न्याय, विधान, सविंधान का घिनौना नंगा नाच
मन्नू मज़दूर, ओखला दिल्ली
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा – दिल्ली में मज़दूरों का न्यूनतम वेतन नहीं बढ़ेगा, क्योंकि पड़ोसी राज्यों से ज़्यादा तनख़ा है दिल्ली में मज़दूरों की।
लेकिन आज मज़दूरों को ज़रूरत है लाखों में तब जाकर वे अपने माता-पिता, भाई-बहन-बच्चों को पाव-पाव दूध, खाने में दाल-सब्ज़ी, पढ़ाई, रहने के लिए घर नसीब हो सकता है। लेकिन आज की परिस्थिति आठ बाई आठ के कमरे में रहना, ना सही से खाने को, ना ही जीने का कोई उत्साह। सुबह जगो तो काम के लिए, नहाओ तो काम के लिए, खाओ तो काम के लिए, रात बारह बजे सोओ तो काम के लिए। ऐसा लगता है कि हम सिर्फ़ काम करने के लिए पैदा हुए हैं तो हम फिर अपना जीवन कब जीयेंगे। जहाँ तक तनख़ा की बात है, तो वो तो महीने की सात से दस के बीच में मिल जाती है, लेकिन सिर्फ़ पन्द्रह तारीख़ तक जेब में पैसे होते हैं, जिससे हम अपने बच्चों के लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें ले पाते हैं। उसके बाद तो हर एक दिन एक-एक रुपया सोच-सोचकर ख़र्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होने से पहले ही बचे हुए रुपये भी ख़त्म हो जाते हैं।
ये काले कोटधारी सरकारी अफ़सर लाखों में सेलरी लेते हैं, फिर भी इनका ख़र्चा नहीं चलता। सरकारों में बैठे नेता, मन्त्री, विधायक, सांसद, आईएस, आईपीएस पढ़े-लिखे जोकर रिश्वत की चर्बी के बिना चल ही नहीं सकते।
मज़दूरों के लिए इनकी नज़र में सोलह हज़ार सेलरी ज़्यादा है।
मज़दूरों के लिए ये ख़ुशी की बात होनी चाहिए कि वर्तमान व्यवस्था के पास मज़दूरों को देने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए इनके न्यायालय, कम्पनियों में आग लगाकर जश्न मनाने के दिन आ गये हैं। अगर मज़दूर ऐसा नहीं करता तो सरकारें एक बहुत बड़ी संख्या में बेरोज़गार मज़दूरों को किसी-न-किसी बहाने क़फ़न-दफ़न कर देंगी और कर रहे हैं।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन