करना ही था।
इसी प्रकार विद्युत अधिनियम (इलेक्ट्रिसिटी एक्ट) 2003 भी देशभर में बिजली के निजीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिए उसका फ़्रेमवर्क बनाने के मक़सद संसद द्वारा पारित किया गया था। इस विधेयक में राज्य के विद्युत बोर्डों को भंग करके विद्युत उत्पादन, विद्युत ट्रांसमिशन और विद्युत वितरण तीन हिस्सों में विभाजित करने का प्रावधान था। इन प्रावधानों ने बिजली के क्षेत्र में निजी कम्पनियों के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रकार बिजली जो आधुनिक युग में किसी देश के विकास की आधारशिला है, उसे साबुन, तेल और मंजन जैसे माल में तब्दील कर दिया गया। ग़ौरतलब है कि इस प्रक्रिया में निजी कम्पनियों ने केवल वहीं प्रवेश किया जहाँ मुनाफ़ा कमाने के पर्याप्त अवसर थे। घाटे वाले क्षेत्रों को राज्यों के निगमों के हवाले कर दिया गया। विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में निजी कम्पनियों के प्रवेश से विद्युत उत्पादन की क़ीमतें बढ़ती गयीं और राज्यों के विद्युत वितरण निगमों का घाटा भी बढ़ता गया। 1992-93 में राज्य विद्युत बोर्डों का कुल घाटा 2,725 करोड़ रुपये था जो 2002-03 में नौ गुना बढ़कर 24,837 करोड़ रुपये हो गया। आज राज्यों के वितरण निगमों का कुल घाटा 3.8 लाख करोड़ तक जा पहुँचा है। उत्तर प्रदेश की बात करें तो 2000 में वितरण निगमों के बनने से पहले उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद का कुल घाटा मात्र 77 करोड़ था जबकि आज वितरण निगमों का कुल घाटा 95,000 करोड़ जा पहुँचा है। इसी घाटे को आधार बनाकर अब इन निगमों के निजीकरण की क़वायद की जा रही है जबकि सच्चाई यह है कि इस घाटे की मुख्य कारण विद्युत उत्पादन कम्पनियों द्वारा वितरण निगमों को अधिक दरों पर बिजली बेचना, सरकार द्वारा उद्योगों को रियायती क़ीमतों पर बिजली प्रदान करना और ग्रामीण व पिछड़े इलाक़ों को दी जाने वाली बिजली में सब्सिडी देना रहा है।
योगी सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश में बिजली का निजीकरण शुरू करने की प्रक्रिया को पूरे देश में निजीकरण की प्रक्रिया तेज़ करने के नवउदारवादी मॉडल की पृष्ठभूमि में ही देखने की ज़रूरत है। ग़ौरतलब है कि जिस समय प्रदेश में योगी सरकार पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम के निजीकरण को तीन महीने तक टाल रही थी लगभग उसी समय केन्द्र की मोदी सरकार राज्यों के लिए विद्युत वितरण निगमों को बेचने के लिए बोली लगाने सम्बन्धी मानक दस्तावेज़ का मसौदा प्रस्तुत कर रही थी। कोरोना आपदा को अवसर में तब्दील करते हुए केन्द्र सरकार ने केन्द्र शासित प्रदेशों के विद्युत वितरण निगमों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर ली। यहाँ तक कि जम्मू व कश्मीर एवं लद्दाख में विद्युत वितरण का निजीकरण की तैयारी की जा रही है जो अभी एक साल पहले तक एक राज्य का हिस्सा थे। इसके अलावा कोरोना काल में ही केन्द्र सरकार ने विद्युत अधिनियम 2003 में संशोधन करके निजीकरण की रफ़्तार तेज़ करने की मंशा से विद्युत अधिनियम 2020 का मसौदा प्रस्तुत किया। अब विद्युत वितरण को भी दो हिस्सों में बाँटने की योजना है – पहला सबस्टेशनों पर उपकरणों को लगाने व उनके रखरखाव तथा मरम्मत सम्बन्धी काम और दूसरा विद्युत उपभोक्ताओं का मीटर लगाना, बिलिंग और भुगतान सम्बन्धी काम। इनमें से दूसरा हिस्से में ही मुनाफ़ा ज़्यादा है इसलिए निजी वितरण कम्पनियों की निगाह उसी पर गड़ी है।
बिजली वितरण का निजीकरण तेज़ करने के पीछे केन्द्र व राज्य सरकारों का तर्क यह रहता है कि इससे बिजली विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार में कमी आएगी, बिजली कटौती कम होगी और उपभोक्ताओं को सस्ते दर पर बिजली मिलेगी। लेकिन जिन जगहों पर अभी तक निजीकरण का प्रयोग किया गया है वहाँ के अनुभव इसके उलट रहे हैं। दिल्ली उड़ीसा, आगरा, ग्रेटर नोएडा, औरंगाबाद, नागपुर, जलगाँव, उज्जैन, ग्वालियर, भागलपुर और मुज़फ़्फ़रपुर जैसी जगहों पर बिजली वितरण के जो प्रयोग रहे वे विफल ही साबित हुए हैं। दिल्ली में अम्बानी व टाटा की विद्युत वितरण कम्पनियों ने उपभोक्ताओं को 8000 करोड़ रुपये की चपत लगायी जिसका उल्लेख कम्पट्रोलर एवं ऑडिटर जनरल (सीएजी) की रिपोर्ट में किया गया था। लेकिन इस घोटाले को उजागर करने वाली उस रिपोर्ट को दबा दिया गया। उड़ीसा में बिजली निजीकरण का प्रयोग इतना फिसड्डी साबित हुआ कि वहाँ सरकार को बिजली वितरण का काम फिर से सरकारी निगम को सौंपना पड़ा। बॉक्स में आगरा में विद्युत वितरण के निजीकरण का नतीजों का उल्लेख किया गया है। कमोबेश ऐसी ही हालत हर उस शहर में देखने में आ रही है जहाँ विद्युत वितरण के निजीकरण के प्रयोग किये गये हैं। निजीकरण की मार उपभोक्ताओं तो पड़ेगी ही, साथ ही साथ बिजली कर्मचारियों के जीवन पर भी इसका सीधा असर पड़ेगा। विद्युत वितरण निगमों के कर्मचारियों को अभी तक जो वेतन, भत्ते, पीएफ़ सहित जो सेवा शर्तें व सामाजिक सुरक्षा प्राप्त थी, निजीकरण के बाद उनमें भारी कटौती होगी।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बिजली के निजीकरण से न तो उपभोक्ताओं से कोई लाभ है और न ही कर्मचारियों को। इसके बावजूद अगर केन्द्र व राज्य सरकारें निजीकरण की रफ़्तार तेज़ करने पर आमादा हैं तो यह सिर्फ़ इसलिए कि वे आज जनता के हितों की नहीं बल्कि मुट्ठी भर कॉरपोरेट घरानों के हितों की नुमाइन्दगी करती हैं। विश्वव्यापी मन्दी के दौर में ये कॉरपोरेट घराने अपने मुनाफ़े की दर में गिरावट को कम करने के लिए अपनी गिद्ध-दृष्टि सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों पर गड़ाये हुए हैं। यही वजह है कि महामारी के दौर में भी मोदी सरकार बिजली ही नहीं, रेलवे, बीमा, दूरसंचार आदि क्षेत्रों में भी निजीकरण की प्रक्रिया तेज़ कर रही है। इस परिदृश्य में उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों को यह समझना होगा कि योगी सरकार ने अगर तीन महीने के लिए पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम के निजीकरण की योजना टाली है तो इससे बहुत आश्वस्त होने की ज़रूरत नहीं है। आने वाले दिनों में निजीकरण की रफ़्तार और तेज़ किया जाना तय है जिसका ख़ामियाज़ा आम जनता और सरकारी कर्मचारियों को चुकाना पड़ेगा। आम जनजीवन पर पूँजी के इस हमले का मुक़ाबला केवल लोगों की जुझारू एकजुटता से ही किया जा सकता है। निजीकरण के ख़िलाफ़ एक जुझारू जनान्दोलन खड़ा करके ही पूँजी के हमले से बचा जा सकता है। इस आन्दोलन से सार्वजनिक क्षेत्र के सभी उपक्रमों के कर्मचारियों और आम लोगों को भी जोड़ने की ज़रूरत है।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020


 

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