श्रम सुधारों के नाम पर मोदी सरकार का मज़दूरों पर हमला तेज़
सच तो यह है कि छोटे-छोटे प्लाण्टों से लेकर घरेलू वर्कशॉपों तक ठेका, उपठेका और पीसरेट पर उत्पादन के काम को इस तरह बाँट दिया गया है कि उनमें काम करने वाले अधिकांश मज़दूरों का कोई रेकार्ड नहीं रखा जाता। ठेका, कैजुअल या अप्रेण्टिस मज़दूर को मिलने वाले क़ानूनी हक़ भी उन्हें हासिल नहीं होते। व्यवहारतः वे दिहाड़ी मज़दूर होते हैं जो सरकार और श्रम विभाग के लिए अदृश्य होते हैं। नये श्रम सुधारों द्वारा श्रम विभागों को एकदम निष्प्रभावी बनाकर इस किस्म के अनौपचारिकीकरण को अब ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि विदेशी कम्पनियाँ और देश के छोटे-बड़े सभी पूँजीपति खुले हाथों से और मनमाने ढंग से अतिलाभ निचोड़ सके। मोदी द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’ को रफ्तार देने के लिए प्रस्तावित श्रम सुधारों की यह वास्तव में महज़ शुरुआत भर है। यह तो महज़ ट्रेलर है, पूरी पिक्चर अगले दो-तीन वर्षों में सामने आ जायेगी।