आर्थिक संकट का सारा बोझ मज़दूरों पर
देश भर में हो रही है मज़दूरों की छँटनी

लखविन्दर

नौकरी के लिए लाइन में खड़े मज़दूर

नौकरी के लिए लाइन में खड़े मज़दूर

विश्वव्यापी आर्थिक संकट की लपटें पूरे भारत में तेज़ी से फैल रही हैं और सबसे ज्यादा मज़दूरों को अपनी चपेट में ले रही हैं। अन्तहीन मुनाफाखोरी की हवस में पागल पूँजीपतियों द्वारा मेहनतकश जनता की बेरहम लूट और बेहिसाब उत्पादन से पैदा हुए इस संकट की मार मेहनतकश जनता को ही झेलनी पड़ रही है। सरकार के श्रम विभाग के सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष के अन्तिम तीन महीनों में 5 लाख से अधिक मज़दूरों की छँटनी की जा चुकी थी। यह एक प्रकार की नमूना रिपोर्ट थी, जिससे मेहनतकशों पर पड़ने वाले छँटनी-तालाबन्दी के भयावह असर का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।

भारत सरकार के  श्रम विभाग द्वारा आठ औद्योगिक सेक्टरों (खनन, कपड़ा और वस्त्र, धातु और धातु के उत्पाद, ऑटोमोबाइल, हीरे-जवाहरात और गहनों से संबंधित उद्योग, निमार्ण, परिवहन और सूचना तकनोलॉजी के बीपीओ उद्योग) का सर्वे किया गया। इस सर्वे में 11 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेशों के 20 औद्योगिक केन्द्रों की दस या अधिक मज़दूरों वाली 2581 इकाइयों को शामिल किया गया। सितम्बर 2008 में इन इकाइयों में 1 करोड़ 62 लाख मज़दूर काम करते थे जबकि दिसंबर 2008 में यह संख्या घटकर 1 करोड़ 57 लाख पर आ गई। मात्र तीन महीनों के भीतर ही 5 लाख मज़दूरों का रोजगार छिन जाना कोई छोटी बात नहीं है। और फिर यह भी हम साफ देख सकते हैं कि इस में सर्वे देश की कुल औद्योगिक इकाइयों के एक छोटे हिस्से को ही शामिल किया गया है। असल में इस दौरान बेरोजगार हुए मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक हो सकती है। इस बारे में देश के कोने कोने से खबरें प्राप्त हो रही हैं। भले ही सरकार, पूँजीवादी मीडिया तथा विभिन्न पूँजीवादी सर्वे एजेंसियों आदि द्वारा एकत्रित आँकड़ों से पूरी तस्वीर देख पाना संभव नहीं होता। जिस देश में अधिकतर मज़दूर बिना किसी लिखत-पढ़त के काम करते हों वहाँ उनके काम से निकाले जाने के सही आँकड़े मिलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन हालात का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है।

आइये, कुछ अन्य जगहों से प्राप्त जानकारियों पर भी नज़र डालें।

निर्यात आधारित उद्योग में बहुत बड़े स्तर पर छँटनी हुई है। कॉमर्स सेक्रेटरी जी.के.पलाई के जनवरी 2009 के आखिरी सप्ताह दिये गये एक बयान में उन्होंने बताया कि भारतीय निर्यातक कंपनियों ने 10 लाख से भी अधिक मज़दूरों की छँटनी की है। कपड़ा और कपड़े के उत्पाद निर्यात करने वाले उद्योगों के मालिकों के एक संगठन- अपैरल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसल के चेयरमैन राकेश वैद के फरवरी में दिये बयान से ही बड़े स्तर पर छँटनी करने के पूँजीपतियों के मंसूबों का पता चल जाता है। बयान था कि अप्रैल तक कपड़ा उद्योग से 15 लाख मज़दूरों की छँटनी हो सकती है। संकट के चलते सूरत (गुजरात) में हीरे के लगभग 3000 कारखानों में से लगभग 2000 कारखाने बंद हो चुके हैं। इन कारखानों में काम करने वाले 5 लाख मज़दूरों में से 2 लाख की छँटनी हो चुकी है। इन कारखानों में पीस रेट घटा दिया गया है, जिसका अर्थ है कि जिनकी नौकरी अभी नहीं गयी है उन्हें भी अब पहले से कम पैसे पर गुजारा करना पड़ रहा है। संकट से पहले दूसरे प्रकार के उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों के मुकाबले कुछ बेहतर कमाई कर लेने वाले हीरे के कारखानों के मज़दूरों की हालत अब इतनी असहनीय है कि छँटनी के बाद 35 से भी अधिक आत्महत्याएँ हो चुकी हैं।

ऑटोमोबाइल उद्योग भी अब पिछले गियर में चल रहा है। जनवरी 2007 में केन्द्र सरकार ने विश्व की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल कम्पनियों में से सात सबसे बड़ी कम्पनियों हुण्डई, फोर्ड, टोयटा आदि से एक समझौता किया। इस समझौते में अनुसार उत्तर में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, पश्चिम में महाराष्ट्र और दक्षिण में कर्नाटक और तमिलनाडु में ऑटोमोबाइल उद्योग का विस्तार किए जाने का निर्णय किया गया। 2016 तक इस उद्योग के जरिये 25 लाख लोगों के लिये रोज़गार पैदा करने का ऐलान किया गया था लेकिन समझौते को एक वर्ष भी नहीं गुजरा कि ऑटोमोबाइल उद्योग को ही ब्रेक लग गये। वाहनों और पुर्जों की बिक्री में बड़ी गिरावट के कारण इस उद्योग में जहाँ नये प्रोजेक्ट तो लगाये ही नहीं जा रहे वहाँ पहले से हो रहे उत्पादन की मात्रा घटा दी गई है। मज़दूरों को बड़ी संख्या में नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। टीवीएस मोटर्स, चेन्नई के चेयरमैन वेणु  श्रीनिवासन ने माना कि कम से कम सितम्बर 2010 तक ऑटोमोबाइल उद्योग के सँभलने की कोई उम्मीद नहीं है।

एक अंग्रेजी पत्रिका के मुताबिक रियल एसटेट के मंदी की चपेट में आने के कारण कम से कम 10 लाख निर्माण मज़दूरों को  बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें सप्ताह में तीन दिन से अधिक काम नहीं मिल पा रहा है।

अन्य बहुत से हथकंडों के जरिये भी मंदी का सारा बोझ मज़दूरों पर ही डाला जा रहा है। वेतन-दिहाड़ी-पीस रेट में कटौती, पहले जितने वेतन में ही काम के घण्टे बढ़ाना, सप्ताह के कुछ ही दिन काम चलाया जाना आदि से मज़दूरों की बेहिसाब आबादी संकट का शिकार बनाई जा रही है।

यही नहीं, जो मध्यवर्ग पूँजीवादी व्यवस्था की जय-जयकार करता नहीं थकता था और पिछले समय में हुए पूँजीवादी विकास ने मध्यवर्ग के जिस एक हिस्से को आसमान की बहुत सैर कराई है उसे भी इस संकट ने धरती पर उतर आने के लिए मजबूर कर दिया है। पिछले कई वर्षां से फुलाया जा रहा सूचना तकनीक उद्योग का गुब्बारा अब फूट चुका है। उँचे वेतन दे सकने वाला यह उद्योग जो मध्यवर्गीय नौजवानों को रोजगार पाने का एक सुनहरा स्रोत नज़र आता था वही अब छँटनियाँ कर रहा है। आई.आई.टी. और आई.आई.एम. जैसे संस्थानों में जहाँ पढ़ाई खत्म होने से पहले ही सबकी नौकरी लग जाती थी वहाँ भी हालत अब बदल चुकी है। जिन्हें बेरोजगारी की समस्या की चर्चा करने वाले व्यक्ति किसी दूसरे ग्रह से आये लगते थे वो अब खुद धरती पर लौटने लगे हैं।

छँटनी से सम्बन्धित आँकड़ों की चारों तरफ भरमार है। लेकिन यह आँकड़े आये दिन बदल रहे हैं। हर दिन मज़दूरों को काम से निकाला जा रहा है। बेरोज़गारों की कतारें दिन-ब-दिन लम्बी होती जा रही हैं। बेरोजगारी के अचानक आये तूफान से मज़दूरों और उनके परिवारों की समस्याओं के लिये ‘गम्भीर’, ‘भयंकर’ आदि शब्द बहुत छोटे पड़ेंगे। मज़दूरों के लिये बेरोजगारी का अर्थ होता है-दो वक्त की मिल रही रोटी भी छिनना। लेकिन क्या करोड़ों-करोड़ मज़दूर भुखमरी का शिकार होकर बिना कुछ बोले मौत कबूल कर लेंगे? ऐसा तो सोचा भी नहीं जा सकता। मज़दूर वर्ग भूख से नहीं मरेगा। निस्सन्देह, भविष्य अपने भीतर महान जनसंघर्षों को छुपाये हुए है। बस देखना यह है कि कब और कहाँ से शुरुआत होती है!

बिगुल, अप्रैल 2009

 


 

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