ईरान पर इज़रायली-अमेरिकी हमला और मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी युद्ध का विस्तार
साम्राज्यवाद आज भी एक काग़ज़ी बाघ है!
युद्ध, नरसंहार और विनाश के अलावा साम्राज्यवाद मानवता को कुछ और नहीं दे सकता!
मानवता को बचाने की एकमात्र शर्त पूँजीवाद-साम्राज्यवाद का नाश है!

सम्पादकीय अग्रलेख

पिछले 20 महीने से गाज़ा में फ़िलिस्तीनी अवाम और बच्चों का नरसंहार जारी रखने के बाद गत 13 जून को ज़ायनवादी इज़रायल ने बिना किसी उकसावे के एकतरफ़ा तरीक़े से ईरान पर हमला बोला दिया। अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों और ईरान की राष्ट्रीय सम्प्रभुता की धज्जियाँ उड़ाते हुए मध्य-पूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद के लठैत इज़राइल ने ईरान पर एकतरफ़ा हवाई हमले करके मध्य-पूर्व में जारी साम्राज्यवादी युद्ध को नया विस्तार दिया। इसके कुछ दिनों बाद 22 जून को अमरीका भी प्रत्यक्ष तौर पर इस युद्ध में शामिल हो गया और उसने तीन ईरानी नाभिकीय ठिकानों पर हवाई हमले किये। हालाँकि अमेरिका द्वारा किये गये यह हमले प्रतीकात्मक ज़्यादा थे जिसके कारण अमेरिका की आंतरिक घरेलू राजनीति में निहित हैं। लेकिन इतना तय है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने वर्चस्व के लगातार होते ह्रास से सकपकाया हुआ है और इसलिए मध्यपूर्व में उसका भाड़े का मुख़्तार ज़ायनवादी इज़राइल एक के बाद एक आक्रामक विस्तारवादी मंसूबों को अंजाम दे रहा है। ईरान द्वारा इज़रायल और फिर मध्य-पूर्व में मौजूद अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर हमले के कारण अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके भाड़े के लठैत इज़रायल को क़दम पीछे हटाने पड़े हैं। यह मध्य-पूर्व में बदलते समय के संकेत हैं। यह अमेरिकी साम्राज्यवाद की एक शर्मनाक हार थी। अपनी तमाम सैन्य शक्तिमत्ता के बावजूद ईरान के लड़ाकू रवैये के सामने अमेरिकी साम्रज्यवाद को क़दम पीछे हटाने पर मजबूर होना पड़ा। बताने की ज़रूरत नहीं है कि इसके पीछे रूस-चीन साम्राज्यवादी धुरी का समर्थन भी है। अमेरिकी साम्राज्यवाद यूक्रेन में मुँह की खाने के बाद इस नयी उभरती साम्राज्यवादी धुरी से एक और छाया-युद्ध में उलझना नहीं चाहता है, क्योंकि एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का प्रमुख सामाजिक आधार किसी भी नये युद्ध में अमेरिका की भागीदारी नहीं चाहता है और वहीं दूसरी ओर आंग्ल-अमेरिकी साम्राज्यवादी धुरी तथा यूरोपीय संघ के साथ उसके संश्रय की आन्तरिक एकता भी इज़रायली नरसंहार के प्रश्न पर संकटग्रस्त है। कुल मिलाकर, फ़िलिस्तीन के प्रश्न ने आन्तरिक साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा को एक नये सिरे पर पहुँचाकर विश्व साम्राज्यवाद के राजनीतिक और साथ ही आर्थिक संकट को एक नये मुक़ाम पर पहुँचा दिया है और ऊपरी सैन्य ताक़त के बावजूद इसके दूरगामी तौर पर कमज़ोर चरित्र को दिखला दिया है। दुनिया की जनता का बहुलांश आज अमेरिकी साम्राज्यवादी धुरी के विरुद्ध खड़ा है और ठीक इसी वजह से उसकी शक्ति का ह्रास पिछले दिनों पहले से ज़्यादा तीव्र हो गया है।

आज भारत समेत दुनिया भर की मेहनतकश अवाम को समझना होगा कि साम्राज्यवाद मानवता को सिवाय युद्ध, तबाही और नरसंहार के कुछ भी नहीं दे सकता है। पूँजीवाद नाम की यह बूढ़ी मुर्गी, अपनी मरणासन्न अवस्था यानी साम्राज्यवाद के दौर में, दुनिया को जंग, क़त्लेआम, पर्यावरणीय विनाश और तबाही-बर्बादी जैसे सड़े हुए अण्डे ही दे सकती है। इसका एक-एक दिन इंसानियत के वजूद के लिए ख़तरा है। पश्चिमी साम्राज्यवादी चौधरियों और उनके ज़ायनवादी लठैत इज़राइल द्वारा मध्य-पूर्व में पिछले डेढ़ साल से जारी फ़िलिस्तीनीयों का नरसंहार इसी बात का सबूत है।     

इज़राइल द्वारा ईरान पर हमला और फिर ईरान की मुँहतोड़ जवाबी कार्रवाई मध्य-पूर्व को और यहाँ तक कि दुनिया को एक बड़े युद्ध की दहलीज़ तक लेकर गयी। ईरान पर अमेरिकी प्रतीकात्मक हमले के बाद अचानक अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा युद्धविराम की घोषणा कर दी गयी। इतना तय है कि इज़राइल अपने बूते और बिना अमेरिकी प्रत्यक्ष सहायता के वैसे भी इस सैन्य अभियान में ज़्यादा दिन नहीं टिक पाता। हालाँकि  शुरुआत में इज़राइल द्वारा हमले के फौरन बाद अमेरिका के विदेश मन्त्री मार्को रूबियो ने ईरान पर हुए इन हमलों में अमेरिका का हाथ होने से इन्कार किया है। लेकिन इस दावे पर कोई भरोसा नहीं कर सकता है क्योंकि यह एक ख़ुला रहस्य है कि इज़रायल इतना बड़ा हमला अमेरिका की मंज़ूरी और उसकी मदद के बग़ैर नहीं कर सकता। सच तो यह है कि इज़राइल अमेरिका के वित्तीय, सैन्य और राजनीतिक समर्थन के बिना एक दिन भी मध्य-पूर्व में अस्तित्व में नहीं सकता है। इज़राइल दुनिया में सबसे अधिक अमेरिकी सहायता पाने वाला राज्य है। द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर अब तक इज़राइल ने मध्यपूर्व में अमेरिका के लिए लठैती करने की एवज़ में 158 बिलियन डॉलर की कुल सहायता प्राप्त की है। वर्तमान में इज़राइल को सैन्य सहायता के तौर पर अमेरिका से 3.8 बिल्यन डॉलर प्रति वर्ष प्राप्त होते हैं, जोकि इज़राइल के कुल सैन्य बजट का 16 प्रतिशत है।

इज़राइल ने ईरान पर हमले के पीछे का कारण अपनी आत्म-रक्षा बताया था। यह वही “आत्म-रक्षा’ है जो ज़ायनवादी इज़राइल पिछले 20 महीने से फिलिस्तीनी बच्चों का कत्लेआम करके कर रहा है! हमले के बाद इज़राइल ने ‘भेड़िया आया! भेड़िया आया!’ का फ़र्ज़ी शोर मचाते हुए दावा किया कि ईरान अपनी नाभिकीय शक्ति बढ़ा रहा है और नाभिकीय हथियारों का परीक्षण कर रहा है। जबकि सच्चाई कुछ और ही है। ये हमले ठीक उस समय हुए जब अमेरिका और ईरान के बीच ओमान व रोम में नाभिकीय समझौते को लेकर वार्ता चल रही थी। इज़राइल ने ईरान पर हमले में वार्ता के मुख्य ईरानी मध्यस्थ की भी हत्या कर दी। ग़ौरतलब है कि अमेरिका-ईरान की बातचीत का अगला चरण 15 जून को तय था और ईरान पर इज़रायली हमले के बाद यह नाभिकीय समझौता भी खटाई में पड़ गया।

जैसा कि हमने उल्लेख किया कि ईरान पर किये गये हमले के पीछे इज़रायल ने वजह बतायी कि ईरान नाभिकीय हथियार बनाने की दहलीज़ पर हैं, लेकिन  उसने अपने इस दावे के पीछे कोई प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं समझी। विडम्बना यह है कि इज़रायल स्वयं नाभिकीय हथियारों से लैस मध्य-पूर्व का एकमात्र राज्य है! इज़रायल के इस हास्यास्पद दावे से अचानक ही इराक़ युद्ध की याद आ जाती है। उस समय भी इराक़ पर अमेरिकी साम्राज्यवादी हमले के पीछे यह दावा किया गया था कि इराक़ के पास बड़े पैमाने पर तबाही मचाने वाले हथियार हैं। इसी प्रकार अमेरिकी साम्राज्यवाद ने “लोकतन्त्र का निर्यात करने” के  नाम पर अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया था। इतिहास गवाह है कि ये सभी दावे बिल्कुल झूठे थे। आज भी ईरान पर किये गये हमले के पीछे जो तर्क दिये जा रहे हैं उनका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है। वैसे भी किसी देश को महज़ इस आधार पर किसी दूसरे देश पर हमले करने का कोई हक़ नहीं है कि दूसरा देश कोई ख़ास प्रकार के हथियार बना रहा है। इज़राइल द्वारा किया गया हमला किसी भी रूप में आत्मरक्षा की कार्रवाई नहीं है बल्कि इज़राइल समूचे मध्य-पूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रहरी की भूमिका निभा रहा है। इसके अलावा इज़राइली हमले का मक़सद एक अमेरिका-परस्त ईरानी शासक को सत्ता में बिठाना था जिसे नेतन्याहू बार-बार दुहरा भी रहा था। 

इन हमलों में ईरान के कई शीर्ष सैन्य अधिकारियों और नाभिकीय वैज्ञानिकों की जानें गयी। साथ ही सैकड़ों आम नागरिकों की जानें गयीं। 16 जून को इज़रायल ने ईरान के सरकारी टेलीविज़न स्टेशन पर भी हमला किया। ईरान ने भी इन हमलों को चुपचाप सहने की बजाय जवाबी कार्रवाई में इज़रायल पर मिसाइलों और ड्रोनों से हमला किया है जिनमें दर्जनों इज़रायली मारे गये। ख़बरों के मुताबिक़ इज़रायल ने ईरान के नाभिकीय संस्थानों पर भी हमला किया है जिसके भीषण दुष्परिणाम हो सकते हैं। लेकिन इज़रायल पर हुए हमले उसके लिए प्राणान्तक साबित हो सकते थे क्योंकि इज़रायल कोई देश या राष्ट्र नहीं है, बल्कि एक सेटलर औपनिवेशिक परियोजना है। यही वजह थी कि जब ईरानी मिसाइलों ने अमेरिकी साम्रज्यवादी के इस लठैत के कब्ज़े में मौजूद इलाकों में भारी तबाही मचानी शुरू की तो एक ओर इज़रायली हज़ारों की संख्या में अपने घरों को, यानी यूरोपीय देशों को भागने लगे, वहीं सेना के तमाम हिस्सों में बग़ावत जैसे हालात पैदा हो गये। कुछ शहरों में तो इज़रायली सेटलरों ने सड़कों पर उतरकर विरोध किया और ईरान के सामने सफ़ेद झण्डा फैला दिया। ईरान तमाम नुक़्सान झेलकर भी टिक सकता है, क्योंकि वहाँ की जनता अपने शासक वर्ग से तमाम गम्भीर अन्तरविरोधों के बावजूद देश पर ज़ायनवादी और साम्राज्यवादी हमलों की सूरत में देश की आज़ादी के लिए लड़ने को और मरने को तैयार है। इसलिए इज़रायल और ह्रासमान अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए हार तय थी।

इज़रायल शुरू से अमेरिका को भी इस युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से घसीटना चाह रहा था। हालाँकि शुरुआत में अमेरिका ने इस युद्ध में प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं की है और जब की भी तो महज़ प्रतीकात्मक तौर भी की। वजह यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के इस बार चुनाव जीतने का एक बड़ा कारण यह प्रचार था कि ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका अब बेकार की युद्ध कार्यवाइयों में नहीं उलझेगा जैसा कि पूर्व डेमोक्रैट राष्ट्रपतियों के कार्यकालों में होता रहा है। ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का वोटर आधार इसी वजह से ट्रम्प को विजयी बनाने में कामयाब हो पाया था। इसके अलावा अमेरिकी पूँजीपति वर्ग का एक विचारणीय हिस्सा भी फिलहाल कोई बड़ा युद्ध अभियान नहीं चाहता था जिसकी वजह अमेरिकी अर्थव्यवस्था का गहराता आर्थिक संकट है। हालाँकि अमेरिका के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से इस युद्ध में शामिल न हो पाने की स्थिति में भी इज़राइल को सैन्य, वित्तीय और खुफ़ियामदद के ज़रिये पहले से ही अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी की जा रही थी। आगे अमेरिका ने इज़्ज़्त बचाने के प्रयास में ईरान के तीन आणविक ठिकानों पर प्रतीकात्मक हमला किया जिससे कोई विशेष नुक़्सान नहीं हुआ और साथ में अमेरिका की इज़्ज़त भी बचने के बजाय, जो बची-खुची थी वह भी जाती रही।

ज़ायनवादी इज़रायल ने ईरान पर हमला एक ऐसे समय किया है जब गाज़ा में पिछले 20 महीने के जारी नरसंहारक युद्ध में बच्चों और महिलाओं समेत 60 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं और गाज़ा में भुखमरी और अभूतपूर्व मानवीय संकट की ख़बरें पूरी दुनिया में फैल रही हैं जिनकी वजह से इज़रायल के आतंकी चरित्र के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पता चल रहा है। पिछले 20 महीनों में इज़रायल ने गाज़ा में हमास, लेबनान में हिज़बुल्लाह, यमन में हूथी विद्रोहियों पर हमलों के अलावा सीरिया व ईरान पर हमले किये हैं। इन हमलों के बावजूद वह फ़िलिस्तीनी जनता के प्रतिरोध को नेस्तनाबूद करने के अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सका है। हालाँकि इज़रायल हमास और हिज़बुल्लाह के शीर्ष नेतृत्व को ख़त्म करने में कामयाब हुआ है लेकिन वह इन संगठनों के वजूद को समाप्त करने से कोसों दूर है जिसकी वजह से वह बौखलाया हुआ है। ईरान पर किया गया हमला उसकी इसी बौखलाहट की निशानी भी है। इतना स्पष्ट है कि ईरान पर हमले का उसके नाभिकीय कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं था। यह दरअसल मध्यपूर्व में अमेरिकी सामराज्यवाद के गिरते वर्चस्व की प्रतिक्रिया में उठाया गया एक और क़दम है।

अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि विश्वपटल पर अमेरिकी साम्राज्यवाद अपनी ढलान पर काफ़ी आगे निकल चुका है। साम्राज्यवादी विश्व में अमेरिकी वर्चस्व का ह्रास ही अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। यह ह्रास मोटे तौर पर पिछले पाँच दशकों से जारी है, लेकिन पिछले डेढ़ दशकों में यह अभूतपूर्व तेज़ी से बढ़ा है। अमेरिकी पूँजीवाद का संकट लगातार गहराता जा रहा है। नये-नये युद्धों का सामने आना संकटग्रस्त साम्राज्यवादी व्यवस्था के अन्तरविरोधों के गहराने की ही निशानी है। जहाँ एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवाद अपनी ढलान पर है वहीं दूसरी ओर पिछले कुछ दशकों के दौरान चीन और रूस के नेतृत्व में साम्राज्यवाद की दूसरी धुरी स्पष्ट रूप से सामने आयी है। एक ओर अफ़गानिस्तान में अमेरिका की हार और दूसरी ओर पहले सीरिया और फिर यूक्रेन में अमेरिकी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को रूस द्वारा निष्प्रभावी बनाया जाना, इस साम्राज्यवादी धुरी के उभार की स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। कच्चे माल, प्राकृतिक संसाधनों और बाज़ारों को लेकर इन दो साम्राज्यवादी धुरियों के बीच की प्रतिस्पर्धा ही दुनिया के विभिन्न हिस्सों में युद्धों के रूप में सामने आ रही है। ईरान की नज़दीकी रूस-चीन की साम्राज्यवादी धुरी से होने की वजह से भी अमेरिकी साम्राज्यवाद और इज़रायल के लिए ईरान को झुकना आसान नहीं था । ऐसा नहीं है कि ईरान में ख़ामनेई की धार्मिक कट्टरपन्थी सत्ता के ख़िलाफ़ जन-असन्तोष नहीं  है, लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद के हमले के ख़िलाफ़ वहाँ के लोग एकजुट थे।

दरअसल मध्य-पूर्व में दूसरे इराक़ युद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद के विकल्प घटते गये हैं। ईरान की रूस-चीन धुरी से नज़दीकी और सीरिया, लेबनॉन में हिज़बुल्लाह और यमन में हूथी विद्रोहियों के साथ मोर्चा अमेरिकी साम्राज्यवाद की मुश्किलें और बढ़ा रहा है। स्पष्ट तौर पर मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी युद्ध के विस्तार और लम्बे समय से जारी राजनीतिक उथल-पुथल के दूरगामी परिणाम होंगे। फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष उस चिंगारी के समान है जो पूरे जंगल में आग लगा सकती है। यह वह बारूद की ढेरी है जो समूचे अरब विश्व में क्रान्तियों की एक शृंखला की शुरुआत को जन्म देने की क्षमता रखती है। यह मध्य-पूर्व में साम्राज्यवाद के अन्तरविरोधों की प्रमुख गाँठ है। अरब जनता में फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के प्रति गहरी हमदर्दी और अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवाद-समर्थित ज़ायनवादी इज़राइल के प्रति गहरी नफ़रत है। पिछले 20 महीने के दौरान यह बात एक बार फिर से साबित हो चुकी है। यही कारण है कि फ़िलिस्तीन के सवाल पर घिनौना विश्वासघात कर चुके उनके अपने-अपने देशों की भष्ट और तानाशाहाना सत्ताओं और राजतन्त्रों के खिलाफ भी वे सड़कों पर उतरते रहते हैं। यह बात आज पहले से अधिक प्रामाणिकता रखती है कि ज़ायनवादी इज़राइल का स्थायी अस्तित्व अरब जगत में सम्भव नहीं है। इस बात को पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियाँ भी समझती हैं और इज़राइल का शासक वर्ग भी समझता है। अरब जगत में सैन्य और राजनीतिक हस्तक्षेप करने की उनकी क्षमता का अपेक्षाकृत ह्रास हुआ है जो कि मध्य-पूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व के ह्रास को ही दिखलाता है।

इज़रायल अपने अत्याधुनिक हथियारों के बावजूद ग़ज़ा में मुक्तियोद्धाओं के प्रतिरोध को कुचलने में नाक़ाम रहा है। यही वजह है कि वह अपनी खीझ और हताशा बेगुनाह बच्चों, औरतों, बूढ़ों और भूखे लोगों पर गोलियाँ और बम बरसाकर निकाल रहा है। एक अमेरिकी विश्वविद्यालय की रपट के ही अनुसार फ़लस्तीन में मारे जाने वाले लोगों की संख्या वास्तव में 4 लाख के क़रीब है। लेकिन इसके बावजूद फ़लस्तीनी जनता अपनी मुक्ति के लिए ग़ज़ा में अप्रतिम शौर्य और साहस के साथ लड़ रही है। इज़रायल अपने मारे गये सैनिकों की वास्तविक संख्या उजागर नहीं कर रहा लेकिन इज़रायल के ही कई अख़बारों के अनुसार मारे गये इज़रायली सैनिकों की संख्या 10,000 पार कर चुकी है। यह समझना ज़रूरी है कि फ़लस्तीन आज़ादी के लिए लाखों लोगों की कुरबानी देकर लड़ना जारी रख सकता है, लेकिन इज़रायल के लिए कुछ हज़ार सेटलर सैनिकों की जान जाना भी घातक है। वजह यही है कि इज़रायल एक सेटलर औपनिवेशिक परियोजना है, जो विशेष तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद की मदद के बूते किसी तरह से घिसट-घिसटकर चल रही है। अब यह परियोजना अपने अन्तिम चरण में है। इसका ख़ात्मा ठीक-ठीक किस तरह से होगा, यह बताना सम्भव नहीं है। लेकिन फ़लस्तीनी प्रतिरोध, विश्व में इज़रायल और अमेरिका का अलग-थलग पड़ना, दुनिया भर में जनता द्वारा इज़रायल और उससे किसी भी रूप में जुड़ी कम्पनियों का बहिष्कार, और दुनिया भर में जनता का फ़लस्तीन के पक्ष में और अपने देश के इज़रायल-समर्थक हुक़्मरानों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरना इज़रायल के अस्तित्व के संकट को लगातार बढ़ा रहा है और अन्तिम मुक़ाम तक पहुँचा रहा है। इतना तय है कि एक नस्लवादी, फ़ासीवादी-ज़ायनवादी राज्य के तौर पर इज़रायल का अस्तित्व स्थायी नहीं है और यह भविष्य में, शायद निकट भविष्य में, समाप्ति की ओर बढ़ेगा। इसका ह्रास अमेरिकी साम्राज्यवाद के आम ह्रास की प्रक्रिया का एक प्रातिनिधिक हिस्सा ही है।

आने वाले दिनों में अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने पतित होते वर्चस्व को रोकने के लिए मध्य-पूर्व सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में युद्ध, नरसंहार, बेपनाह हिंसा का सहारा लेने से बाज़ नहीं आने वाला है। मध्य-पूर्व में चल रही मौजूदा उथल-पुथल का असर न सिर्फ़ उस क्षेत्र में होगा बल्कि तेल व गैस का भण्डार होने की वजह से उस क्षेत्र मे अस्थिरता का असर समूचे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर होना लाज़िमी है। साथ ही यह उथल-पुथल, अनिश्चितता और अस्थिरता जनबग़ावतों की ज्वाला को भी भड़काने का काम करेगी।

इतना तय है कि साम्राज्यवाद आज पहले से ज़्यादा कमज़ोर है और आज भी एक कागज़ी बाघ ही है। इसका अर्थ तात्कालिक तौर पर साम्राज्यवाद की ताक़त को कम करके आँकना नहीं है। यह केवल इस बात की अभिव्यक्ति है कि दुनिया भर में जनता का बहुलांश आज अमेरिकी साम्राज्यवाद और आम तौर पर साम्राज्यवाद से नफ़रत करता है। दूसरी ओर, अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा विश्व साम्राज्यवाद के आन्तरिक संकट को बढ़ा रही है। बढ़ती अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा दरअसल आज के दौर में इस कमज़ोरी को ही चिन्हित कर रही है। ऐसी स्थिति में माओ के शब्दों में जो ताक़तें बड़ी होती हैं, वे छोटी हो जाती हैं, और जो ताक़तें छोटी होती हैं, वे बड़ी हो जाती हैं क्योंकि उनके पास जनता का समर्थन होता है। साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के तीखे होने और फिर उसके युद्धों में परिणत होने के साथ अलग-अलग देशों में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप की सम्भावनाएँ भी जन्म ले सकती हैं। हालाँकि बिना क्रान्तिकारी हिरावल के इन सम्भावनाओं को वास्तविकता में तब्दील नहीं किया जा सकता। आज का प्रमुख कार्यभार यही है कि जो ताक़तें छोटी हैं, उन्हें जनता को अपने पक्ष में जीतकर, उनके सामने मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था का एक वैज्ञानिक और व्यावहारिक विकल्प पेशकर और समाजवाद के रूप में साम्राज्यवाद से मुक्ति के स्थायी रास्ते को जनता के सामने पेश करके अपने आपको बड़ा करना होगा।  इसलिए दुनिया भर में मज़दूरों-महनतकशों को आज अपनी शक्तियों को संचित करना होगा और अपने-अपने देशों में क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी के निर्माण के कार्यभार को और गम्भीरता और तत्परता के साथ पूरा करना होगा जो कि इन क्रान्तिकारी प्रक्रिया में जनउभारों और जनान्दोलनों को सही नेतृत्व दे सके । स्पष्ट है कि साम्राज्यवाद का एक-एक दिन मानवता के लिए ज़्यादा से ज़्यादा तबाही और बरबादी का सबब बनता जा रहा है। इसलिए साम्राज्यवाद के ख़ात्मे के बगैर दुनिया में अमन, चैन, खुशहाली नहीं हो सकती है। इज़रायल और फिर अमरीका द्वारा ईरान पर हमला दरअसल साम्राज्यवादी विश्व के अन्तरविरोधों को ही उजागर करता है। इसलिए दुनिया भर की मेहनतकश अवाम को आज साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष को तेज़ करना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2025

 

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