मैं काम करते-करते परेशान हो गया, क्योंकि मेहनत करने के बावजूद पैसा नहीं बच पाता
अमित मोदी, वज़ीरपुर
मैं बिहार का रहने वाला हूँ। 2010 में मजबूरी के कारण पहली बार अपना गाँव छोड़कर दिल्ली आना पड़ा। मुझे दुनियादारी के बारे में पता नहीं था। कुछ दिन काम की तलाश में दिल्ली में जगह-जगह घूमे और अन्त में वज़ीरपुर में झुग्गी में रहने लगे। गाँव के मुक़ाबले झुग्गी में रहना बिल्कुल अलग था, झुग्गी में आठ-बाय-आठ कमरा था। पानी की मारामारी अलग से थी। यहीं मुझे स्टील प्लाण्ट में काम भी मिल गया। यहाँ तेज़ाब का काम होता था जिसमें स्टील की चपटी पत्तियों को तेज़ाब में डालकर साफ़ किया जाता है। तेज़ाब का धुआँ लगातार साँस में घुलता रहता है और काम करते हुए अन्दर से गला कटता हुआ महसूस होता है। तेज़ाब कहीं गिर जाये तो अलग समस्या होती है। पिछले हफ़्ते तेज़ाब में काम करते हुए मेरी आँख में तेज़ाब गिर गया था। आँख जाते-जाते बची है। मालिक और मुनीम की गालियाँ अलग से सुननी पड़ती हैं। बैठने का समय नहीं, आराम करने का समय नहीं, अगर रुके तो मालिक गाली देता है या काम देता है। मैं काम करते-करते परेशान हो गया, क्योंकि मेहनत करने के बावजूद पैसा नहीं बच पाता था। मैंने तय किया कि किसी बेहतर जगह काम करूँगा। स्टील के काम की जानकारी थी तो सोचा कि इस काम में हाथ अाज़माऊँगा। वज़ीरपुर से अलग भिवाड़ी और गुजरात में काम की बात सुनी थी। काम करते-करते फ़ैक्टरी में सुना था कि राजस्थान के भिवाड़ी में मालिक पैसा अच्छा देता है और ऊपर से सुरक्षा का भी इन्तज़ाम है। वज़ीरपुर से बेहतर जगह लगी तो अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर मैं भिवाड़ी चला गया। पर यहाँ भी हालत वज़ीरपुर जैसे ही थे। वही तेज़ाब का प्लाण्ट और मालिक और मुनीम की गालियाँ। पर लगा कि जब हर जगह हालत एक जैसी है तो इधर-उधर भटकने में कोई लाभ नहीं है। मैंने भिवाड़ी में ही काम करने का फै़सला किया। ज़िन्दगी के कुछ साल भिवाड़ी में बीत गये। पर अब यहाँ ज़िन्दगी नर्क लगने लगी थी, तो सामान उठाकर मैं गुड़गाँव आ गया। यहाँ भी हालात वैसे ही थे। पर एक रविवार की शाम को पार्क में कुछ यूनियन वालों को मीटिंग करते देखा। वहाँ मुझे बिगुल अख़बार मिला। एक यूनियन वाले ने बताया कि बिगुल का काम वज़ीरपुर में भी है और वहाँ स्टील मज़दूरों की यूनियन भी है। मैंने तुरन्त वज़ीरपुर जाने का फै़सला किया। यहाँ 2014 में हड़ताल हुई थी, पर अभी मज़दूरों की एकता बिखरी हुई है। पर अब मैं यूनियन की मीटिंग में आता हूँ और फ़ैक्टरी में बिगुल लेकर जाता हूँ, ताकि इस हालात के बारे में सबको समझा सकूँ।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन