मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (चौथी क़िस्त)
शिवानी
‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले तीन अंकों से हमने इस श्रृंखला के तहत मज़दूर आन्दोलन में मौजूद अर्थवाद की ख़तरनाक ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्ति के कई आयामों से अपने पाठकों को अवगत कराया है। अर्थवाद को लेकर अब तक जितनी भी चर्चा यहाँ की गयी है वह दरअसल मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन की अवस्थिति की ही पुनःप्रस्तुति कही जा सकती है क्योंकि जितने शानदार तरीक़े से लेनिन ने इस विजातीय प्रवृत्ति पर विचारधारात्मक चोट की वह अतुलनीय है। प्लेखानोव और मार्तोव ने भी अर्थवाद की आलोचना में महत्वपूर्ण योगदान किया था लेकिन अर्थवाद की विचारधारात्मक-राजनीतिक जड़ों पर सबसे मज़बूत हमला लेनिन ने ‘क्या करें?’समेत अपने 1899 से लेकर 1903 तक की तमाम रचनाओं में किया जिसका उल्लेख हमने इस श्रृंखला की शुरुआत में भी किया था। इसलिए लेनिनवादी अवस्थिति को यहाँ प्रस्तुत करना बेहद ज़रूरी था क्योंकि आज मार्क्सवाद की खोल में लेनिन की अर्थवाद के विषय में पेश की गयी आलोचना का विकृतीकरण भी चलन में है।
बहरहाल, पिछली तीन क़िस्तों में हमने अर्थवाद का खण्डन प्रस्तुत करते हुए सचेतनता के बरक्स स्वतःस्फूर्तता के अनालोचनात्मक जश्न, मज़दूर आन्दोलन के भीतर सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी विचारधारा और दर्शन यानी कि मार्क्सवाद के “बाहर से” प्रवेश की लेनिनवादी सोच से परहेज़ और सामाजिक जनवादी/कम्युनिस्ट चेतना व राजनीति के स्थान पर ट्रेड यूनियनवादी चेतना व राजनीति की वक़ालत और इसी को समस्त आन्दोलन का फ़लक बना देने की समझदारी आदि जैसे अर्थवादी प्रवृत्ति की चारित्रिक अभिलाक्षणिकताएँ पाठकों के समक्ष रखीं।
इसके साथ ही राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन के प्रश्न पर भी अर्थवादियों का सामाजिक जनवादियों से मतभेद था। हमने पिछले अंक में देखा था कि मार्तिनोव समेत अन्य रूसी अर्थवादी केवल और केवल आर्थिक संघर्षों के ज़रिये ही जनसमुदायों को राजनीतिक संघर्ष में शामिल करने का रास्ता सुझाते थे जो वास्तव में उनकी अर्थवादी राजनीति को ही बेनक़ाब करती थी। जनता के व्यापक हिस्सों का राजनीतिकरण केवल आर्थिक मसलों के ज़रिये ही नहीं होता है बल्कि दमन-उत्पीड़न या आम जनवादी माँगों के ऊपर संघर्ष संगठित करके भी होता है या यूँ कहें कि आम तौर पर और इतिहास में भी इन्हीं कारणों से ऐसा अधिक हुआ है। ‘क्या करें?’ में लेनिन मार्तिनोव के अर्थवाद को प्रचार और उद्वेलन के मामले में प्रस्तुत की गयी उसकी अवस्थिति के माध्यम से भी उजागर करते हैं। प्लेखानोव द्वारा इस विषय पर पेश किये गए निम्न विचार को ही लेनिन विस्तारित करते हैं: “प्रचारक एक या चन्द व्यक्तियों के समक्ष अनेक विचार पेश करता है, उद्वेलक केवल एक या चन्द विचार पेश करता है, हालाँकि वह उन्हें आम जनता के सामने रखता है।” जिसका कि विकृतीकरण मार्तिनोव द्वारा किया गया था। ‘क्या करें?’ में ही लेनिन लिखते हैं:
“अभी तक (प्लेखानोव की भाँति, और अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के सभी नेताओं की भाँति) हम भी यही समझते थे कि जब, मिसाल के लिए, बेरोज़गारी के उसी प्रश्न पर प्रचारक बोलता है, तो उसे आर्थिक संकटों के पूँजीवादी स्वरूप को समझाना चाहिए, उसे बताना चाहिए कि वर्तमान समाज में इस प्रकार के संकटों का आना क्यों अवश्यम्भावी है और इसलिए क्यों इस समाज को समाजवादी समाज में बदलना ज़रूरी है, आदि। सारांश यह कि प्रचारक को सुननेवालों के सामने “बहुत-से विचार” पेश करने चाहिए, इतने सारे विचार कि केवल (अपेक्षाकृत) थोड़े-से लोग ही उन्हें एक अविभाज्य और सम्पूर्ण इकाई के रूप में समझ सकेंगे। लेकिन इसी प्रश्न पर जब कोई उद्वेलक बोलेगा, तो वह किसी ऐसी बात का उदाहरण देगा, जो सबसे अधिक ज्वलन्त हो और जिसे उसके सुननेवाले सबसे व्यापक रूप से जानते हों – मसलन, भूख से किसी बेरोज़गार मज़दूर के परिवारवालों की मौत, बढ़ती हुई ग़रीबी, आदि – और फिर इस मिसाल का इस्तेमाल करते हुए, जिससे सभी लोग अच्छी तरह परिचित हैं, वह “आम जनता” के सामने बस एक विचार रखने की कोशिश करेगा, यानी यह कि यह अन्तर्विरोध कितना बेतुका है कि एक तरफ़ तो सम्पत्ति और दूसरी तरफ़, ग़रीबी बढ़ती जा रही है। इस घोर अन्याय के विरुद्ध उद्वेलक जनता में असन्तोष और गुस्सा पैदा करने की कोशिश करेगा तथा इस अन्तर्विरोध का और पूर्ण स्पष्टीकरण करने का काम वह प्रचारक के लिए छोड़ देगा।”
राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन की यह लेनिनवादी व्याख्या आज भी हमारे लिए बेहद उपयोगी है। इसके बाद लेनिन मार्तिनोव की इस सम्बन्ध में प्रस्तुत की गयी अवस्थिति की धज्जियाँ उड़ाते हुए कहते हैं कि “व्यावहारिक कार्य का एक तीसरा अलग क्षेत्र या तीसरा अलग कार्य बनाना और इस कार्य में “कुछ ठोस कार्रवाइयों के लिए जनता का आह्वान करने” को शामिल करना – यह सरासर बकवास है, क्योंकि एक अकेले कार्य के रूप में यह “आह्वान” या तो स्वाभाविक एवं अवश्यम्भावी रूप से सैद्धान्तिक पुस्तक, प्रचार पुस्तिका और उद्वेलनात्मक भाषण के पूरक का काम करता है या वह केवल कार्यकारी भूमिका अदा करता करता है।” पाठक देख सकते हैं कि किस प्रकार अर्थवादी राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन की आवश्यक कार्रवाइयों को भी अर्थवादी प्रदूषण से दूषित करने का एक अवसर नहीं छोड़ते हैं।
यहाँ एक और तथ्य भी रेखांकित करना आवश्यक है। वह यह है कि लेनिन और प्लेखानोव के अलावा अलग से स्तालिन ने भी अर्थवाद का खण्डन करते हुए मज़दूर वर्ग को सचेतन तौर पर राजनीतिक रूप से संगठित करने की ज़रूरत पर बल दिया। 1901 में अपने लेख ‘रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी और उसके फ़ौरी कार्यभार’ में स्तालिन ने लिखा था कि सामाजिक जनवादी/कम्युनिस्ट आन्दोलन के अस्तित्व में आने से पहले रूस में मज़दूरों का आन्दोलन स्वतःस्फूर्तता के दायरे से बाहर नहीं आया था; सामाजिक जनवादियों ने पहली बार रूस में मज़दूर वर्ग को क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना से लैस करने का काम अपने हाथों में लिया। अर्थवादियों के बारे में स्तालिन ने इस रचना में लिखा, ‘‘स्वतःस्फूर्त आन्दोलन को नेतृत्व देने की बजाय, जनसमुदायों को सामाजिक-जनवादी आदर्शों से ओत-प्रोत करने की बजाय और हमारे अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्हें निर्देशित करने की बजाय, रूसी सामाजिक-जनवादियों का यह हिस्सा (यानी अर्थवादी- लेखिका) इस आन्दोलन का अन्धा उपकरण बन गया; यह मज़दूरों के अनुपयुक्त रूप से शिक्षित हिस्से के पीछे आँख मूँदकर चलता रहा और इसने अपने आपको उन आवश्यकताओं और ज़रूरतों को सूत्रबद्ध करने तक सीमित कर दिया जिनके प्रति मज़दूरों के जनसमुदाय उस समय सचेत थे। संक्षेप में, यह खड़ा होकर एक खुले दरवाज़े को खटखटाता रहा, और घर में प्रवेश करने का साहस नहीं कर पाया। यह मज़दूरों के जनसमुदायों को न तो अन्तिम लक्ष्य – यानी कि समाजवाद – के बारे में समझा पाया और न ही तात्कालिक लक्ष्य – यानी कि निरंकुश तन्त्र को उखाड़ फेंकने – के बारे में; और इससे भी ज़्यादा निन्दनीय बात यह थी कि इसने इन दोनों ही लक्ष्यों को बेकार, बल्कि नुक़सानदेह तक माना। यह रूसी मज़दूरों को बच्चों की तरह मानता था और उसे डर था कि वह कहीं ऐसे विचारों से उन्हें डरा न दे। यही नहीं, सामाजिक-जनवाद के कुछ दायरों में समाजवाद लाने के लिए भी क्रान्तिकारी संघर्ष की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि उनकी राय में जिस चीज़ की ज़रूरत थी वह था महज आर्थिक संघर्ष – हड़तालें और ट्रेड यूनियन, उपभोक्ता व उत्पादक सहकारी संघ, और बस, यह रहा समाजवाद।’’ यहाँ जो गौरतलब बात है वह यह है कि अभी तक स्तालिन की लेनिन से मुलाक़ात नहीं हुई थी और स्तालिन लेनिन की कुछ रचनाओं से ही परिचित थे यानी स्तालिन स्वतन्त्र रूप से इस समझदारी पर ख़ुद भी पहुँच रहे थे।
अर्थवाद दरअसल मज़दूरों द्वारा किसी स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में संगठित होने की कोई ज़रूरत समझता ही नहीं है। अर्थवादियों की माने तो मज़दूरों के जन संगठन यानी कि ट्रेड यूनियन ही मज़दूरों के आर्थिक व अन्य अधिकारों की नुमाइन्दगी करने के लिए काफ़ी है। जहाँ तक रूस के अर्थवादियों का प्रश्न था तो उनका मत था कि मज़दूर वर्ग को आर्थिक हक़ों की लड़ाई तक ही ख़ुद को महदूद रखना चाहिए और राजनीतिक संघर्ष और नेतृत्व का काम उदार बुर्जुआ वर्ग पर छोड़ देना चाहिए, वहीं लेनिन का मानना था कि रूस में राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए जोकि उस वक़्त जनवादी कार्यभारों को पूरा करने का कार्यभार था, उदार पूँजीपति वर्ग के भरोसे नहीं रहा जा सकता है, जो सर्वहारा वर्ग के उग्र होते संघर्ष के समक्ष किसी भी समय प्रतिक्रियावाद की गोद में बैठने को तैयार है। लेनिन के शब्दों में रूस में ‘‘राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करने का कार्यभार भी सर्वहारा वर्ग के मज़बूत कन्धों पर आ पड़ा था।’’ लेकिन यह काम मज़दूर वर्ग महज़ आर्थिक संघर्ष लड़कर पूरा कर ही नहीं सकता था। मज़दूर वर्ग केवल और केवल अपनी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में समूची मेहनतकश जनता का हिरावल बन सकता था और उपरोक्त कार्यभार पूरा कर सकता था यानी केवल और केवल इसी रूप में एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर अस्तित्व में आ सकता था।
यह बात एक अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु से जाकर जुड़ती है जिसपर चर्चा के साथ हम अर्थवाद पर अपनी इस कड़ी को फिर विराम दे सकते हैं। वह बिन्दु है जन संगठन व पार्टी संगठन के बीच का फ़र्क और विशिष्ट तौर पर ट्रेड यूनियन और पार्टी के बीच का फ़र्क। इस पर तफ़सील से चर्चा हम अगले अंक में करेंगे लेकिन अभी यहाँ कुछ नुक्तों पर हम अपनी बात रखेंगे जिसको हम अगले अंक में लेनिन के हवाले से उद्धरणों के ज़रिये पुष्ट भी करेंगे।
दरअसल अर्थवाद की प्रवृत्ति में मज़दूर वर्ग की हिरावल पार्टी की भूमिका को कम करके आँकने या उसे सिरे से ख़ारिज करने की सोच कहीं न कहीं मौजूद होती है। यदि पार्टी की अनिवार्यता अर्थवादियों द्वारा स्वीकार की भी जाती है तो वह एक ऐसी पार्टी होती है जिसकी अवधारणा लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की अवधारणा से मीलों दूर होती है यानी कि खुली चवन्निया सदस्यता वाली एक जन पार्टी होती है। ज़ाहिर सी बात है, जो भी मज़दूर वर्ग की पूरी राजनीति को ट्रेड यूनियनवाद पर लाकर अपचयित या केन्द्रित कर देगा, वह एक तपी-तपाई गोपनीय ढाँचे वाली अनुशासित पार्टी की ज़रूरत को नहीं समझेगा। और ठीक यही रूस में हुआ भी। हमने पिछली क़िस्तों में भी चर्चा की थी कि रूस में अर्थवादियों के विरुद्ध लेनिन ने जो संघर्ष चलाया उसमें बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच होने वाले विभाजन के बीज थे। बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच फूट का तात्कालिक मुद्दा पार्टी सदस्यता की शर्तों का प्रश्न ही था जिसके मूल में मेंशेविकों का अर्थवाद था। 1903 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच विभाजन हुआ और इस विभाजन का मूल मुद्दा वास्तव में ‘‘स्वतःस्फूर्तता’’ और सचेतनता का प्रश्न, कम्युनिस्ट पार्टी की ज़रूरत और उसके सांगठनिक उसूलों का प्रश्न और क्रान्तिकारी विचारधारा और अर्थवाद के बीच का संघर्ष था। यह चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं।
वास्तव में जन संगठन और पार्टी संगठन के फ़र्क को न समझना समूचे मज़दूर वर्ग और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के अन्तर को नहीं समझना है। कम्युनिस्ट पार्टी के दायरे में मज़दूर वर्ग के सबसे उन्नत, दृढ़ और प्रगतिशील तत्व आते हैं और वे ही पूरे मज़दूर वर्ग समेत आम मेहनतकश जनसमुदायों को उनके संघर्षों में क्रान्तिकारी नेतृत्व दे सकते हैं। मज़दूर वर्ग स्वयं यह कार्य स्वतःस्फूर्त रूप से नहीं कर सकता है और ख़ुद ‘सामाजिक जनवादी’ या कम्युनिस्ट चेतना तक नहीं पहुँच सकता है जैसा कि हमने बार-बार इंगित किया है। पार्टी संगठन द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण और मार्क्सवादी विचारधारा पर निर्मित होता है जबकि जन संगठन न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर गठित होते हैं, विचारधारा उनकी सदस्यता की कोई शर्त हो ही नहीं सकती है वरना वे सही मायनों में “जन” सगठन होंगे ही नहीं! लेकिन अर्थवाद ठीक इसी बात को नकार देता है। कम्युनिस्ट पार्टी एक जन पार्टी बनकर रह जाती है जिसमें कि हर हड़ताली मज़दूर सदस्य होने की अर्हता रखता है, जैसा कि बाद में मेंशेविकों ने पार्टी सदयस्ता पर अपना मत ज़ाहिर भी किया था।
यह सर्वहारा वर्ग के शिक्षक और नेता लेनिन ही थे जिन्होंने पार्टी सिद्धान्त को पहली बार व्यवस्थित किया, बल्कि कहना चाहिए कि मार्क्सवाद के पार्टी सिद्धान्त के प्रणेता वास्तव में लेनिन ही थे। लेनिन ने स्पष्ट तौर पर बताया कि एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी हर हालत में अपना गोपनीय ढाँचा क़ायम रखेगी। इसी प्रक्रिया में लेनिन ने बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों की नीव रखी। लेनिन ने स्पष्ट किया कि उदार से उदार बुर्जुआ जनवादी गणराज्य में भी काम करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी अपने समूचे ढाँचे को कभी पूरी तरह खुला नहीं कर सकती है। ऐसा करने का अर्थ होगा पार्टी और इस प्रकार क्रान्ति के भविष्य को बुर्जुआ राज्यसत्ता के रहमोकरम पर छोड़ना। लेनिन की इस महान ऐतिहासिक शिक्षा को इतिहास ने सही साबित किया है और दिखलाया है कि पूँजीवाद जब आर्थिक और राजनीतिक संकट का शिकार होता है तो उदार से उदार बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ “जनवाद” के मुखौटे को नोचकर फेंक देती हैं और मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के समक्ष अपने ‘खाने के दाँतों’, यानी कि पुलिस, फ़ौज व सशस्त्र बलों के साथ उपस्थित हो जाती हैं। भारत में भाकपा, माकपा, भाकपा माले (लिबरेशन) जैसी चवन्निया सदस्यता वाली खुली संशोधनवादी पार्टियों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को तिलान्जलि देते हुए संसदवाद, अर्थवाद और अवसरवाद पर अमल के साथ अपने असली चरित्र को स्वयं सबके सामने लाकर रख दिया है।
मुख्य बात यह है कि उपरोक्त लेनिनवादी अवस्थिति की जगह अर्थवादी जन पार्टी की अवधारणा के ज़रिये किसी भी प्रकार के राजनीतिक हिरावल की भूमिका को ही नकारने लगते हैं क्योंकि उनकी दलील ही यह है कि सर्वहारा वर्ग की आर्थिक कार्रवाइयाँ जैसे कि ट्रेड यूनियन गतिविधियाँ और हड़तालें अन्ततः उन्हें क्रान्ति के लिए तैयार कर देती है और ऐसा करते हुए पार्टी भी कमोबेश एक ट्रेड यूनियन जैसा जन संगठन बनकर रह जाती है। इस चर्चा को अगले अंक में जारी रखते हुए हम लेनिन के उद्धरणों के माध्यम से यह दिखलाने का प्रयास करेंगे की यह दरअसल गतिविधियों का सारतत्व होता है जो संगठन के चरित्र को निर्धारित करता है। ट्रेड यूनियन और पार्टी संगठन की गतिविधियों की विशिष्टता ही उनके चरित्र को निर्धारित करती है। लेकिन इसपर अगले अंक में। और इसके साथ ही हम अर्थवाद पर अपनी चर्चा को समाप्त करेंगे और फिर एक नयी प्रवृत्ति चर्चा की शुरुआत के साथ अपनी इस श्रृंखला जारी रखेंगे।
मज़दूर बिगुल, मई 2023
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन