मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (दूसरी क़िस्त)

शिवानी

पहली क़िस्त का लिंक

इस श्रृंखला के पहले भाग में हमने मज़दूर आन्दोलन के भीतर मौजूद सबसे नुक़सानदेह प्रवृत्ति यानी कि अर्थवाद की प्रवृत्ति के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें पाठकों के समक्ष रखी थीं। हमने जाना था कि किस प्रकार अर्थवाद की प्रवृत्ति के चलते महज़ आर्थिक संघर्ष यानी वेतन-भत्ते और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष ही, समस्त मज़दूर आन्दोलन का क्षितिज बना दिया जाता है और यह भ्रामक धारणा भी मज़दूरों के बीच पैठती जाती है कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से इन्हीं आर्थिक संघर्षों मात्र से पैदा हो जायेगी। हमने इसका उल्लेख भी किया था कि अर्थवाद के कारण कैसे मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सर्वोपरि है, असमर्थ हो जाता है और केवल वेतन-भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में उलझ जाता है। यह एक मूलभूत लेनिनवादी शिक्षा है कि मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संघटित और संगठित हो ही नहीं सकता है अगर उसके संघर्ष का क्षितिज केवल आर्थिक माँगों तक सीमित रहेगा। हमने यह भी स्पष्ट किया था कि इसका मतलब यह नहीं होता है कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई नहीं लड़ेगा, बल्कि इसका अर्थ केवल इतना है कि इन आर्थिक संघर्षों को भी वह राजनीतिक तौर पर लड़ेगा और सर्वहारा राज्य की स्थापना हेतु अपने दूरगामी लक्ष्य के मद्देनज़र लड़ेगा। हमने अर्थवाद के दोनों संस्करणों यानी दक्षिणपंथी अवसरवाद के रूप में संशोधनवादी पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनों की अर्थवादी राजनीति और व्यवहार और जुझारू “वामपंथी” अर्थवाद के तौर पर भारत के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठनों की राजनीति और व्यवहार पर भी संक्षिप्त चर्चा की थी। इसके बाद हमने रूस में सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक लेनिन द्वारा अर्थवाद के विरुद्ध चलाये गये विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष का एक संक्षिप्त ब्योरा भी प्रस्तुत किया था जिसे लेनिन के 1899 से 1903 के सैद्धान्तिक लेखन में देखा जा सकता है। 

1902 में लेनिन की प्रसिद्ध रचना क्या करें?’ प्रकाशित हुई। इस रचना में लेनिन ने अर्थवाद के विचारधारात्मक अन्तर्य पर चोट करते हुए दिखलाया कि किस प्रकार अर्थवाद मार्क्सवाद को विकृत करने वाली एक बुर्जुआ विचारधारा है जो मज़दूर आन्दोलन में घुसपैठ के ज़रिये मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग बनने से रोकती है, यानी कि एक ऐसा वर्ग बनने से रोकती है जिसकी अपनी एक राजनीतिक परियोजना हो। अर्थवादी राजनीति और व्यवहार की अभिलाक्षणिकता है इसके द्वारा मज़दूर वर्ग के आर्थिक संघर्षों को सर्वोपरि मानना और सचेतनता और विचारधारा के स्थान पर मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता की पूजा करना। क्या करें?’ में लेनिन ने इन्हीं दोनों बातों पर हमला बोला। बताते चलें कि क्या करें?’ में विस्तारपूर्वक प्रस्तुत विचारों का एक ख़ाका लेनिन ने 1901 के अपने लेख कहाँ से शुरू करें?’ में पेश किया था और अर्थवादी रुझान के ख़तरे के विषय में इस लेख में इंगित भी किया था। लेनिन लिखते हैं, एक तरफ़ तो लुप्त होने से कोसों दूर अर्थवादी प्रवृत्ति राजनीतिक संगठन और आन्दोलन के काम को जकड़ने तथा संकुचित बनाने की कोशिश कर रही है। दूसरी तरफ़, सिद्धान्तहीन सारसंग्रहवादी प्रवृत्ति फिर से सिर उठा रही है, जो हर नयीप्रवृत्तिकी भोंडी नक़ल करती है और जो पूरे के पूरे आन्दोलन के मुख्य कार्यभारों तथा स्थायी आवश्यकताओं और तात्कालिक माँगों के बीच भेद करने में असमर्थ है। इस प्रवृत्ति ने, जैसा कि हम जानते हैं, ‘राबोचाया द्येलोमें अपना अड्डा जमा लिया है। 

इसी लेख में पहली बार लेनिन ने मज़दूर वर्ग के राजनीतिक अख़बार की अहमियत को भी रेखांकित किया था और बताया था कि ऐसा अख़बार केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक आन्दोलनकर्ता ही नहीं होता, बल्कि वह सामूहिक संगठनकर्ता भी होता है।  देखें लेनिन क्या लिखते हैं:

हमारी राय में गतिविधियों का प्रस्थानबिन्दु, वांछित संगठन के निर्माण की दिशा में पहला व्यावहारिक क़दम, या कहें कि वह मुख्य सूत्र जिसे पकड़कर हम उस संगठन को निरन्तरतापूर्वक विकसित कर सकते हैं, गहरा बना सकते हैं और फैला सकते हैं, एक अखिल रूसी राजनीतिक अख़बार की स्थापना होनी चाहिए। हमें सबसे ज़्यादा एक अख़बार की ज़रूरत है जिसके बिना उसूल में सुसंगत, व्यवस्थित और सर्वतोमुखी प्रचार और उद्वेलन के काम को नहीं चलाया जा सकता है, जो आम तौर पर सामाजिकजनवाद का स्थायी कार्यभार है तथा मुख्य और ख़ास तौर पर वर्तमान समय में तात्कालिक कार्यभार है जबकि जनसमुदाय के अधिकतम विस्तृत तबक़ों में राजनीति के प्रति, समाजवाद के सवालों के प्रति रुचि जागृत हो उठी है। वैयक्तिक कार्य, स्थानीय पर्चों, पैम्फलेटों आदि के रूप में चलते हुए बिखरे आन्दोलन को व्यापक तथा नियमित आन्दोलन द्वारा परिवर्द्धित करने, जो कि निश्चित समय पर निकलने वाले अख़बारों की सहायता से ही किया जा सकता है, की ज़रूरत जितने ज़ोरदार ढंग से आज महसूस की जा रही है, उतनी और कभी नहीं की गयी। बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है कि अख़बार के प्रकाशन (और वितरण) की बारम्बारता तथा नियमितता इस बात को जानने का सबसे सटीक पैमाना बन सकती है कि हमारी जुझारू सरगर्मियों की इस सबसे शुरुआती और सबसे आवश्यक शाखा का निर्माण कितने ठोस ढंग से हुआ है।

जहाँ तक लेनिन की कृति क्या करें?’ का प्रश्न है तो यह रचना अर्थवाद के ख़िलाफ़ शुरू किये गये संघर्ष का शीर्ष थी और अर्थवादी राजनीति की जड़ों पर सबसे शानदार विचारधारात्मक हमला थी। रूसी अर्थवादियों की ख़ासियत यह थी कि वे राजनीति और अर्थनीति के बीच ‘चीन की दीवार’ खड़ी कर देते थे जिसके अनुसार आम मज़दूरों का राजनीतिक मसलों से कोई सरोकार या उनमें कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। अर्थवादियों का मत था कि मज़दूर तो केवल आर्थिक संघर्षों के लिए ही एकजुट हो सकते थे और राजनीतिक संघर्ष से उनका कोई लेना-देना नहीं था। दरअसल अर्थवाद मज़दूर वर्ग के आन्दोलन और वर्ग संघर्ष को एक प्रकार के ट्रेड यूनियनवाद और छोटे-छोटे धीरे-धीरे होने वाले सुधारों के “यथार्थवादी” संघर्ष तक ही घटा डालता था। अर्थवाद की मूल राजनीतिक प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए लेनिन क्या करें?’ में लिखते हैं कि अर्थवादियों का मानना था कि मज़दूर आर्थिक संघर्ष (ट्रेड यूनियन संघर्ष कहना ज़्यादा सही होगा, क्योंकि मज़दूर वर्ग की ख़ास राजनीति भी उसमें जाती है) चलाते रहें और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी राजनीतिकसंघर्षचलाने के लिए उदारपंथियों के साथ मिल जायें।  इसके विपरीत लेनिन का मानना था कि मज़दूर वर्ग की पूरी राजनीति को ट्रेड यूनियन की राजनीति तक सीमित कर देना वास्तव में मज़दूर वर्ग की राजनीति के एक पूँजीवादी संस्करण की बात करना होगा और यह मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ नीति को लागू करने के समान है। लेनिन के लिए आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के बीच कोई ‘चीन की दीवार’ नहीं थी, क्योंकि उनके लिए हर आर्थिक संघर्ष भी मूलतः राजनीतिक ही था।

अर्थवादियों की स्वतःस्फूर्तता बनाम कम्युनिस्टों की सचेतनता

सबसे पहले लेनिन अपनी पुस्तक क्या करें?’ में अर्थवादियों की स्वतःस्फूर्तता के प्रति अन्धभक्ति और राजनीतिक चेतना के प्रति दुराव को आड़े हाथों लेते हैं। रूस में मज़दूर आन्दोलन का एक संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करते हुए लेनिन बताते हैं कि एकदम शुद्ध स्वतःस्फूर्त तरीक़े से “उपद्रवों” की कार्रवाइयों के बाद मज़दूर वर्ग ने एक हद तक “सचेतनता” के क्षेत्र में प्रवेश किया था। लेनिन लिखते हैं, उपद्रव जबकि पीड़ितों के विद्रोह मात्र थे, सुनियोजित हड़तालें बीजरूप में वर्ग संघर्ष का प्रतिनिधित्व करती थीं, पर केवल बीजरूप में। अपने में ये हड़तालें महज़ ट्रेडयूनियन संघर्षों की गिनती में आती थीं और अभी सामाजिकजनवादी संघर्षों का रूप धारण नहीं कर पायी थीं।

रूसी अर्थवादी मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता की पूजा करते हुए जिस क़िस्म के नारे दे रहे थे, उस क़िस्म के नारे अक्सर हमारे यहाँ के मज़दूर आन्दोलनों में ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’-मार्का जुझारू अर्थवादी संगठन देते हुए पाये जाते हैं! देखें लेनिन क्या लिखते हैं: बजाय यह नारा बुलन्द करने के कि आगे बढ़ो, क्रान्तिकारी संगठन को मज़बूत बनाओ और राजनीतिक काम को और फैलाओ, पीछे हटने का, शुद्ध ट्रेड यूनियन संघर्ष तक ही अपने को सीमित रखने का नारा बुलन्द किया गया। ऐलान किया गया किराजनीतिक लक्ष्य को कभी भूलने के प्रयत्न में आन्दोलन का आर्थिक आधार पृष्ठभूमि में चला जाता है”, कि मज़दूर आन्दोलन का मुख्य नारा यह है कि आर्थिक परिस्थितियों के लिए लड़ो” (!) या इससे भी बेहतर यह किमज़दूरों के साथी मज़दूर हैं  लेनिन के अनुसार इस दौर में राजनीतिक चेतना पर स्वतःस्फूर्तता ने पूरी तरह से क़ाबू पा लिया था। पाठक स्वयं देख सकते हैं कि कैसे यह अर्थवादी सोच मज़दूर वर्ग से उसका क्रान्तिकारी अभिकरण यानी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी विचारधारा से लैस हिरावल कम्युनिस्ट पार्टी की वांछनीयता और अनिवार्यता की समझदारी ही छीन लेती है। लेनिन दो-टूक शब्दों में कहते हैं कि जो कोई भी मज़दूर आन्दोलन की स्वतःस्फूर्तता की पूजा करता है, जो कोई भीसचेतन तत्वकी भूमिका को, सामाजिकजनवाद की भूमिका को कम करके आँकता है, वह चाहे ऐसा करना चाहता हो या चाहता हो, पर असल में वह मज़दूरों पर बुर्जुआ विचारधारा के असर को मज़बूत करता है।  वास्तव में, अर्थवाद की विचारधारा मज़दूर वर्ग और उसके हिरावल यानी कि कम्युनिस्ट पार्टी के बीच ही दरार पैदा करने का काम करती है और ज़ाहिरा तौर पर ऐसी सोच मालिकों के वर्ग को ही फ़ायदा पहुँचाने का काम करती है।

लेनिन ने अर्थवाद का खण्डन करते हुए बार-बार दुहराया कि विचारधारा का प्रवेश मज़दूर आन्दोलन में बाहर से होता है और यह भी कि आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित किसी “स्वतन्त्र” विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है, इसलिए केवल दो ही रास्ते बचते हैं, या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या फिर समाजवादी विचारधारा को चुना जाये। बीच का कोई रास्ता नहीं है क्योंकि मानवजाति ने कोईतीसरीविचारधारा पैदा नहीं की है, और इसके अलावा जो समाज वर्ग अन्तरविरोधों के कारण बँटा हुआ है, उसमें कोई ग़ैरवर्गीय या वर्गोपरि विचारधारा कभी नहीं हो सकती। इसलिए समाजवादी विचारधारा के महत्व को किसी भी तरह कम करके आँकने, उससे ज़रा भी मुँह मोड़ने का मतलब बुर्जुआ विचारधारा को मज़बूत करना होता है।लेनिन स्पष्ट शब्दों में इंगित करते हैं कि मज़दूर आन्दोलन में  स्वतःस्फूर्तता का परिणाम यह होता है कि आन्दोलन बुर्जुआ विचारधारा के अधीन हो जाता है क्योंकि स्वयंस्फूर्त मज़दूर आन्दोलन ट्रेड-यूनियनवाद होता है और ट्रेड-यूनियनवाद का मतलब मज़दूरों को विचारधारा के मामले में बुर्जुआ वर्ग का दास बनाकर रखना होता है। लेनिन यह भी बताते हैं कि चूँकि उत्पत्ति की दृष्टि से बुर्जुआ विचारधारा समाजवादी विचारधारा से बहुत पुरानी है, अधिक विकसित है और उसे फैलने के लिए कहीं अधिक सुविधाएँ मिली हुई हैं इसलिए मज़दूर आन्दोलन के भीतर उसका प्रभुत्व आसानी से हो जाता है। और किसी देश का समाजवादी आन्दोलन जितना नया हो, उसे ग़ैर-समाजवादी विचारधाराओं की जड़ों को मज़बूत करने की तमाम कोशिशों के ख़िलाफ़ उतने ही ज़्यादा ज़ोर से लड़ना चाहिए और उतनी ही दृढ़ता से मज़दूरों को उन बुरे सलाहकारों के ख़िलाफ़ आगाह करना चाहिए जो “सचेतन तत्व का मूल्य अधिक आँकने”, आदि के ख़िलाफ़ चिल्लाया करते हैं। इसलिए, लेनिन कहते हैं कि हमारा कार्यभार, सामाजिकजनवादियों का कार्यभार है स्वतःस्फूर्तता के ख़िलाफ़ लड़ना, मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के उस स्वयंस्फूर्त ट्रेडयूनियनवादी रुझान को, जो उसे बुर्जुआ वर्ग के साये में ले जाता है, मोड़ना और उसे क्रान्तिकारी सामजिकजनवाद के साये में लाना।

ऊपर की चर्चा से स्पष्ट है कि मज़दूर वर्ग के भीतर राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त रूप से नहीं पैदा होती है, बल्कि उसमें इस चेतना को पैदा करना एक हिरावल का सचेतन कार्यभार होता है। लेनिन का मानना था कि एक सामाजिक-जनवादी यानी कि कम्युनिस्ट की चेतना महज़ एक ट्रेड यूनियन सचिव की नहीं होती, बल्कि मज़दूर वर्ग और आम जनसमुदायों के हिरावल की होती है। लेनिन का यह भी मानना था कि राजनीतिक चेतना मज़दूर वर्ग के भीतर आर्थिक संघर्षों के तीव्र होते जाने से स्वयं ही नहीं पैदा हो जायेगी। किसी बाह्य राजनीतिक अभिकर्ता (यानी, सामाजिक-जनवादी बुद्धिजीवियों या कम्युनिस्ट पार्टी) के हस्तक्षेप के बिना मज़दूर वर्ग अपने आप केवल ट्रेड यूनियन चेतना तक ही पैदा कर सकता है। इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि मज़दूर वर्ग अपने राजनीतिक सिद्धान्तकार नहीं पैदा कर सकता था। यहाँ लेनिन ने स्पष्ट किया कि एक मज़दूर जब आर्थिक संघर्षों से अलग मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक दूरगामी राजनीतिक लक्ष्यों की बात करता है तो वास्तव में वह महज़ एक सामान्य मज़दूर नहीं होता बल्कि मज़दूर वर्ग के राजनीतिक सिद्धान्तकार की भूमिका निभा रहा होता है। लेकिन एक वर्ग के तौर पर समूचा मज़दूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से ऐसी चेतनायानी कि राजनीतिक वर्ग चेतनासमाजवादी चेतना, को जन्म नहीं दे सकता है। यह समाजवादी चेतना मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में बाहर से ही आती है और यह चेतना इतिहास की वैज्ञानिक समझदारी के साथ मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक अनुभवों के समाहार के मेल से पैदा होती है। इस पर हम विस्तृत चर्चा अगले अंक में करेंगे।

स्वतःस्फूर्तता और सचेतना के द्वन्द्व को रेखांकित करते हुए लेनिन कहते हैं कि अर्थवादी रुझान की बुनियादी ग़लती यह है कि वह स्वतःस्फूर्तता की पूजा करती है और यह नहीं समझती है कि जनता की स्वतःस्फूर्तता दरअसल सामाजिक-जनवादियों से और अधिक सचेतनता की माँग करती है। जनसमुदायों में जितना ही अधिक स्वतःस्फूर्त उभार होता है, आन्दोलन का विस्तार जितना ही बढ़ जाता है, सामजिक-जनवाद के सैद्धान्तिक, राजनीतिक, सांगठनिक कामों में चेतना की माँग उतनी ही अधिक अतुलनीय द्रुत गति से बढ़ जाती है। स्वतःस्फूर्तता पर अर्थवादियों का ज़ोर अन्त में इस मंज़िल तक जाता है कि वह किसी भी प्रकार के राजनीतिक हिरावल की भूमिका को ही नकारने लगते हैं क्योंकि उनकी दलील ही यह है कि सर्वहारा वर्ग की आर्थिक कार्रवाइयाँ जैसे कि ट्रेड यूनियन गतिविधियाँ और हड़तालें अन्ततः उन्हें क्रान्ति के लिए तैयार कर देती हैं, जैसी कि हमने ऊपर चर्चा भी की थी।

अर्थवादियों के विरुद्ध लेनिन द्वारा चलाये गये विचारधारात्मक संघर्ष में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच होने वाले विभाजन के बीज थे। 1903 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच विभाजन हुआ और इस विभाजन के मूल व केन्द्रीय मुद्दे वास्तव में स्वतःस्फूर्तता और सचेतनता का प्रश्न, कम्युनिस्ट पार्टी की ज़रूरत और उसके सांगठनिक उसूल व ढाँचे, सदस्यता की शर्तें आदि के प्रश्न थे। क्या करें?’ में इस बहस को लेनिन ने निर्णायक तौर पर मुक़ाम पर पहुँचाया और उसकी राजनीतिक परिणति 1903 की पार्टी कांग्रेस में हुई।

क्या करें?’ में लेनिन ने स्वतःस्फूर्ततावाद और पुछल्लेवाद की जो आलोचना प्रस्तुत की वह हमारे लिए आज भी मार्गदर्शन का काम करती है। जिस प्रकार के नारे व प्रवचन अर्थवादियों द्वारा उस दौर में रूस में दिये जा रहे थे आज भी वैसी ही अनर्गल मगर ख़तरनाक बातें मज़दूर आन्दोलन के भीतर तमाम क़िस्म की ग़ैर-सर्वहारा विचारधाराओं द्वारा की जा रही हैं। इसलिए आज भी मज़दूर वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध चले इस संघर्ष को जानने और समझने की ज़रूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थवाद के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष के ज़रिये ही लेनिन ने मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी सिद्धान्त की हिफ़ाज़त की थी और उसे विकसित भी किया था। इसके साथ ही उन्होंने हिरावल/बोल्शेविक पार्टी के लेनिनवादी सिद्धान्त को भी प्रतिपादित करने का महत्वपूर्ण काम किया। आगे हम देखेंगे कि किस प्रकार ट्रेड यूनियनवादी और सामाजिक-जनवादी/कम्युनिस्ट राजनीति के बीच की विभाजक रेखा को स्पष्ट करते हुए लेनिन ने मज़दूर आन्दोलन के भीतर सर्वहारावर्गीय लाइन को स्थापित किया। इस बिन्दु पर हम अगले अंक में विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे।

(अगले अंक में जारी)

मज़दूर बिगुल, मार्च 2023


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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