Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नाम मज़दूरों का खुला पत्र

प्रधानमन्त्री पद के लिए आपने जिस संविधान की शपथ ली, उसी संविधान के तहत हम मज़दूरों के लिए 260 श्रम क़ानून बने हुए हैं। लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के 66 साल बाद भी श्रम क़ानून सिर्फ़ काग़ज़ों की शोभा बढ़ाते हैं, असल में मज़दरों को न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है न ही पीएफ़, ईएसआई की सुविधा। पूरे देश में ठेका प्रथा लागू करके मज़दूरों को आधुनिक गुलाम बना लिया गया है। इन सारे श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने वाले फ़ैक्टरी मालिक या व्यापारी किसी न किसी चुनावी पार्टी से जुड़े हुए हैं या करोड़ों का चन्दा देते हैं, बाक़ी ख़ुद भाजपा के कई सांसदों, विधायकों, पार्षदों की फ़ैक्टरियाँ हैं जहाँ श्रम क़ानूनों की सरेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं। ऐसे में क्या आप या भाजपा इनके खि़लाफ़ मज़दूर हितों के लिए कोई संघर्ष चलाने वाले हैं?

एक मज़दूर की ज़िन्दगी

मैं रामकिशोर (आजमगढ़ यू.पी.) का रहने वाला हूँ। गुड़गाँव की एक फ़ैक्टरी में काम करता हूँ। मुझे मज़दूर बिगुल अख़बार पढ़ना बहुत ज़रूरी लगता है, क्योंकि यह हम मज़दूरों की ज़िन्दगी की सच्चाई बताता है और इस घुटनभरी ज़िन्दगी से लड़ने का तरीक़ा बताता है, और मैं तो अपने बीवी-बच्चों को भी यह अख़बार पढ़कर सुनाता हूँ। मुझे ज़रूरी लगा इसलिए अपनी यह चिट्ठी ‘मज़दूर बिगुल’ कार्यालय में सम्पादक जी को भेज रह हूँ।

सी.सी. टीवी से मज़दूरों पर निगरानी

फैक्ट्री में ईवा कम्पनी का चप्पल एवं जूता बनता है, जिसमें काफी प्रदूषण होता है, जिससे मज़दूर टीबी एवं दमा के शिकार हो जातेे हैं। 2007 में एक मज़दूर का हाथ कट गया था, उस मज़दूर का ई.एस.आई. लगवाकर छोड़ दिया गया और काम से भी निकाल दिया गया। फैक्ट्री में इतनी कड़ाई है कि एक लेबर दूसरे से बात नहीं कर सकता है। फैक्ट्री में तो मालिक ने सीसीटीवी भी लगा रखा है जिससे वह मज़दूरों पर हर समय नज़र रखता है। ऐसा लगता है कि हम एक कैदखाने में काम करते हैं, ज़रा नज़रें उठायीं तो गाली-गलौज सुनो!

आपस की बात

‘‘पार्टी आप’’ ‘‘पार्टी आप’’
डाल माल प्रवचन सुनाये
गाल बजाये तोंद फुलाये
बुद्धि के ठेकेदार
ढंग कुढंगी बेढब संगी
चोली दामन का साथ।
जेपी लोहिया की कब्र उखाड़
टेम्प्रेचर का लेकर नाप
क्रान्ति होगी मोमबत्ती छाप

हमें मज़दूर बिगुल क्यों पढ़ना चाहिए?

आज भारत की 88 प्रतिशत मेहनतकश आबादी जो हर चीज अपनी मेहनत से पैदा करती है जिसके दम पर यह सारी शानौ-शौकत है वो खुद जानवरों सी जिन्‍दगी जीने को मजबूर है। आये दिन कारखानों में मज़दूरों के साथ दुर्घटनाएँ होती रहती हैं और कई बार तो इन हादसों में मज़दूरों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी है, पर किसी भी दैनिक अखबार में इन हादसों को लेकर कोई भी खबर नही छपती है। अगर कोई इक्का-दुक्का अखबार इन खबरों को छाप भी दे तो वह भी इसे महज एक हादसा बता अपना पल्ला झाड़ लेता है जबकि यह कोई हादसे नहीं है बल्कि मालिकों द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने की हवस मे मज़दूरों की लगातार की जा रही निर्मम हत्याएँ हैं। दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और इन जैसे ही अन्य अखबार कभी भी मज़दूरों कि माँगों और उनके मुद्दों से संबंधित ख़बरें नही छापेंगे क्योंकि यह सब पूँजीपतियों के पैसे से निकलने वाले अखबार है और यह हमेशा मालिकों का ही पक्ष लेगे। मज़दूरों की माँगो, मुद्दों और उनके संघर्षों से जुड़ी ख़बरे तो एक क्रान्तिकारी मज़दूर अखबार में ही छप सकती हैं और ऐसा ही प्रयास मज़दूर बिगुल का भी है जो मज़दूरों के लिए मज़दूरों के अपने पैसे से निकलने वाला हमारा अपना अखबार है, जिसका मुख्य उद्देश्य मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी प्रचार प्रसार करते हुए उन्हे संगठित करना है।

डॉ. अमृतपाल को चिट्ठी!

इन लेखों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला और मै तो ये मानता हूँ। कि हमारे जितने मज़दूर भाई हैं। उन सब के लिए ये मज़दूर बिगुल अखबार बहुत जरूरी है। मै तो अपने और दोस्तों को भी यह अखबार पढ़वाता हूँ।

कुत्ते और भेड़िये, और हमारी फ़ैक्टरी के सुपरवाइज़र

मैं इन सुपरवाइज़रों की कुत्ता-वृत्ति और भेड़िया-वृत्ति को पता नहीं
शब्दों में बाँध भी पा रही हूँ
कि नहीं
इनकी भौं-भौं और इनकी गुर्र-गुर्र
इनका विमानवीकरण
इनके दाँतों और नाख़ूनों में लगा
हमारी दम तोड़ती इच्छाओं और स्वाभिमान का ख़ून और ख़ाल

एक मज़दूर की मौत!

उसकी माँ ने मौत के मुआवजे़ के लिए बहुत दौड़ लगायी मगर कम्पनी मैनजमेंट को ज़रा भी तरस नहीं आया। उसकी माँ ने कम्पनी मैनेजेण्ट से अपील की और पुलिस से गुहार लगायी। कम्पनी में पुलिस आयी भी मगर कोई कुछ भी नहीं बोला और कोई सुराग भी हाथ नहीं लगा। क्योंकि उसकी मौत के अगले दिन ही उसकी हाज़िरी के सात दिन की उपस्थिति ग़ायब कर दी गयी। और बहुत ही सख़्ती के साथ मैनेजर ने अपने आफिस में लाइन मास्टरों, सुपरवाइज़रों, ठेकेदारों से लेकर सिक्योरिटी अफसरों तक को यह हिदायत दे दी कि अगर उसकी मौत के बारे में किसी ने उसके पक्ष एक बात भी कही तो उसके लिए इस कम्पनी से बुरा कोई नहीं होगा। और इस तरह ऊपर से लेकर नीचे एक-एक हेल्पर व सभी कर्मचारियों तक मैनेजर की यह चेतावनी पहुँच गयी। और पूरी कम्पनी से कोई कुछ नहीं बोला। उसकी माँ सात दिन तक गेट के बाहर आती रही, लगातार रोती रही। मगर हम मज़दूरों में कोई यूनियन न होने की वजह से हम सब मजबूर थे। और आज मैं भी यह सोच रहा हूँ कि मेरे साथ भी अगर कोई हादसा होगा तो मेरे घरवालों के साथ भी यही हाल होगा।

नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं गुड़गाँव में काम करने वाले सफाई कर्मचारी, गार्ड और अन्य मज़दूर

श्रम कानूनों के अनुसार सबसे पहले तो ठेका प्रथा ही गैर-कानूनी है, दूसरी बात यह है कि अगर आपको किसी कम्पनी में काम करते हुए एक साल या उससे अधिक समय हो चुका है तो आप उस कम्पनी के नियमित कर्मचारी हो जाते है। जिसके अनुसार जो सुविधाएँ बाकी नियमित कर्मचारियों को प्राप्त है जैसे कि ईएसआई कार्ड, मेडिकल बीमा, वार्षिक वेतन वृद्धि आदि वह सब सुविधाएँ उसे भी मिलनी चाहिए परन्तु इनमें से कोई भी सुविधा उन लोगो को प्राप्त नहीं हैं जबकि कानूनन हम इसके हक़दार है। ऐसी स्थिति के पीछे जो सबसे प्रमुख कारण है वह यह है कि हमे अपने अधिकारों का ज्ञान ही नही है और जब तक हम अपने अधिकारों को जानेंगे नही तब तक हम यूँ ही धोखे खाते रहेंगे।

मज़दूरों को अपनी समझ और चेतना बढ़ानी पड़ेगी, वरना ऐसे ही ही धोखा खाते रहेंगे

मेरा कहने का मतलब है कि मज़दूरों का कोई भी संगठन बिना जनवाद के नहीं चल सकता। लेकिन सीटू, एटक, इंटक, बीएमएस तथा उनसे जो संगठन अलग होकर मज़दूरों को गुमराह कर रहे हैं और कैसे भी करके अपनी दाल-रोटी चला रहे हैं। मज़दूरों को इन संगठनों से बचना होगा और अपनी समझ को बढ़ाना और अपनी चेतना विकसित करनी होगी। तभी कोई क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन पूरे देश के पैमाने पर खड़ा किया जा सकता है।