मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (पाँचवी क़िस्त)
(इस श्रृंखला को पिछले दो अंकों में नहीं दे पाने के लिए हमें खेद है। आगे से इस मौजूँ और ज़रूरी श्रृंखला की निरन्तरता को बरक़रार रखा जायेगा – सम्पादक)
शिवानी
पिछली चार क़िस्तों में हमने अर्थवाद की प्रवृत्ति से जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलुओं को समेटा। मुख्य तौर पर हमने देखा कि मज़दूर आन्दोलन के भीतर मौजूद अर्थवाद मज़दूर वर्ग को केवल ऊँचे वेतन-भत्तों की लड़ाई की चौहद्दी में क़ैद करके रखता है और राजनीतिक तौर पर मज़दूर वर्ग को अपंग बना देने का काम करता है यानी मज़दूर वर्ग को राजनीतिक प्रश्न उठाने में अक्षम बना देता है। सचेतनता और विचारधारा के तत्व की जगह स्वतःस्फूर्तता की अन्धभक्ति अर्थवाद का सबसे बुनियादी लक्षण है जिसके बारे में हमने पिछले अंकों में विस्तार से बात की है।
किसी भी मज़दूर साथी को अब तक हुई चर्चा पढ़कर लग सकता है कि तो क्या फिर वेतन-भत्तों की लड़ाई लड़नी ही नहीं चाहिए? बढ़ती मँहगाई और सामाजिक-आर्थिक अनिश्चितता के साथ वेतनमान भी बढ़ना ही चाहिए वरना गुज़ारा कैसे होगा? यह बात बिलकुल सही है कि मज़दूरी बढ़नी ही चाहिए! पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के अनुपात में मज़दूरी का हिस्सा तो वैसे ही नगण्य है। इसीलिए तो ट्रेड यूनियन के तहत संघर्ष संगठित करना मज़दूरों के लिए साँस लेने जैसा है, यह संघर्ष तो मज़दूर अपनी स्वतःस्फूर्त चेतना से भी संगठित कर ही लेते हैं जैसा कि हम आगे की चर्चा में देखेंगे भी। लेकिन मज़दूरों के सभी संघर्षों का क्षितिज यदि केवल बढ़े हुए वेतन/ मज़दूरी या फिर बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष ही होगा तो मज़दूर वर्ग कभी इससे आगे जाने के बारे में सोचेगा ही नहीं। उसे इस व्यवस्था के भीतर ही जैसे-तैसे काम चला लेने का विचार अधिक नैसर्गिक प्रतीत होगा जोकि दरअसल शासक वर्गों के विचार का ही प्रभाव होता है। वह राजनीति से ख़ुद को दूर रखेगा और यह कार्यभार कुछ उदार “प्रबुद्ध” लोगों के ऊपर छोड़ देगा जैसा कि रूसी अर्थवादियों का मत था। आर्थिक माँगों के लिए ये संघर्ष अक्सर कारख़ाना या मिल मालिक के ख़िलाफ़ होते हैं। और अगर ये संघर्ष शुद्ध अर्थवादी तरीक़े से लड़े जायें तो निशाने पर हमेशा उस अकेले कारख़ाने का मालिक ही रहेगा। और इस तरह समूची पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीवादी राज्यसत्ता प्रश्नों के दायरे से बाहर चली जाती है। इसलिए प्रश्न आर्थिक संघर्षों को लड़ने या नहीं लड़ने का है ही नहीं। बल्कि प्रश्न यह है कि ये संघर्ष किस तरीक़े से लड़े जाते हैं।
लेनिन ने इसे ख़ुद ही स्पष्ट कर दिया था जब उन्होंने सामाजिक-जनवादी/कम्युनिस्ट राजनीति के बरक्स अर्थवाद और ट्रेड यूनियनवाद की आलोचना प्रस्तुत की थी। कम्युनिस्ट केवल श्रम–शक्ति की बिक्री के वास्ते बेहतर दाम हासिल करने के लिए ही नहीं, बल्कि उस सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था को मिटाने के लिए मज़दूर वर्ग के संघर्ष का नेतृत्व करते हैं जो सम्पत्तिहीन लोगों को धनिकों के हाथ बिकने को मजबूर करती है। कम्युनिस्ट मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व केवल मालिकों के किसी एक धड़े विशेष के सम्बन्ध के मामले में ही नहीं, बल्कि आधुनिक समाज के सभी वर्गों के साथ और एक संगठित राजनीतिक शक्ति के रूप में राज्यसत्ता के साथ उसके सम्बन्ध के मामले में भी करते हैं। इस पर हम थोड़ा आगे आयेंगे।
हमने पिछले अंकों में आयी अब तक की चर्चा में यह भी जाना कि मज़दूर वर्ग की पूरी राजनीति को ट्रेड यूनियन की राजनीति तक सीमित कर देना वास्तव में मज़दूर वर्ग की राजनीति के एक पूँजीवादी संस्करण की बात करना होगा और यह मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ नीति को लागू करने के समान है और अर्थवाद यही करता है। भारत में तो मज़दूर आन्दोलन के भीतर मौजूद तमाम ट्रेड यूनियनें, जिनका सम्बन्ध किसी न किसी चुनावी राजनीतिक दल से है, इसका सबसे भोंड़ा संस्करण पेश करती हैं। इनमें भी जो किसी “कम्युनिस्ट” (केवल नामधारी) पार्टी से ताल्लुक रखती हैं, वे ट्रेड यूनियनें तो मज़दूर वर्ग से सबसे घृणित क़िस्म की ग़द्दारी करती हैं जिनमें सीटू, एटक, ऐक्टू जैसी यूनियनें प्रमुख हैं। हमने अर्थवाद पर अपनी शुरुआती चर्चा में इंगित किया था कि ये यूनियनें अर्थवाद का दक्षिणपन्थी संस्करण प्रस्तुत करती हैं। यही नहीं, मौजूदा दौर में मोदी राज के रूप में फ़ासीवादी उभार यानी कि बड़े इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग की नंगी तानाशाही के इस वर्तमान दौर के लिए भी इन संसदमार्गी वामपंथी पार्टियों का संसदवाद, अर्थवाद, सुधारवाद और अवसरवाद काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। और ऐसा इतिहास में पहली बार नहीं हो रहा है।
जर्मनी में फ़ासीवाद के उभार के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण जर्मनी के सामाजिक-जनवादियों (ग़ौर करें, इस दौर में सामाजिक-जनवादी होना कम्युनिस्ट होना नहीं था, बल्कि क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति और विचारधारा की जगह सुधारवादी हो जाना था) का सुधारवाद और अर्थवाद था। सामाजिक-जनवादियों के सुधारवादी तौर-तरीक़ों की गिरफ़्त में जर्मन मज़दूर आन्दोलन बस मिली हुई रियायतों और सहूलियतों से चिपके रहना चाहता था, उससे आगे नहीं जाना चाहता था। दूसरे शब्दों में, सामाजिक-जनवाद/सुधारवाद ने मज़दूर आन्दोलन को पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मिले सुधारों से आगे बढ़ने के बजाय उन्हें बचाये रखने तक सीमित रखना का काम किया। लेकिन पूँजीपति वर्ग के लिए संकट के दौरों में इन सुधारों और रियायतों को क़ायम रखना न तो सम्भव ही रह जाता है और न ही उसकी ऐसी कोई मजबूरी ही होती है। जर्मनी में भी ठीक यही हुआ था। सामाजिक-जनवाद ने दरअसल मज़दूर आन्दोलन को सुधारवाद की गलियों में ही घुमाते रहने का काम किया और मज़दूर वर्ग को राजनीतिक प्रश्न उठाने के मामले में असमर्थ बना दिया। उसने पूँजीवाद का कोई विकल्प मज़दूर वर्ग के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया और उसका कुल मक़सद पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर रहते हुए वेतन-भत्ते बढ़वाते रहना और चन्द-एक रियायतें-सहूलियतें हासिल करना मात्र रह गया था। यानी कुल नये उत्पादित मूल्य में मुनाफ़े के अनुपात में मज़दूरी को बढ़ाना और जो मिल गया उसी से चिपके रहना। पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग ऐसा कर पाने में हमेशा सक्षम नहीं होते हैं, विशेष तौर पर आर्थिक संकट के दौर में। सामाजिक जनवादी इस बात को समझ पाने में कच्चे साबित हुए या फिर वे अपने सुधारवाद के चलते इसे समझना ही नहीं चाहते थे। नतीजतन आर्थिक संकट के बढ़ने के साथ मज़दूर वर्ग समेत आम मेहनतकश आबादी के सामने बेरोज़गारी, असुरक्षा और अनिश्चितता का संकट बढ़ता गया। इसके नतीजे के तौर पर निम्न-मध्यम वर्गीय आबादी के कुछ हिस्सों के बीच एक प्रतिक्रिया पैदा हुई जिसका इस्तेमाल जर्मनी में नात्सियों ने किया और भारत में फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार द्वारा किया जा रहा है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जर्मनी के जिस दौर की बात हम यहाँ कर रहे हैं उस दौर में वहाँ एक मज़बूत और जुझारू आन्दोलन मौजूद था और नात्सियों ने इस आन्दोलन का बेरहमी के साथ ध्वंस किया। भारत में आज ऐसी कोई स्थिति नहीं है। हालाँकि जर्मनी में यह मज़बूत मज़दूर आन्दोलन सामाजिक-जनवाद के नेतृत्व में पूँजीवादी सुधारवाद की अन्धी गलियों में ही भटकता रह गया। लेकिन यह दिखलाता है कि मज़दूर आन्दोलन के भीतर अर्थवादी और सुधारवादी राजनीति और कार्यदिशा के कितने भयंकर परिणाम हो सकते हैं।
इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम मूल चर्चा पर वापस लौटते हैं। पिछले अंक में हमने चर्चा की थी कि ट्रेड यूनियन जैसे जन संगठन और कम्युनिस्ट पार्टी संगठन के बीच फ़र्क करना बेहद ज़रूरी है। लेनिन ने बताया था कि सर्वहारा वर्ग का हिरावल उसकी राजनीतिक पार्टी होती है। यह सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक और विचारधारात्मक रूप से सबसे उन्नत तत्वों का लड़ाकू दस्ता होती है। वहीं ट्रेड यूनियन मज़दूर वर्ग के आर्थिक अधिकारों की हिफ़ाज़त करने वाले जन संगठन होते हैं। लेकिन अर्थवादी इस फ़र्क को या तो गड्डमड्ड कर देते हैं या फिर पार्टी संगठन को ट्रेड यूनियन के स्तर पर लाकर खुली सदस्यता वाला एक आम जन संगठन बना देते हैं।
मज़दूर वर्ग के उन्नत तत्वों की राजनीतिक समझदारी की अनदेखी करते हुए अर्थवादी ख़ुद को सबसे पिछड़े हुए मज़दूरों के अनुसार ढाल लेते हैं। वे दरअसल जिन माँगों के लिए लड़ते है वह लेनिन के शब्दों में “रूबल में एक कोपेक की बढ़ोत्तरी के पुराने राग का ही एक नया संस्करण है।” पार्टी संगठन की गतिविधि का दायरा क्या होता है यह लेनिन ‘क्या करें?’ में विस्तारपूर्वक बताते हैं। सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी मज़दूरों और जनसमुदायों के पीछे उनकी पूँछ पकड़कर नहीं चलती है। अगर पार्टी ऐसा कर रही है तो उसे “सर्वहारा वर्ग के संगठन का उच्चतम स्वरूप” कहा ही नहीं जा सकता है।
लेनिन ‘क्या करें?’ में अर्थवादियों के पुच्छलवाद पर तीक्ष्ण राजनीतिक व्यंग्य और कटाक्ष के ज़रिये शानदार हमला करते हैं। लेनिन बताते हैं कि क्रान्तिकारी मज़दूर अर्थवाद और ट्रेड यूनियनवाद की सीमाओं को हर बीतते दिन के साथ समझ रहा है और
“ऐसा मज़दूर ‘राबोचाया मिस्ल’ और ‘राबोचाया द्येलो’ के अपने सलाहकारों से कहेगा: सज्जनो, आप एक ऐसे काम में हद से ज़्यादा जोश-ख़रोश के साथ दखल देकर, जिसे हम ख़ुद बखूबी कर सकते हैं, अपना अमूल्य समय बेकार में नष्ट कर रहे हैं, और जो काम आपको सचमुच करना चाहिए, उसे आप नहीं कर रहे हैं। आपने यह कहकर कोई होशियारी की बात नहीं कही है कि सामाजिक-जनवादियों/कम्युनिस्टों का कार्यभार आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देना है (इसकी चर्चा हमने तीसरी क़िस्त में की थी, यह प्रस्थापना मार्तिनोव द्वारा दी जा रही थी जिसकी आलोचना लेनिन ने ‘क्या करें?’ में प्रस्तुत की थी- लेखिका); यह तो केवल पहला क़दम है, यह सामाजिक-जनवादियों/कम्युनिस्टों का मुख्य कार्यभार नहीं है क्योंकि दुनियाभर में और रूस में भी आर्थिक संघर्ष को राजनीतिक रूप देने की शुरुआत तो अकसर ख़ुद पुलिस ही कर देती है, और उससे मज़दूर ख़ुद इस बात को समझना सीखते हैं कि सरकार किसके पक्ष में है। “मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ मज़दूरों के जिस आर्थिक संघर्ष” का आप लोग इतना शोर मचा रहे हैं, उससे ऐसा लगता है, मानो आपने किसी नये अमरीका को खोज निकाला हो, वैसा संघर्ष इस समय रूस के अनेक दूरस्थ स्थानों में स्वयं मज़दूरों द्वारा चलाया जा रहा है, जिन्होंने हड़तालों का नाम तो सुना है, पर समाजवाद के बारे में कुछ नहीं सुना है। ऐसी ठोस माँगें उठाकर, जिनसे कोई ठोस नतीजे निकलने की उम्मीद हो, आप हम मज़दूरों में जो “क्रियाशीलता” उत्प्रेरित करना चाहते हैं, उसका परिचय तो हम आज भी दे रहे हैं, अपने रोज़मर्रा के सीमित ट्रेड यूनियन कार्य में हम स्वयं ये ठोस माँगें पेश कर रहे हैं, बहुधा बुद्धिजीवी की किसी भी सहायता के बिना। लेकिन यही क्रियाशीलता हमारे लिए काफ़ी नहीं है। हम बच्चे नहीं हैं जो केवल “आर्थिक” राजनीति की पतली लपसी से ही सन्तुष्ट हो जायें; हम तो हर एक चीज़ जानना चाहते हैं, जो दूसरे लोग जानते हैं, हम राजनीतिक जीवन के तमाम पहलुओं को विस्तार से समझना और प्रत्येक राजनीतिक घटना में सक्रिय भाग लेना चाहते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि बुद्धिजीवी लोग हमें वे बातें कम बतायें, जो हम पहले से जानते हैं, और वे बातें ज़्यादा बतायें, जो हम अभी नहीं जानते और जो हम अपने कारख़ाने के और “आर्थिक” अनुभव से कभी नहीं सीख सकते, मतलब यह कि आप लोग हमें राजनीतिक ज्ञान दीजिए। आप, बुद्धिजीवी लोग, यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और आपका कर्त्तव्य है कि अभी तक आपने हमें जो ज्ञान दिया है, उससे सौ गुनी और हज़ार गुनी मात्रा में यह ज्ञान आप हमें दें; और आप यह ज्ञान हमें केवल उन दलीलों, पुस्तिकाओं और लेखों के रूप में ही न दें (जो अक्सर काफ़ी नीरस होते हैं – हमें स्पष्टवादिता के लिए माफ़ करें!), बल्कि हमारी सरकार और हमारे शासक वर्ग जीवन के तमाम क्षेत्रों में इस समय जो कर रहे हैं, उसका सजीव भण्डाफोड़ करते हुए आप हमें ज्ञान दें। अपनी इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने में थोड़ा और जोश दिखाइए और “आम मज़दूरों की क्रियाशीलता को बढ़ाने” की बातें थोड़ी कम कीजिए। आप जितना समझते हैं, हम उससे कहीं अधिक क्रियाशील हैं और हम उन माँगों तक के लिए भी सड़कों पर खुलेआम लड़ने में समर्थ हैं, जिनसे कोई “ठोस नतीजे” निकलने की उम्मीद नहीं है! और हमारी क्रियाशीलता को “बढ़ाना” आपका काम नहीं है, क्योंकि आप में तो ख़ुद क्रियाशीलता ही का अभाव है। सज्जनो, स्वतःस्फूर्ति की पूजा थोड़ी कम कीजिए और ख़ुद अपनी क्रियाशीलता को बढ़ाने की चिन्ता ज़्यादा कीजिए!”
लेनिन का यह लम्बा उद्धरण हमने यहाँ जानबूझकर दिया है। लेनिन स्वयं बतलाते हैं कि अर्थवादियों से मज़दूरों का यह काल्पनिक वार्तालाप सत्य पर आधारित है। यह उद्धरण दो टूक शब्दों में स्पष्ट कर देता है कि कम्युनिस्ट पार्टी के बुद्धिजीवियों का दरअसल कार्यभार है क्या और किस प्रकार अर्थवादी सबसे पिछड़े मज़दूर तत्वों की पूँछ पकड़कर इस कार्यभार से पल्ला झाड़ रहे हैं। साथ ही अर्थवादियों का यह तर्क कि मज़दूरों की राजनीतिक मसलों में कोई दिलचस्पी नहीं होती है, दरअसल स्वयं उनकी वैचारिक दरिद्रता को ही प्रदर्शित करता है। लेनिन के हवाले से हमने पहले भी ज़िक्र किया था कि “आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की अर्थवादी सोच राजनीतिक कार्य के क्षेत्र में स्वतःस्फूर्तता की पूजा करने की प्रवृत्ति को सबसे स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त करती थी। लेनिन बताते हैं कि कई बार आर्थिक संघर्ष स्वतःस्फूर्त ढंग से, अर्थात “क्रान्तिकारी जीवाणुओं, यानी बुद्धिजीवियों” के हस्तक्षेप के, वर्ग-चेतन सामाजिक-जनवादियों/कम्युनिस्टों के हस्तक्षेप के बिना ही, राजनीतिक रूप धारण कर लेता है। लेकिन हिरावल पार्टी और कम्युनिस्टों का कार्यभार यहीं ख़त्म नहीं हो जाता है कि वह आर्थिक आधार पर राजनीतिक आन्दोलन संगठित करे; उनका कार्यभार इस ट्रेड यूनियनवादी राजनीति को कम्युनिस्ट राजनीतिक संघर्ष में बदलना और आर्थिक संघर्ष से “मज़दूरों में राजनीतिक चेतना की जो चिनगारियाँ” पैदा होती हैं, उनका इस्तेमाल इस मक़सद से करना है कि मज़दूरों को सामाजिक–जनवादी राजनीतिक चेतना के स्तर तक उठाया जा सके। लेकिन लेनिन के समय में मार्तिनोव जैसे अर्थवादी और हमारे समय में तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों से लेकर मज़दूर सहयोग केन्द्र मार्का अराजकतावादी–संघाधिपत्यवादी “वामपंथी” अर्थवादी मज़दूरों की अपनेआप उठती हुई राजनीतिक चेतना का स्तरोन्नयन करने के बजाय स्वतःस्फूर्ततावाद के सामने शीश नवाते हैं और मज़दूर वर्ग के किसी भी प्रकार के राजनीतिक शिक्षण–प्रशिक्षण से वैसे भाग खड़े होते हैं मानो प्लेग हो!
लेनिन यह भी स्पष्ट करते हैं कि कम्युनिस्टों द्वारा ट्रेड यूनियन संघर्ष का नेतृत्व करने मात्र से ही कोई ट्रेड-यूनियनवादी आन्दोलन क्रान्तिकारी वर्ग आन्दोलन में परिवर्तित नहीं हो जाता है, बल्कि सर्वांगीण राजनीतिक उद्वेलन का सक्रिय रूप से प्रत्यक्ष नेतृत्व भी कम्युनिस्ट ताक़तों द्वारा करने की आवश्यकता है। इसका मतलब यह है कि अधिक से अधिक व्यापक राजनीतिक उद्वेलन और इसलिए सर्वांगीण राजनीतिक भण्डाफोड़ का संगठन करना सामाजिक जनवादी/कम्युनिस्ट गतिविधि का एक महत्वपूर्ण और सबसे ज़्यादा तात्कालिक ढंग से ज़रूरी कार्यभार है। इसके साथ ही लेनिन यह भी जोड़ते हैं कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अन्दर से नहीं बढ़ाया जा सकता है बल्कि “मज़दूरों में राजनीतिक चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है।” ठीक इसी वजह से मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए केवल मज़दूरों के बीच जाने से सन्तोष नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए। यह काम केवल और केवल सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी कर सकती है न कि मज़दूरों के विशिष्ट जन संगठन जैसे कि ट्रेड यूनियनें। पार्टी भी सर्वहारा वर्ग का ही संगठन है और उसका राजनीतिक केन्द्र है। लेकिन सर्वहारा विचारक के तौर पर कोई मज़दूर भी केवल स्वत:स्फूर्त मज़दूर चेतना का वाहक नहीं होता है, बल्कि वह एक क्रान्तिकारी बौद्धिक होता है, जो सर्वहारा वर्ग के क्रान्ति के दर्शन और विज्ञान को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में ले जाता है। लेनिन की इस बात को न समझने पर कई अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी बेवजह आहत हो जाते हैं और लेनिन पर आरोप लगा बैठते हैं कि वह मज़दूर को एक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी की भूमिका निभाने में अक्षम मानते हैं! जबकि लेनिन सिर्फ यह कह रहे हैं कि मज़दूर वर्ग के आर्थिक संघर्षों से व मज़दूर आबादी के बीच से स्वत:स्फूर्त रूप से सर्वहारा विचारधारा का प्रश्न हल नहीं होता है। जब कोई इवान बाबुश्किन या जोहान्न फ़िलिप्पोव बेकर या कोई मज़दूर सर्वहारा विचारक की भूमिका निभाता है तो वह स्वत:स्फूर्त मज़दूर चेतना का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, बल्कि एक क्रान्तिकारी वैज्ञानिक की भूमिका निभाता है, जो कि स्वत:स्फूर्त रूप से आर्थिक आन्दोलनों से नहीं पैदा होती है। इस रूप में क्रान्तिकारी विचारधारा मज़दूर वर्ग में “बाहर से” आती है क्योंकि इसे तभी समझा जा सकता है जबकि एक विचारक महज़ पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के आपसी संघर्ष को ही नहीं, बल्कि समूचे वर्ग समाज में जनता के सभी वर्गों और सभी शत्रु वर्गों के बीच और उनके आपसी सम्बन्धों को समझता हो।
हम इस बिन्दु पर ज़ोर देकर इसलिए बात कर रहे हैं ताकि अर्थवादी तर्कों और दलीलों की सीमा ज़ाहिर हो सके। ऐसा नहीं है कि अर्थवाद की प्रवृत्ति हमेशा कोई अलग संगठन बनाकर सामने आती है। किसी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठन के भीतर भी अर्थवाद की प्रवृत्ति सर उठा सकती है और इसलिए इसको लेकर विशेष तौर पर सचेत रहने की आवश्यकता है। लेनिन ख़ुद रूस के उदाहरण से बताते हैं कि जिस तरह के सामाजिक-जनवादी/कम्युनिस्ट अध्ययन मण्डल उस दौर में प्रचलित हुए थे उसमें अर्थवादी भटकाव थे। इन अध्ययन मण्डलों में मजदूरों के साथ इन सामाजिक-जनवादियों का सम्पर्क रहता था और वे तमाम पर्चे भी निकालते थे जिनमें कारख़ानों में होने वाले अनाचारों, पूँजीपतियों के साथ सरकार के पक्षपात और पुलिस के ज़ुल्म की निन्दा की जाती थी। लेकिन ऐसा बहुत कम देखने में आता था कि क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास के बारे में, सरकार की घरेलू तथा विदेशी नीति के प्रश्नों के बारे में, रूस तथा यूरोप के आर्थिक विकास की समस्याओं के बारे में और आधुनिक समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति के बारे में भाषणों या बातचीत को संगठित किया जाता हो। और जहाँ तक समाज के अन्य वर्गों के साथ सुनियोजित ढंग से सम्पर्क स्थापित करने और बढ़ाने की बात थी, तो लेनिन के मुताबिक़ उसके बारे में तो कोई सपने में भी नहीं सोचताल था। इस समझदारी के हिसाब से आदर्श नेता एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के रूप में अधिक काम करता है, जो कि और कुछ नहीं बल्कि स्पष्ट तौर पर राजनीतिकरण के अभाव को ही व्यक्त करता है। इसके बाद लेनिन एक बेहद ज़रूरी बात कहते हैं जो दरअसल जन संगठन और पार्टी संगठन के बीच की विभाजक रेखा को समझने के लिए भी अपरिहार्य है।
लेनिन लिखते हैं,
“सारांश यह कि “मालिकों और सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष” ट्रेड यूनियन का प्रत्येक सचिव चलाता है और उसके संचालन में मदद करता है। पर इस बात को हम जितना ज़ोर देकर कहें कम है कि बस इतने से ही सामाजिक-जनवाद नहीं हो जाता, कि सामाजिक–जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन का सचिव नहीं, बल्कि एक ऐसा जन–नायक (ट्रिब्यून) होना चाहिए, जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदहारण से, वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से सम्बन्ध हो, विचलित हो उठने की क्षमता हो; उसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूँजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए; उसमें प्रत्येक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी माँगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के मुक्ति–संग्राम का विश्व–ऐतिहासिक महत्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए।”
यह सर्वहारा वर्ग की पार्टी का राजनीतिक कार्यभार है कि वह केवल मज़दूर वर्ग को संगठित करने पर ही अपनी शक्तियों को केन्द्रित नहीं करती है बल्कि “सिद्धान्तकारों के रूप में, प्रचारकों, उद्वेलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के रूप में” आबादी के सभी वर्गों के बीच जाती है। ऐसा करना सर्वहारावर्गीय दृष्टिकोण से पीछे हटना नहीं होता है बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी यह काम ठीक सर्वहारा दृष्टिकोण से ही करती है। यानी कम्युनिस्ट पार्टी जनता के सभी संस्तरों के बीच राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन का काम करती है और इसी प्रक्रिया में सर्वहारा वर्ग बाक़ी मेहनतकश जनसमुदायों को नेतृत्व प्रदान करने की मंज़िल में पहुँच सकता है। लेनिन यह भी पुनःरेखांकित करते हैं कि कम्युनिस्ट हर क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करते हैं और इसे अपना कर्तव्य समझते हैं कि “अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह व्यक्ति सामाजिक-जनवादी नहीं है जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।” इसे ही राजनीतिक और विचारधारात्मक तौर पर हिरावल होना कहते हैं। शेष चर्चा अगले अंक में जारी रहेगी।
(अगले अंक में जारी)
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