गुजरात से उत्तर भारतीय प्रवासी मज़दूरों का पलायन
मज़दूर वर्ग पर बरपा ‘गुजरात मॉडल’ का कहर

 आनन्द सिंह

पिछले दो दशकों के दौरान जहाँ एक ओर गुजरात हिन्दुत्ववादी फासीवाद की प्रयोगशाला बनकर उभरा, वहीं दूसरी ओर नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ भी सबसे नंगे रूप में गुजरात में ही लागू की गयीं। पूँजीवाद की सेवा में लगे तमाम अर्थशास्त्री और बुद्धिजीवी गला फाड़-फाड़कर ‘गुजरात मॉडल’ की ख़ूबियाँ गिनाते हैं। इस मॉडल के तहत पूँजी का स्वागत पलक-पावड़े बिछाकर किया गया और निवेश आकर्षित करने के नाम पर पूँजीपतियों को मनचाही रियायतों का तोहफ़ा दिया गया। लेकिन विकास के इस ‘गुजरात मॉडल’ ने मज़दूरों की ज़ि‍न्दगी बद से बदतर कर दी। गुजरात में लगे उद्योगों में काम कर रहे मज़दूर लम्बे समय से आर्थिक तंगी से तो जूझ ही रहे थे, लेकिन पिछले दिनों वहाँ के प्रवासी मज़दूरों के अस्तित्व का ही संकट उठ खड़ा हुआ। गुज़री 28 सितम्बर को उत्तरी गुजरात के साबरकण्ठा जि़ले के एक गाँव में 14 महीने की एक बच्ची के साथ बलात्कार की नृशंस घटना में एक हिन्दी भाषी प्रवासी मज़दूर की संलिप्तता की ख़बर आने के बाद गुजरात के विभिन्न हिस्सों में प्रवासी मज़दूरों पर हिंसक हमले होने लगे। व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया के ज़रिये इन हमलों की ख़बरें फैलने से गुजरात में रहने वाले लाखों उत्तर भारतीय प्रवासी मज़दूरों में डर व आतंक फैल गया, जिसके फलस्वरूप हाल के दिनों में गुजरात में काम कर रहे उत्तर भारतीय प्रवासी मज़दूरों का बड़े पैमाने पर पलायन देखने में आया है।

गुजरात उच्च न्यायालय में दायर की गयी एक जनहित याचिका के अनुसार 28 सितम्बर की घटना के बाद गुजरात से दो लाख से भी अधिक प्रवासी मज़दूरों का पलायन हुआ है। ये प्रवासी मज़दूर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के रहने वाले थे। पलायन की ख़बरें ज़्यादातर साबरकण्ठा, पाटन, मेहसाना, गाँधीनगर और अरावली जि़लों से सुनने में आयी। सिर पर घर-गृहस्थी का सामान लिए प्रवासी मज़दूरों के परिवार सहित गुजरात से पलायन के दृश्य किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देने वाले थे, परन्तु सवाल तो यह उठता है कि आखि़र इतने बड़े पैमाने पर हुए पलायन की वजह क्या थी?

इस पलायन की तात्कालिक वजह कांग्रेसी विधायक अल्पेेश ठाकोर द्वारा 1 अक्टूबर को हिम्मतनगर में सम्बोधित रैली बतायी जा रही है, जिसमें उसने 14 वर्षीय बच्ची के बलात्कार का हवाला देते हुए गुजरात में रह रहे प्रवासी उत्तर भारतीयों पर जमकर ज़हर उगला। उस रैली की वीडियो सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप के ज़रिये पूरे गुजरात में फैल गयी और जगह-जगह प्रवासी मज़दूरों पर हमले होने लगे। इन हमलों में ठाकोर की ‘गुजरात क्षत्रिय ठाकोर सेना’ के कार्यकर्ताओं की संलिप्तता के प्रमाण मिले हैं। 28 सितम्बर की घटना के बाद से गुजरात के विभिन्न हिस्सों में प्रवासी मज़दूरों के ख़ि‍लाफ़ हिंसा की 42 वारदातें रिपोर्ट की गयीं जिनमें 400 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार किये गये। हिंसा की ख़बर फैलते ही प्रवासी मज़दूरों में ख़ौफ़ व दहशत फैल गयी, जिसकी वजह से उन्हें गुजरात छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। इसके अलावा तमाम प्रवासी मज़दूर कैम्पों में रहने पर मजबूर हैं।

गुजरात से उत्तर भारत के प्रवासी मज़दूरों के पलायन के इस त्रासद प्रकरण की थोड़ा और गहराई से पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि इसके मूल में तथाकथित गुजरात मॉडल है जिसके फलस्वरूप हाल के वर्षों में गुजरात एक ओर मुनाफ़ाखोरों का स्वर्ग बनकर उभरा है तो दूसरी ओर आम मेहनतकश लोगों का जीना दूभर हो गया है। नरेन्द्र मोदी के मुख्यमन्त्री पद पर आसीन होने के दौर से ही ढोल-नगाड़े पीट-पीटकर प्रचारित किये जा रहे इस गुजरात मॉडल का नतीजा यह हुआ है कि गुजरात में भयंकर आर्थिक असमानता, प्रचण्ड बेरोज़गारी, ग़रीबी और भुखमरी लगातार बढ़ती गयी है। नेशनल सैम्पल सर्वे के एक आँकड़े के अनुसार गुजरात में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 20 प्रतिशत अधिक है, लकिन वहाँ मज़दूरी गाँवों में राष्ट्रीय औसत की तुलना में 20 प्रतिशत तथा शहरों में 15 प्रतिशत कम है।

ग़ौरतलब है कि टेक्सटाइल्स, रिफ़ाइनरी, केमिकल्स, हीरा, सेरेमिक, प्लाईवुड आदि के कारख़ानों में काम करने वाले अधिकांश मज़दूर गुजरात से बाहर से आते हैं, क्योंकि गुजरात में छोटे-मोटे धन्धों, शेयर बाज़ार की सट्टेबाजी, दुकानदारी जैसे कामों की संस्कृति की वजह से गुजराती मज़दूरों की संख्या बहुत कम है। सूरत में टेक्सटाइल्स सहित विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों में 70 प्रतिशत प्रवासी मज़दूर हैं, जबकि अहमदाबाद के लगभग आधे मज़दूर अन्य राज्यों से आते हैं। यूपी, बिहार सहित उत्तर भारत के अन्य हिस्सों से गुजरात में प्रवासी मज़दूरों का आना गुजरात के पूँजीपति वर्ग के हित में है क्योंकि उन्हें हुनरमन्द और सस्ती श्रमशक्ति मिलती है, जो ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पीटने की उनकी अन्तहीन हवस के लिए ज़रूरी है। यही वजह है कि हाल ही में गुजरात सरकार ने गुजरात का डोमिसाइल बनने के लिए योग्यता की अवधि 15 वर्ष से घटाकर 2 वर्ष कर दी है।

लेकिन गुजरात मॉडल बहुत बड़े पैमाने पर छोटे कारोबारियों को उजाड़ रहा है और युवाओं में बेरोज़गारी भी लगातार बढ़ती जा रही है जो एक सामाजिक उथल-पुथल की ज़मीन तैयार कर रही है। नोटबन्दी और जीएसटी ने यह प्रक्रिया और तेज़ कर दी है। इसके साथ ही गुजरात के गाँवों में पूँजीवादी विकास की वजह से छोटे और मझौले किसान तबाह हो रहे हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे के 2012 के आँकड़े के अनुसार गुजरात के गाँवों 43 प्रतिशत किसान क़र्ज़दार हैं। किसानों के उजड़ने के मामले में गुजरात अग्रणी राज्यों में है। 2000 से 2011 के बीच गुजरात में मालिक किसानों की संख्या में 35 प्रतिशत की कमी देखने में आयी। 2013 से 2015 के बीच गुजरात में किसानों की आत्महत्या की 1483 घटनाएँ रिपोर्ट की गयीं। तबाही की परिस्थिति में वे रोज़गार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर हो रहे हैं और शहरों में बेरोज़गारों की औद्योगिक रिज़र्व सेना में इज़ाफ़ा कर रहे हैं। गुजरात मॉडल पूँजीपतियों का मुनाफ़ा तो सुनिश्चित करता है, लेकिन रोज़गार के सृजन के मामले में वह फिसड्डी साबित हुआ है।     

आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा के इस प्रदूषित माहौल में ही साम्प्रदायिक, जातिगत और प्रवासी-विरोधी विचारों के कीटाणु भाँति-भाँति के प्रतिक्रियावादी गुटों के रूप में फल-फूल रहे हैं। गुजराती समाज में संघ परिवार की जकड़बन्दी की वजह भी यही असुरक्षा का माहौल है और हार्दिक पटेल व अल्पेश ठाकोर के नेतृत्व में जारी जातिगत गोलबन्दी भी इसी माहौल की उपज है। हाल के वर्षों में गुजरात में घटित उना की घटना, पाटीदार आन्दोलन और प्रवासी मज़दूरों पर हमलों को भी इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। विडम्बना तो यह है कि तमाम प्रगतिशील लोग हार्दिक पटेल व अल्पेश ठाकोर जैसे प्रतिक्रियावादी नेताओं के साथ गठबन्धन बनाकर हिन्दुत्ववादी फासीवाद से निपटने के दिवास्वप्न देख रहे हैं।

28 सितम्बर की घटना से पहले ही गुजरात में प्रवासियों के खि़लाफ़ नफ़रत का माहौल था, क्योंकि संघ परिवार के तमाम आनुषंगिक संगठन और ठाकोर सेना जैसे तमाम प्रतिक्रियावादी संगठन लोगों की समस्याओं के लिए प्रवासियों को जि़म्मेदार ठहराने का ज़हरीला काम कर रहे थे, ताकि उनका गुस्सा व्यवस्था के खि़लाफ़ न हो जाये। ग़ौरतलब है कि 28 सितम्बर की घटना के तीन दिन पहले ही गुजरात के मुख्यमन्त्री विजय रूपानी ने गुजरात के उद्योगों में 80 प्रतिशत नौकरियाँ गुजरातियों के लिए आरक्षित करने की नीति को सख्ती से लागू करने का आश्वासन दिया था।

गुजरात से प्रवासी मज़दूरों के पलायन की ख़बरें जब मीडिया की सुर्खियों में छाने लगीं तो गुजरात पुलिस के आला अधिकारी मामले की लीपापोती में जुट गये। संवेदनहींनता की हदें पार करते हुए उन्होंने इसे त्योहारों के सीज़न में होने वाली सामान्य परिघटना बताया, जबकि सच्चाई तो यह है कि जब पलायन शुरू हुआ तब दशहरा, दीवाली और तीज के त्योहार अभी दूर थे और जिस तरह से मज़दूर अपना बोरिया बिस्तर लेकर जा रहे थे, उससे स्पष्ट था कि वे डर व आतंक के सताये हुए हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने तो सफ़ेद झूठ बोलते हुए कहा कि गुजरात से मज़दूरों के पलायन की ख़बरें अफ़वाह हैं और वहाँ मज़ूदर पूरी तरह से सुरक्षित हैं। हुक्मरानों का यह रवैया बिल्कुल भी आश्चर्यजनक नहीं है, बल्कि इससे यह साबित होता है कि वे मज़दूर वर्ग के शत्रु और पूँजीपति वर्ग के सेवक हैं।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर-अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2018


 

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