मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? 
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (आठवीं क़िस्त)

शिवानी

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‘बिगुल’ के पिछले कुछ अकों से ‘अर्थवाद’ पर हमारी चर्चा जारी है। पिछले अंक में हमने लेनिन के हवाले से बताया था कि मज़दूरों के आम संगठन और क्रान्तिकारियों के संगठन (जिनमें कि उन्नत चेतना से लैस, मार्क्सवाद को आत्मसात किये हुए मज़दूर स्वयं भी शामिल होते हैं) में फ़र्क होता है यानी कि एक जन संगठन और हिरावल पार्टी के बीच फ़र्क होता है, जो फ़र्क अर्थवादी विचलन का शिकार लोग न तो समझ पाते हैं और न ही इसे अमल में ही ला पाते हैं। लेनिन जब क्या करें?’ में अर्थवादियों की आलोचना प्रस्तुत करते हैं तो उनके निशाने पर अर्थवादियों की सांगठनिक प्रश्नों पर नौसिखुएपन और आदिमता से ग्रस्त समझदारी भी प्रमुखता से है। हमने पिछले अंक में इस बात की चर्चा भी की थी कि अर्थवादी, संगठन और राजनीति दोनों के ही मामले में, सामाजिक जनवाद से ट्रेड यूनियनवाद की ओर भटकते रहते हैं।

हमने पिछले अंक में यह भी बताया था कि लेनिन ट्रेड यूनियन और हिरावल पार्टी के बीच तीन-सूत्री अन्तर बताते हैं, दरअसल ये अन्तर जन संगठन और पार्टी के बीच के आम तौर पर अन्तर को ही दर्शाते हैं क्योंकि इन दोनों प्रकार के संगठनों के कामों की अन्तर्वस्तु और उनका दायरा अलग होता है। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि जिन देशों में राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल है, यानी जहाँ पूँजीवादी जनतन्त्र अस्तित्व में आ चुके हैं, वहाँ ट्रेड यूनियन और राजनीतिक संगठन के बीच का अन्तर आम तौर पर स्पष्ट हो जाता है, लेकिन रूस जैसे देशों में, जहाँ निरंकुशशाही मौजूद है, वहाँ ट्रेड यूनियन और सामाजिक जनवादी संगठन के तमाम अन्तरों को ख़त्म कर दिया गया है क्योंकि वहाँ मज़दूरों के सभी संगठनों व सभी अध्ययन मण्डलों पर रोक लगी हुई है, उन्हें ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया गया है और मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष का प्रमुख रूप और प्रमुख हथियार – हड़ताल – एक दण्डनीय अपराध माना जाता है। हालाँकि पाठक सोच सकते हैं कि हमारे देश में तो अब भी कई मौक़ों पर हड़ताल को दण्डनीय अपराध ही घोषित कर दिया जाता है, विशेषकर एस्मा जैसे काले क़ानूनों का उपयोग करके। वास्तव में हमारे देश में पूँजीवादी जनवाद ही इतनी अधूरा और विखण्डित है कि शासक वर्गों द्वारा मज़दूर अधिकारों पर हमला बोलना कहीं अधिक सुगम है। हालाँकि आज यह बात और भी अन्य बहुत से देशों पर लागू होती है। पूँजीवाद के मौजूदा नव उदारवादी दौर में तो बुर्जुआ जनवाद के “शीर्ष शिखरों” वाले देशों में भी लेनिन के दौर के मुकाबले स्थिति काफ़ी बदल चुकी है और मज़दूर वर्ग को हासिल कई स्वतन्त्रताएँ और अधिकार आज वहाँ भी छीने जा रहे हैं।

बहरहाल, लेनिन रूस की विशेष परिस्थितियों का उल्लेख जिस मक़सद से कर रहे हैं वह यह है कि रूस के इन हालात ने आर्थिक संघर्ष में हिस्सेदारी करने वाले मज़दूरों को राजनीतिक सवालों में दिलचस्पी लेने के लिए जहाँ एक ओर प्रेरित किया है वहीं दूसरी ओर इसने सामाजिक जनवादियों को इस बात के लिए “प्रेरित” किया है कि वे सामाजिक जनवाद और ट्रेड यूनियनवाद को एक ही चीज़ समझने लगे हैं। ऐसे में क्रान्तिकारियों के अलग संगठन की ज़रूरत की बात उनके दिमाग़ में आती ही नहीं है।

क्या करें? से लेनिन का निम्न उद्धरण विशेष रूप से ट्रेड यूनियन और पार्टी के सम्बन्धों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है:

“आर्थिक संघर्ष के लिए मज़दूरों के संगठन ट्रेड यूनियन संगठन होने चाहिए। हर सामाजिक जनवादी मज़दूर को इन संगठनों की यथासम्भव सहायता करनी चाहिए और उनमें सक्रिय भाग लेना चाहिए। लेकिन यह माँग करना कत्तई हमारे हित में नहीं है कि केवल सामाजिकजनवादियों को ही ट्रेड यूनियनों का सदस्य बनने के हक़ दिए जाएँ : इससे तो जनता पर हमारे प्रभाव का दायरा संकुचित ही होगा। ट्रेड यूनियनों में उन सभी मज़दूरों को शामिल होने दीजिये जो मालिकों और सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के लिए एक होने की आवश्यकता को महसूस करते हैं। यदि ट्रेड यूनियनें उन सभी लोगों की एकता स्थापित नहीं करेंगी, जिनमें कम से कम यह प्राथमिक समझ पैदा हो चुकी है और यदि वे बहुत व्यापक ढंग के संगठन नहीं बनेंगे, तो वे अपने उद्देश्यों को कभी पूरा नहीं कर सकेंगे। ये संगठन जितने ही अधिक व्यापक होंगे, हमारा असर भी उन पर उतना ही अधिक व्यापक होगा – और यह असर केवल आर्थिक संघर्ष के “स्वतःस्फूर्त” विकास के कारण नहीं पैदा होगा, बल्कि वह ट्रेड यूनियनों के समाजवादी सदस्यों की अपने साथियों को प्रभावित करने की प्रत्यक्ष और सचेतन कोशिशों का परिणाम भी होगा।” (ज़ोर हमारा)

यह उद्धरण क्यों महत्वपूर्ण है? इसलिए क्योंकि लेनिन यहाँ एक बेहद ज़रूरी प्रस्थापना रख रहे हैं। वह प्रस्थापना है कि ट्रेड यूनियन या फिर किसी भी अन्य जन संगठन में विचारधारा को सदस्यता की पूर्वशर्त नहीं बनाया जा सकता है। ऐसा करना जन संगठनों के “जन” चरित्र का मखौल उड़ाने के समान होगा और जन संगठनों के काम करने के दायरे को संकुचित करेगा और जनता के बीच क्रान्तिकारियों के राजनीतिक प्रभाव को भी कम करेगा, जैसा लेनिन ने ऊपर बताया है। यानी जन संगठनों के भीतर क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी का ब्लॉक काम करता है, उसी प्रकार जैसा ट्रेड यूनियनों के भीतर सामाजिक जनवादी मज़दूर (यानी कि कम्युनिस्ट) काम करते हैं। इसके साथ ही लेनिन यह भी बताते हैं कि जन संगठन, अपवादस्वरूप स्थितियों को यदि छोड़ दिया जाए, तो खुले तौर पर ही काम करते हैं और यही वांछनीय भी है। लेकिन केवल वैधीकरण के द्वारा एक ऐसा ट्रेड यूनियन संगठन बनाने की समस्या हल नहीं की जा सकती है, जो कम से कम गुप्त हो और अधिक से अधिक व्यापक  हो। हालाँकि लेनिन साथ में यह भी जोड़ते हैं कि मज़दूर आन्दोलन के वैधीकरण से, लम्बी दूरी में, हमारा ही फ़ायदा होगा। लेनिन यहाँ दरअसल यह कहना चाहते हैं कि जन संगठनों के प्रति कम्युनिस्टों की सही पहुँच और पद्धति का सवाल एक अहम सवाल है, जो केवल क़ानूनी मान्यता मिलने से औपचारिक और सतही तौर पर ही हल हो सकता है और वास्तव में क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करने के बुनियादी प्रश्न से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसके विपरीत क्रान्तिकारियों का संगठन यानी कि कम्युनिस्ट पार्टी पूरी की पूरी खुली और क़ानूनी दायरे में काम करने वाला संगठन नहीं होती है। जन संगठन, अपनी परिभाषा से ही, गुप्त संगठन नहीं हो सकते हैं, उल्टे, इन्हें अधिकतम सम्भव व्यापक होने की दरकार होती है।

लेनिन बताते हैं कि ट्रेड यूनियन संगठन न केवल आर्थिक संघर्ष को विकसित और मज़बूत करने के लिए बहुत मूल्यवान साबित हो सकते हैं, बल्कि वे राजनीतिक उद्वेलन और क्रान्तिकारी संगठन के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण सहायक बन सकते हैं। हालाँकि लेनिन यह भी जोड़ते हैं कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए और ट्रेड यूनियन आन्दोलन को सामाजिक जनवाद/क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति की वांछित दिशा में ले जाने के लिए सबसे पहले अर्थवाद की सीमाओं को समझना, उन्हें उजागर करना और उसके ख़िलाफ़ संघर्ष को निर्देशित करना बेहद आवश्यक कार्यभार है। लेनिन रूसी अर्थवादियों की ट्रेड यूनियन सम्बन्धी नियमावलियों का उदाहरण देते हुए दिखलाते हैं कि उनका बुनियादी दोष यह है कि वे एक व्यापक मज़दूर संगठन को क्रान्तिकारी संगठन से गड्डमड्ड कर देते हैं और जन संगठनों के ढाँचे को कठोरता से निर्दिष्ट संरचना वाले संगठन में तब्दील कर देते हैं। यह स्वयं दिखलाता है कि अर्थवादी किस प्रकार सामाजिक जनवाद से ट्रेड यूनियनवाद की ओर बहकते रहते हैं और वे इस विचार से कितने दूर खड़े हैं कि कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को सबसे पहले क्रान्तिकारियों का ऐसा संगठन बनाने की फ़िक्र करनी चाहिए जो सर्वहारा वर्ग के सम्पूर्ण मुक्ति संग्राम का नेतृत्व कर सके। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि एक ओर ओर तो अर्थवादी “मज़दूर वर्ग की राजनीतिक मुक्ति” और “ज़ार की निरंकुशता” के ख़िलाफ़ संघर्ष की बाते करते हैं, वहीँ दूसरी ओर इस प्रकार की नियमावलियाँ बनाकर वे वास्तव में दिखला देते हैं कि वे सामाजिक जनवाद के रूप में क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति के असली राजनीतिक कार्यभारों से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं।

अर्थवादियों द्वारा ट्रेड यूनियन जैसे जन संगठन के नियमों को इतना भारीभरकम बनाकर पेश करना यह भी दिखलाता है कि किस प्रकार ट्रेड यूनियन नौकरशाही और लाल फ़ीताशाही अर्थवादी संगठनों के बीच पनपती है और ट्रेड यूनियन के वास्तविक कार्यभार इन नियमक़ानूनों के जंगल में खो जाते हैं। यह बात विशेष तौर पर भारत की बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों पर शब्दशः लागू होती है। लेनिन इस बात को रेखांकित करते हैं कि यदि हम ट्रेड यूनियनों को मज़दूरों का व्यापक संगठन बनाना चाहते हैं तो हमें कठोर औपचारिक ढाँचे को छोड़ना होगा और जन संगठनों को ग़ैर-रस्मी बनाकर रखना होगा।

लेनिन आगे कहते हैं:

“इससे जो सबक निकलता है वह बहुत ही सीधा-सादा है: यदि हम क्रान्तिकारियों के एक मज़बूत संगठन की ठोस नींव से शुरुआत करेंगे, तो हम पूरे आन्दोलन के स्थायित्व की गारण्टी कर सकेंगे और सामाजिक जनवादी आन्दोलन और ट्रेड यूनियन आन्दोलनदोनों के उद्देश्यों को हासिल करने में सफल होंगे। इसके विपरीत यदि हम मज़दूरों के एक व्यापक संगठन से शुरुआत करेंगे, जिसे प्रायः सबसे ज़्यादा जनता की “पहुँच के अन्दर” समझा जाता है, तो हम इन दोनों में से किसी भी उद्देश्य को पूरा नहीं कर पायेंगे, और चूँकि हम बिखरे हुए रहेंगे और पुलिस बार-बार हमारी ताक़त को तोड़ती जायेगी… ।” ै

यानी आर्थिक संघर्षो के लिए किये जाने वाले ट्रेड यूनियन आन्दोलन की सफलता की पूर्वशर्त भी क्रान्तिकारियों के संगठन यानी कि हिरावल पार्टी का निर्माण है। और यहीं पर लेनिन पेशेवर क्रान्तिकारी की अवधारणा को लाते हैं जिसके बिना लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की बात करना अकल्पनीय है। पेशेवर क्रान्तिकारियों से लेनिन का अभिप्राय ऐसे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं से है जो पार्टी और क्रान्ति के काम के अलावा और सभी कामों से आज़ाद हों और जिनके पास आवश्यक सैद्धान्तिक ज्ञान यानी मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान की समझ हो, राजनीतिक अनुभव हो और संगठन का अभ्यास हो।

इस बात को लेनिन क्या करें?’ में इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं:

“मैं ज़ोर देकर यह कहता हूँ: (1) नेताओं के एक स्थायी और आन्दोलन का क्रम बनाए रखने वाले संगठन के बिना कोई भी क्रान्तिकारी आन्दोलन टिकाऊ नहीं हो सकता; (2) जितने अधिक व्यापक पैमाने पर जनता स्वतःस्फूर्त ढंग से संघर्ष में खींचते हुए आन्दोलन का आधार बनेगी और उसमें भाग लेगी, ऐसा संगठन बनाना उतना ही ज़्यादा ज़रूरी होता जायेगा, और इस संगठन को उतना अधिक मज़बूत बनना होगा (क्योंकि जनता के अधिक पिछड़े हुए हिस्सों को गुमराह करना लफ्फाज़ों के लिए ज़्यादा आसान होता है); (3) इस प्रकार के संगठन में मुख्यतया ऐसे लोगों को होना चाहिए, जो अपने पेशे के रूप में क्रान्तिकारी कार्य करते हों; (4) निरंकुश राज्य में इस प्रकार के संगठन की सदस्यता को हम जितना ही अधिक ऐसे लोगों तक सीमित  रखेंगे,जो अपने पेशे के रूप में क्रान्तिकारी कार्य करते हों और जो राजनीतिक पुलिस को मात देने की विद्या सीख चुके हों, ऐसे संगठन का सफाया करना उतना ही अधिक मुश्किल होगा; और (5) मज़दूर वर्ग तथा समाज के अन्य वर्गों के उतने ही अधिक लोगों के लिए यह सम्भव हो सकेगा कि वे आन्दोलन में शामिल हों और उसमें सक्रिय काम करें।”

लेनिन यहाँ यह भी स्पष्ट करते हैं तमाम गुप्त कामों को पेशेवर क्रान्तिकारियों की यथासम्भव छोटी से छोटी संख्या के हाथों में केन्द्रित करने का मतलब यह नहीं है कि ये क्रान्तिकारी “सब लोगों के लिए सोचा करेंगे” और जनसमुदाय आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेंगे। इसके विपरीत जनसमुदाय अपने बीच में से अधिकाधिक संख्या में पेशेवर क्रान्तिकारियों को पैदा करेंगे और राजनीतिक प्रशिक्षण के महत्त्व को समझेंगे। गुप्त कामों को क्रान्तिकारियों के एक संगठन के हाथों में केन्द्रित करने का मतलब अन्य जन संगठनों के कार्य के विस्तार और गुणवत्ता को किसी भी रूप में कम करना नहीं है, ऐसे जन संगठन जो आम जनसमुदायों के लिए ही बने है और जिनका ढाँचा ढीला और कम से कम गुप्त होता है। लेनिन पुनः दुहराते हैं कि ऐसे जन सगठनों और क्रान्तिकारियों के संगठन के बीच के फ़र्क और विभाजक रेखा को गड्डमड्ड करना या मिटा देना, इस समझदारी को, कि जन आन्दोलन में काम करने के लिए ऐसे पेशावर क्रान्तिकारियों की आवश्यकता होती है जिनका काम ही क्रान्ति करना हो, धुँधला बना देना न सिर्फ़ बेतुका है बल्कि आन्दोलन के लिए हानिकर भी है। लेनिन के शब्दों में कहें तो “हमारा काम क्रान्तिकारियों को नौसिखुओं के धरातल पर उतार लाने की पैरवी करना नहीं, बल्कि नौसिखुओं को ऊपर उठाकर क्रान्तिकारियों के धरातल पर पहुँचा देना है।”

हम देख सकते हैं कि इन महत्वपूर्ण सांगठनिक प्रश्नों पर, जिनमें जन संगठन और पार्टी के बीच के अन्तर का प्रश्न  सर्वोपरि है, अर्थवादियों द्वारा प्रदर्शित किये गए अवसरवाद की लेनिन द्वारा कितनी निर्मम आलोचना प्रस्तुत की गयी है। दरअसल क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की हिफ़ाज़त में अर्थवाद के विरुद्ध लेनिन द्वारा चलाये गए इस विचारधारात्मक संघर्ष और सैद्धान्तिक बहस को जानना क्रान्तिकारी सर्वहारा के लिए आज भी उतना ही आवश्यक है, जितना कि लेनिन के दौर में था, बल्कि कुछ अर्थों में आज यह पहले से भी अधिक ज़रूरी कार्यभार बन चुका है। भारत के मज़दूर आन्दोलन में मौजूद विचारधारात्मक विभ्रमों और ग़ैर-मार्क्सवादी रुझानों के चलते इस बहस की याददिहानी वैसे भी उन्नत मज़दूर तत्वों और क्रान्तिकारियों के लिए फ़ायदेमन्द ही साबित होगी।

(अगले अंक में जारी)

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2023


 

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