अगर न्याय नहीं है, तो शान्ति कैसे हो सकती है?
यह आतंकी हमला नहीं, बल्कि ज़ायनवादी इज़रायली औपनिवेशिक कब्ज़े के ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीनी जनता का प्रतिरोध है
‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ की ओर से जारी वक्तव्य
7 अक्टूबर की सुबह हमास के नेतृत्व में फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध योद्धाओं द्वारा इज़रायल पर एक अभूतपूर्व हमला किया गया। इस हमले में अब तक 1300 से ज़्यादा इज़रायली मारे जा चुके हैं, हज़ारों घायल हैं और दर्जनों को फ़िलिस्तीनी योद्धाओं ने बन्दी बनाया है। जवाब में इज़रायल ने वही किया है, जो वह कर सकता है। उसके युद्धक विमान “दुनिया की सबसे बड़ी जेल” गाज़ा पर अन्धाधुन्ध बमबारी कर रहे हैं, जिसमें अब तक करीब 1800 फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। हमले के बाद इज़रायल के भीतर करीब 22 जगहों पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति योद्धाओं और इज़रायली सशस्त्र बलों में मुठभेड़ हुई। इस तरह का कोई भी हमला फ़िलिस्तीन या गाज़ा की ओर से पहले नहीं हुआ है। इससे पहले हमेशा इज़रायल ने ही अपने हथियार बेचने के लिए अपने हथियारों की नुमाइश गाज़ा की बेगुनाह जनता पर की है, या गाज़ा की जनता को सामूहिक दण्ड के तौर पर अपने हत्यारे हमलों का निशाना बनाया है। 1970 के दशक में इज़रायल पर अरब हमले के बाद यह पहला मौका है, जब फलस्तीनियों ने यह दिखलाया है कि वह केवल इज़रायल के हमले का जवाब देने तक सीमित नहीं हैं बल्कि वह इज़रायल की ज़मीन पर युद्ध को ले जा सकते हैं। इस हमले ने इज़रायल की “अपराजेयता” और “अभेद्य सुरक्षा” के मिथक को भी धराशायी कर दिया है। इसके मनोवैज्ञानिक असर इज़रालियों के दिमाग़ से कभी नहीं मिटने वाले। दुनिया के सर्वाधिक उन्नत हथियारों, सर्विलांस तकनोलॉजी व आइरन डोम जैसी हवाई सुरक्षा प्रणाली के बावजूद, इंसानों की मुक्ति की चाहत भारी पड़ रही है।
ज़ाहिर है कि दुनिया भर के साम्राज्यवादी देशों, विशेषकर पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने इज़रायल पर हमले को “आतंकी हमला” बताकर उसकी निन्दा की है और इज़रायल के साथ एकजुटता ज़ाहिर की है। साथ ही, दुनिया भर के धुर दक्षिणपन्थी व फ़ासीवादी सत्ताधारियों ने भी इज़रायल के ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के साथ एकजुटता जतायी है, मसलन, भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने। भारत का ऐसा स्टैण्ड भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही हुआ है क्योंकि ज़ायनवादी नस्लवादियों की भारत के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के साथ नैसर्गिक एकता बनती है। इससे पहले इन्दिरा गाँधी के दौर तक भारत ने कम-से-कम औपचारिक तौर पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति के लक्ष्य का समर्थन किया था और इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर औपनिवेशिक कब्ज़े को ग़लत माना था। 1970 के दशक से प्रमुख अरब देशों का फ़िलिस्तीन के मसले पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ समझौतापरस्त रुख़ अपनाने के साथ भारतीय शासक वर्ग का रवैया भी इस मसले पर ढीला होता गया और वह “शान्ति” की अपीलों में ज़्यादा तब्दील होने लगा, हालाँकि कोई भी तार्किक व्यक्ति जानता है कि औपनिवेशिक कब्ज़ा करने वाली ताक़त के साथ, जनसंहार करने वाली शक्तियों के साथ शान्ति कैसे हो सकती है? क्या आप ब्रिटिश उपनिवेशिवादियों के विरुद्ध भारतीय जनता के मुक्ति की लड़ाई के जवाब में शान्ति की अपीलें कर सकते थे? क्या आप तमाम भारतीय क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध हिंसक तौर-तरीकों के इस्तेमाल के आधार पर उनको ‘लश्कर-ए-तैयबा’ या ‘अभिनव भारत’ जैसा आतंकवादी कह सकते थे? फिर तो भगतसिंह , सुखदेव, राजगुरू, चन्द्रशेखर आज़ाद सभी आतंकी हो जाएँगे!
ज़ाहिर है, जो फ़िलिस्तीन और इज़रायल का इतिहास नहीं जानते उन्हें यह बात अजीब लग सकती है क्योंकि बचपन से पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया ने उनके दिमाग़ में इज़रायलियों को पीड़ितों और फलस्तीनियों को आतंकवादी के रूप में पेश किया है। वजह यह है कि मध्य-पूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद के हितों की रखवाली करने के लिए 1948 में इज़रायल के राज्य की स्थापना की गयी थी। बायो-ईंधन आज भी साम्राज्यवाद के लिए सर्वाधिक रणनीतिक माल है और उसका भण्डार मध्य-पूर्व है। बीसवीं सदी के मध्य और उसके ठीक बाद के दौर में मध्य-पूर्व में राजनीतिक तौर पर स्वतन्त्र सत्ताओं के अस्तित्व में आने के साथ तेल के अकूत भण्डार पर नियन्त्रण और मध्य-पूर्व के देशों पर आम तौर पर राजनीतिक नियन्त्रण का सवाल अमेरिका, ब्रिटेन और गौण रूप में फ्रांस व अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए अहम सवाल बन गया था। इस बात को ब्रिटेन के साम्राज्यवादी बीसवीं सदी के शुरुआत से ही समझ रहे थे कि यहूदियों के लिए एक अलग राज्य के निर्माण के नाम पर मध्य-पूर्व में एक कृत्रिम राज्य को बनाना, उसके ज़रिये फ़िलिस्तीन का औपनिवेशीकरण कर फलस्तीनियों को अपने ही देश से दर-बदर करना और इज़रायल के इस राज्य को मध्य-पूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद के लठैत के तौर पर बिठाना उसके लिए भावी रूप में फ़ायदेमन्द होगा। 1917 में फ़िलिस्तीन ओटोमान साम्राज्य का अंग था। उस समय ब्रिटेन के साम्राज्यवादियों ने एक बालफोर घोषणा जारी कर फ़िलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव पेश किया। इसकी माँग यूरोप में यहूदी नस्लवादी धारा के तौर पर उभर चुके ज़ायनवादी पहले से ही कर रहे थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद को ज़ायनवाद के रूप में अपना एक उपयोगी उपकरण नज़र आ रहा था। 1516 से फ़िलिस्तीन का क्षेत्र ओटोमॉन साम्राज्य का अंग था। प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्क ऑटोमॉन साम्राज्य धुरी शक्तियों के साथ शामिल था। उसकी पराजय सुनिश्चित थी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी तभी से फ़िलिस्तीन के ऐसे भविष्य के बारे में सोचने लगे थे जो उनके लिए फ़ायदेमन्द हो।
इससे ठीक पहले के दौर में, यानी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में रूस में यहूदियों के विरुद्ध भयंकर जातीय हिंसा की घटनाएँ हुईं जिसमें सैंकड़ों यहूदी मारे गये। ऐसी ही घटनाएँ पूर्वी यूरोप में और कुछ हद तक पश्चिमी यूरोप में भी हो रही थीं। इसका सबसे प्रभावी जवाब कम्युनिस्ट दे रहे थे और यहूदी विरोधवाद (एण्टी सेमिटिज़्म) के ख़िलाफ़ वर्गीय ज़मीन से संघर्ष करते हुए जनएकजुटता बनाने का संघर्ष कर रहे थे। यही वजह थी कि पूरे यूरोपीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में कई शीर्ष नेता यहूदी समुदाय से आये थे। लेकिन यहूदी विरोधी हिंसा का एक प्रतिक्रियावादी जवाब यहूदी बुर्जुआ वर्ग के भीतर से भी पैदा हुआ था, जिसके बौद्धिक नेताओं में लियॉन पिंस्कर व थियोडोर हर्जल जैसे लोग थे। इन्होंने एक यहूदी राज्य बनाने का सिद्धान्त दिया और यहूदी समुदाय को एक धार्मिक समुदाय मानने के बजाय उन्हें एक राष्ट्र के रूप में पेश किया। निश्चय ही, यहूदी समुदाय कई देशों में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक के रूप में मौजूद था, लेकिन दुनिया के पैमाने पर यहूदी समुदाय किसी एक राष्ट्र को संघटित नहीं करता था। ज़ायनवाद एक साम्प्रदायिक नस्लवादी अन्धराष्ट्रवाद था, जिसका प्रचार हर्ज़ल जैसे ज़ायनवादी कर रहे थे। ये ज़ायनवादी शुरू से ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ गठजोड़ बनाये हुए थे और एक अलग नस्लवादी साम्प्रदायिक यहूदी राष्ट्र बनाने की परियोजना में उनकी मदद माँग रहे थे। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अलग-अलग मौकों पर कई जगहों पर ऐसे राज्य के निर्माण का प्रस्ताव रखा जैसे कि युगाण्डा व उरुगुवाय में। लेकिन ज़ायनवादियों ने फ़िलिस्तीन के मूल प्रस्ताव पर ज़ोर दिया और ज़ायनवादी यहूदी बैंकरों, पूँजीपतियों व धनाढ्यों के, (जिनका पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में पर्याप्त आर्थिक व राजनीतिक असर था), जैसे कि रॉथ्सचाइल्ड परिवार जिसकी शाखाएँ कई यूरोपीय देशों में सर्वाधिक धनी पूँजीपतियों में से एक हैं, समर्थन से फ़िलिस्तीन के प्रस्ताव को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपनाया। इसके अलावा, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ऑटोमॉन साम्राज्य के नियन्त्रण के समाप्त होने के बाद इस समूचे क्षेत्र पर पश्चिमी साम्राज्यवाद की पकड़ बनाये रखने के लिए भी फ़िलिस्तीन पर औपनिवेशिक कब्ज़ा कर इज़रायल के राज्य के निर्माण की योजना ब्रिटिश व औम तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों को बेहतर लगी। इसकी शुरुआत मैण्डेटरी फ़िलिस्तीन के साथ कर दी गयी और उसी समय से यहूदी सेटलर उपनिवेशवादियों को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने आतंकी तौर-तरीकों से फ़िलिस्तीन में बसाना शुरू किया और फ़िलिस्तीन के उपनिवेशीकरण की परियोजना को लगातार आगे बढ़ाया, जिसकी तार्किक परिणति 1948 में इज़रायल के राज्य के औपचारिक जन्म के साथ हुई। इस बीच ज़ायनवादी आतंकी गिरोहों के ज़रिये फलस्तीनियों का बड़े पैमाने पर कत्ले-आम और विस्थापन किया गया। इस राज्य के बदले में ज़ायनवादी नस्लवादी साम्राज्यवादियों को पश्चिमी साम्राज्यवाद के हितों की मध्य-पूर्व में देख-रेख करनी थी। और आज तक इज़रायल वही करता आया है। यही तो वजह है कि सारे अन्तरराष्ट्रीय कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए वेस्ट बैंक व बाकी फ़िलिस्तीन में ग़ैर-कानूनी यहूदी बस्तियाँ बसाने और गाज़ा व बाकी फ़िलिस्तीन में फ़िलिस्तीनी जनता व राष्ट्र का बार-बार नरसंहार करने के बावजूद पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियाँ “इज़रायल के आत्मरक्षा” के अधिकार की बकवास करती हैं, जबकि सच यह है कि रोज़-रोज़ जारी इज़रायली जनसंहार के विरोध में यह फलस्तीनियों की आत्मरक्षा है।
अधिकांश अरब देशों की पूँजीवादी सत्ताएँ अपने हितों के मद्देनज़र 1970 के दशक से ही फ़िलिस्तीनी जनता के साथ ऐतिहासिक ग़द्दारी शुरू कर चुकी हैं। मिस्र में अनवर सादत के साथ यह दौर शुरू हुआ था। फ़िलिस्तीन के भीतर यासर अराफ़ात के पेलेस्टीनियन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन ने एक शानदार सेक्युलर प्रतिरोध युद्ध लड़ा था जिसमें फ़िलिस्तीनी मुसलमान, यहूदी व ईसाई तीनों ही शामिल थे। लेकिन 1990 के दशक में यासर अराफ़ात ने भी समझौतापरस्त रुख़ अपना लिया। अक्सर रैडिकल बुर्जुआ राष्ट्रवादी प्रतिरोध युद्धों के नेतृत्व के साथ ऐसा होता रहा है। लेकिन फ़िलिस्तीनी जनता ने इन निराशाजनक घटनाओं के बावजूद अपना प्रतिरोध युद्ध कभी बन्द नहीं किया। तमाम उतार-चढ़ावों से गुज़रता हुआ वह जारी रहा है। जब कोई और नेतृत्व मौजूद नहीं होता, तो जनता उसके साथ खड़ी होती है, जो लड़ रहा होता है। विचारधारात्मक तौर पर हमास एक इस्लामिक संगठन ही है। इसमें कोई शक़ नहीं है। उसका मूल ही मुस्लिम ब्रदरहुड नामक इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन है। उसने हालिया वर्षों में अपने रुख़ में कुछ बदलाव ज़रूर किया है, लेकिन उसका विचारधारात्मक चरित्र निश्चय ही सेक्युलर नहीं बल्कि इस्लामिक ही है। लेकिन फ़िलिस्तीनी जनता आज उसके साथ ही खड़ी हो सकती है, जो इज़रायली ज़ायनवादियों के विरुद्ध वाकई लड़ रहा है। फ़िलिस्तीनी राजनीति का दूसरा छोर फतह (यासर अराफ़ात द्वारा स्थापित संगठन) जो कि विचारधारा से सेक्युलर है, और फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन (जिसमें कई फ़िलिस्तीनी ग्रुप शामिल रहे थे, लेकिन फतह जिसमें सबसे प्रमुख स्थान रखता है) ओस्लो समझौते के बाद से संघर्ष का रास्ता, मूलत: और मुख्यत:, छोड़ चुके हैं। वास्तव में, इस समझौतापरस्ती की अति-प्रतिक्रिया के तौर पर ही हमास का उद्भव और विकास हुआ (जिसे शुरुआत में खुद इज़रायल ने पाला-पोसा था) और उसके द्वारा सशस्त्र संघर्ष को जारी रखने की वजह से ही आज 80 फ़ीसदी से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी हमास के संघर्ष को सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं।
जब हम फ़िलिस्तीन के जारी मुक्ति संघर्ष का समर्थन करते हैं तो हम कतई हमास का विचारधारात्मक तौर पर समर्थन नहीं करते, बल्कि फ़िलिस्तीनी जनता द्वारा इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारों और उनके औपनिवेशिक कब्ज़े के विरुद्ध जारी संघर्ष का समर्थन करते हैं। जनता के पास राजनीतिक व सैन्य नेतृत्व देने के लिए जो विकल्प मौजूद है, वह उसका सशर्त समर्थन करती है। जो लड़ रहा है और लड़ने को तैयार है, उत्पीड़ित जनता उसका समर्थन करती है, चाहे विचारधारात्मक तौर पर वह उससे सहमत हो या नहीं। ग़ौरतलब है कि बीच में हमास ने गाज़ा में स्त्रियों पर पोशाक सम्बन्धी कई इस्लामिक नियम थोपने का प्रयास किया था, जिसे गाज़ा की औरतों ने पुरज़ोर तौर पर नकार दिया था और हमास की सरकार को खुले तौर पर कहना पड़ा था कि यह उसकी नीति नहीं है और कुछ लोगों द्वारा की गयी अनधिकृत कार्रवाई है और हमास का यह मानना है कि इन नियमों को मनवाने के लिए वह सहमत करने की नीति को मानता है न कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती की नीति को। वजह यह है कि ऐतिहासिक तौर पर फ़िलिस्तीनी जनता समूचे अरब में सर्वाधिक आधुनिक व प्रगतिशील चरित्र रखने वाली जनता रही है। उस पर इस प्रकार के फतवे थोपना बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि हमास ने बाद में मुस्लिम ब्रदरहुड का एक अध्याय होने की बात को 2017 में नकार दिया, जो कि उसके मूल दस्तावेज़ का हिस्सा था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि फ़िलिस्तीनी जनता की ऐतिहासिक प्रकृति और फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के कई वर्षों के अनुभवों के कारण हमास को भी अपने अन्दर कई विचारधारात्मक बदलाव करने पड़े हैं। लेकिन इन सबके बावजूद वह एक इस्लामिक संगठन ही है और क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग उसका विचारधारात्मक विरोध करता है।
लेकिन क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग हर सूरत में फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष का समर्थन करता है। यह त्रासद है कि आज इस मुक्ति संघर्ष का वह नेतृत्व जो वाकई लड़ रहा है और लड़ने को तैयार है और इसी वजह से वह फ़िलिस्तीनी जनता के बहुलांश का राजनीतिक व सैन्य नेतृत्व बन रहा है, वह कोई सेक्युलर या क्रान्तिकारी संगठन नहीं है। लेकिन यह फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष का समर्थन न करने का आधार नहीं हो सकता है। उनकी राष्ट्रीय मुक्ति उनका अधिकार है। अपना नेतृत्व चुनना भी उनका अधिकार है। किस प्रकार का राज्य मुक्ति के उपरान्त स्थापित करना है, यह भी उनका अपना मसला है। हम उसकी विचारधारात्मक आलोचनात्मक विवेचना ज़रूर कर सकते हैं, लेकिन अपनी कौमी आज़ादी के उनके हक़ और उस हक़ के लिए उनकी लड़ाई का निश्चय ही हम समर्थन करेंगे। वास्तव में, फ़िलिस्तीनी जनता में इस्लामी कट्टरपन्थ को 1980 के दशक में फैलाने और स्थापित करने का काम ख़ुद इज़रायल और अमेरिका ने किया था और हमेशा की ही तरह यह उनके लिए भस्मासुर साबित हो रहा है। 1980 के दशक में गाज़ा में इज़रायली सैन्य गर्वनर के रूप में तैनात ब्रिगेडियर जनरल यित्झाक सेगेव ने और उसके जैसे तमाम ज़ायनवादियों ने लम्बे समय से बताया है कि किस तरह से फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियों और सेक्युलर फतह की धारा को किनारे लगाने के लिए कुछ फ़िलिस्तीनी इस्लामी कट्टरपंथियों को, जो मुस्लिम ब्रदरहुड से रिश्ता रखते थे, खुद इज़रायलियों ने वित्तीय, सैन्य व राजनीतिक मदद दी ताकि वे एक इस्लामी कट्टरपंथी संगठन खड़ा करके फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष में कम्युनिस्ट व सेक्युलर प्रभाव को ख़त्म करें और समूचे मुक्ति संघर्ष को ही भ्रष्ट कर दें। उस समय ख़ुद यासर अराफ़ात ने हमास को इज़रायल द्वारा पैसा किया गया जन्तु बताया था।
लेकिन जब खुद सेक्युलर धारा का पतन हुआ और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी धारा अपने वर्चस्व को मुक्ति संघर्ष में स्थापित नहीं कर पायी, तो हमास 1980 के दशक से फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध के नेतृत्व में आने लगा, विशेष तौर पर गाज़ा में। 2000 के दशक तक आते-आते उसने गाज़ा से फतह को बाहर कर दिया था, वहाँ चुनाव जीते, सरकार बनायी और स्वयं वेस्ट बैंक में उसका प्रभाव तबसे बढ़ता रहा है क्योंकि फ़तह पूरी तरह से इज़रायल के दलाल और टट्टू में तब्दील हो गया है। ऐसे में, क्या जनता लड़ना छोड़ देगी? क्या वह रोज़-रोज़ इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारों द्वारा अपने बच्चों, बूढ़ों, जवानों और औरतों के कत्ल पर चुप्पी साध लेगी? क्या वह चुपचाप इज़रायली नस्लभेद की भयंकर अपमानजनक नीति को स्वीकार कर लेगी? कोई जनता ऐसा नहीं कर सकती। फलस्तीनियों ने भी हमेशा घुटनों पर रेंगते हुए जीने के बजाय खड़े होकर लड़ने और मरने का रास्ता चुना है। उन्होंने हमेशा इज़रायलियों को याद दिलाया है कि जब तक फ़िलिस्तीन की मुक्ति नहीं हो जाती तब तक अपनी समूची सैन्य शक्तिमत्ता के बावजूद वे कभी चैन से नहीं जी सकते। जब तक न्याय नहीं होगा, तब तक कोई शान्ति भी नहीं हो सकती। जनता जब तक जीत नहीं जाती, तब तक वह हार भी नहीं मानती है, चाहे उसके संघर्ष की प्रक्रिया लाख ज्वार-भाटे से गुज़रे। पिछले 80 वर्षों से ज़ायनवादी उपनिवेशवाद, आतंकवाद, हत्याकाण्डों, जनसंहारों और फ़िलिस्तीनी विस्थापन के विरुद्ध फ़िलिस्तीनी जनता का संघर्ष इस सच्चाई का ही सबूत पेश करता है।
7 अक्टूबर को गाज़ा से इज़रायल पर हुए अभूतपूर्व हमले को हम फ़िलिस्तीनी जनता के आत्मरक्षा का संघर्ष मानते हैं। बन्दी बनाये गये इज़रायली युद्धबन्दी हैं और मारे गये इज़रायली युद्ध में मारे गये इज़रायली हैं, किसी आतंकी हमले में नहीं, चाहे इस संघर्ष के नेतृत्व में आज कोई भी ताक़त हो। इज़रायल को “आत्मरक्षा” का उतना ही अधिकार है जितना इतालवी फ़ासीवादियों को इतालवी क्रान्तिकारी जनसंघर्ष के खिलाफ था, जर्मन नात्सियों को जर्मनी में जारी जन प्रतिरोध से था, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भारतीय क्रान्तिकारी धारा के प्रति था। उपनिवेशवादियों, हत्यारों, चोरों, लुटेरों और पश्चिमी साम्राज्यवाद की लठैती करने वाले और नियमित तौर पर फ़िलिस्तीनी जनता का कत्ले-आम करने वाले इज़रायल के “आत्मरक्षा के अधिकार” की बात दुनिया भर के साम्राज्यवादी लुटेरे, अपराधी और हत्यारे ही कर सकते हैं या फिर धुर दक्षिणपंथी और फ़ासीवादी कर सकते हैं। गाज़ा को पूरी दुनिया के न्यायप्रिय लोग दुनिया की सबसे बड़ी जेल मानते हैं और वह यही है। अरब विश्व के पतित बुर्जुआ शासकों की मदद से इज़रायल गाज़ा की जनता को एक लम्बी और धीमी मौत मारना चाहता है और इसी वजह से उसका पूर्ण ब्लॉकेड करके उसे एक जेल में तब्दील करके रखा हुआ है। 7 अक्टूबर को जो हुआ वह एक ‘प्रिज़न ब्रेक’ है, जिसमें गाज़ा के कैदियों ने इज़रायल द्वारा खड़ी दीवारों और बाड़ेबन्दियों को तोड़कर उन पर हमला किया है। यह समूचे अरब विश्व के शासकों को भी एक सन्देश है कि उनकी समझौतापरस्ती ही उनके अन्त का कारण बनेगी। समूचे अरब विश्व में इस समय जनता फलस्तीनियों के इस संघर्ष के समर्थन में सड़कों पर उतर रही है। वहाँ के शासकों को भी मजबूर होकर कहना पड़ा है कि मौजूदा घटनाक्रम के लिए इज़रायली उपनिवेशवादी ही ज़िम्मेदार हैं। ऐसे बयान न दें, तो उनके घर में ख़ुद ही बग़ावत जैसा माहौल पैदा हो जायेगा।
साम्राज्यवादी मीडिया और भारत के गोदी मीडिया पर भरोसा न करें। वे आपको कभी फ़िलिस्तीन की सच्चाई नहीं बतायेंगे। इतिहास पढ़ें। तभी आप जान पाएँगे कि फ़िलिस्तीन जैसा अन्याय आधुनिक दुनिया के इतिहास में किसी कौम के साथ नहीं हुआ है। इतना दर्द, इतनी तकलीफ़, इतनी मौतें और शहादतें किसी कौम ने नहीं झेली हैं। बच्चों के सबसे भारी ताबूत इतनी संख्या में किसी कौम ने नहीं उठाये हैं। तकलीफ़ की एक ऐसी सरहद होती है जहाँ मौत का डर ख़त्म हो जाता है। समूची फ़िलिस्तीनी कौम दशकों से उस सरहद पर जी रही है। इसलिए उसे कोई हरा नहीं सकता, उसे कोई कुचल नहीं सकता। इज़रायली ज़ायनवादी और अमेरिका-नीत पश्चिमी साम्राज्यवाद कभी चैन से नहीं बैठ सकते। फ़िलिस्तीन की मुक्ति और फ़िलिस्तीन के एक सेक्युलर राज्य का निर्माण ही वह समाधान है, जो इस खून-ख़राबे को ख़त्म कर सकता है। अन्याय के साथ शान्ति की वकालत या तो साम्राज्यवादी करते हैं या मूर्ख लोग जो साम्राज्यवादियों के प्रचार के बहकावे में आ जाते हैं। निश्चय ही, जनता हमेशा शान्ति ही चाहती है और अगर वह युद्ध करती है, तो वह हमेशा आत्मरक्षा और अधिकारों के लिए ही किया जाता है।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष का समर्थन करती है, इज़रायली ज़ायनवादी राज्य को एक सेटलर उपनिवेशवादी राज्य मानती है और एक सेक्युलर फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना का समर्थन करती है जहाँ अरब मुसलमान, यहूदी, ईसाई व अन्य समुदाय के लोग रह सकें। वह इज़रायल के अपॉर्थाइड राज्य का पुरज़ोर विरोध करती है, मोदी सरकार द्वारा भारतीय विदेश नीति को ज़ायनवादी साम्राज्यवाद के पक्ष में खड़ा करने का विरोध करती है और माँग करती है कि फ़िलिस्तीनी जनता की कौमी आज़ादी के समर्थन की नीति को अपनाया जाय और हर रूप में ज़ायनवादियों का विरोध और बहिष्कार किया जाय।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2023
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