दिल्ली मेट्रो में काम कर रहे सफ़ाई कर्मचारियों के बदतर हालात
– भारत
देश की राजधानी दिल्ली दुनियाभर में अपनी मेट्रो सेवा के लिए मशहूर है। चमचमाती मेट्रो की चमक के पीछे दरअसल उन श्रमिकों के ख़ून पसीने की मेहनत है जिनका कहीं ज़िक्र तक नहीं किया जाता। केन्द्र राज्य के स्वामित्व वाली दिल्ली मेट्रो में भारत सरकार (50 प्रतिशत) तथा दिल्ली सरकार (50 प्रतिशत) का बराबरी का मालिकाना है। जब भी मेट्रो से होने वाले अकूत मुनाफ़े पर गाल बजाना हो तो दोनों ही सरकारें अपनी दावेदारी पेश करने लगती है। लेकिन वहीं जब यहाँ काम करने वाले श्रमिक अपने हक़ अधिकार की माँग करते हैं तो दोनों ही सरकारें कन्नी काटती रहती हैं। दिल्ली मेट्रो भारत का सबसे बड़ा और सबसे व्यस्त मेट्रो रेल सिस्टम है, जिसके 230 स्टेशनों से रोज़ाना लाखों-लाख लोग सफ़र करते हैं। दिल्ली मेट्रो अपनी व्यस्तता, बड़े नेटवर्क, यात्रियों की संख्या के अलावा जिस चीज़ के लिए दुनियाभर में जानी जाती है वह है इसकी साफ़-सफ़ाई। इसके स्टेशनों से लेकर कोचों तक की शानदार सफ़ाई। उसकी चमक को बरक़रार रखने का काम करते हैं मेट्रो में काम करने वाले हाउस कीपिंग स्टाफ़।
ये श्रमिक दिनों-रात मेहनत करते हैं और उसके एवज़ में उन्हें महज़ नाममात्र का वेतन मिलता है। सरकारी उपक्रम में काम करने वाले ये श्रमिक भयंकर शोषण-उत्पीड़न का शिकार हैं। इनके लिए कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। ठेकेदारी प्रथा के जुए के नीचे पिस रहे इन श्रमिकों के रोज़गार की कोई गारण्टी नहीं है। दिल्ली सरकार द्वारा तय किये गये न्यूनतम वेतन से मीलों दूर इन श्रमिकों को आम तौर पर साढ़े दस हज़ार रुपये मासिक वेतन दिया जाता है। ईएसआई, पीएफ़ आदि काटे जाते हैं किन्तु कोई बोनस नहीं दिया जाता है। सालों साल से काम कर रहे श्रमिकों को डीएमआरसी अपना कर्मचारी नहीं मानती है। चौदह-चौदह साल से काम कर रहे श्रमिक अस्थायी श्रमिक के तौर पर काम कर रहे हैं। सालों से काम कर रहे श्रमिकों का हर कुछ अन्तराल में ठेका बदल दिया जाता है। उन्हीं श्रमिकों को नये ठेके के तहत दुबारा काम पर रखा जाता है और उनका पुराना रिकॉर्ड हटा दिया जाता है।
इस तरह पुराने श्रमिकों को काग़ज़ों पर नये श्रमिक के तौर पर दिखाया जाता है। इस गोरखधन्धे के भीतर भी एक और गोरखधन्धा है। काम पर उन्हीं श्रमिकों को वापस रखा जाता है जो रिश्वत दे सकते हैं। हर बार जब श्रमिकों का टेण्डर बदला जाता है तब उनसे दस-दस हज़ार रुपये वसूले जाते हैं। यह उनके एक महीने का वेतन है। पिछली बार जो श्रमिक यह राशि नहीं दे पाये उन्हें नये टेण्डर के तहत काम पर वापस नहीं रखा गया। दसियों साल से काम कर रहे श्रमिक जो रिश्वत की राशि नहीं दे पाये, उन्हें अपने काम से हाथ धोना पड़ा। पिछली बार के टेण्डर के बाद तो श्रमिकों की पगार को बढ़ाने के बजाय उल्टा घटा ही दिया गया है। वेतन साढ़े दस हज़ार से दस हज़ार कर दिया गया है। ठेका कम्पनियाँ काग़ज़ों पर सभी नियम क़ानून को लागू होता हुआ दिखाती हैं। कम्पनियाँ काग़ज़ों पर श्रमिकों को 724 रुपये लेकिन असल में मात्र 384 रुपये दिहाड़ी देती हैं। अभी यह टेण्डर पीली, हरी लाइन में बदला है और अन्य लाइनों में भी जल्द ही पुराने टेण्डर की अवधि समाप्त हो जायेगी। इसके अलावा सुपरवाइज़र, मैनेजर द्वारा दुर्व्यवहार किया जाना आम बात है। हर मेट्रो पर जितने श्रमिकों की ज़रूरत होती है उससे संख्या उनकी कम होती है, इसी कारण काम का बोझ भी उनपर दुगुना होता है।
दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के ठेका श्रमिकों की अपनी पंजीकृत क्रान्तिकारी यूनियन है, दिल्ली मेट्रो रेल कॉण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन (डी.एम.आर.सी.डब्ल्यू.यू.)। यह यूनियन ठेका श्रमिकों द्वारा ही बनायी गयी है, जो पहले भी उनके कई संघर्ष सफलतापूर्वक लड़ चुकी है। यूनियन ने ठेका कम्पनियों तथा मुख्य नियोक्ता डीएमआरसी द्वारा की जा रही इस कारस्तानी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी। यूनियन की तरफ़ से डीएमआरसी व आरएलसी भवन में ज्ञापन दिया गया और पूरे मसले पर सवाल उठाया गया, जिसके जवाब में डीएमआरसी महज़ गोल-गोल बातें बनाती रही। आज ठेका श्रमिकों को अपनी यूनियन के बैनर तले एकजुट होकर डीएमआरसी तथा ठेका कम्पनियों के ख़िलाफ़ ज़ोरदार संघर्ष करने की ज़रूरत है। तभी जाकर इनकी मनमानियों पर पाबन्दी लगायी जा सकेगी। श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन, ईएसआई-पीएफ़, पेंशन, आठ घण्टे का कार्यदिवस, डबल रेट के साथ स्वैच्छिक ओवरटाइम के अधिकारों को लागू करवाया जा सकेगा।
मज़दूर बिगुल, मई 2022
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