कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र से एक अंश

“हर तरह का समाज उत्पीड़क और उत्पीड़ित वर्गों के विरोध पर क़ायम रहा है। लेकिन किसी भी वर्ग का उत्पीड़न करने के लिए यह ज़रूरी है कि उसे कम से कम ऐसी सुविधाएँ दी जायें जिससे और न सही तो, एक ग़ुलाम वर्ग के रूप में, वह ज़िन्दा रह सके। भूदास व्यवस्था के युग में भूदास ने उन्नति कर कम्यून की सदस्यता हासिल कर ली थी, उसी तरह जैसे निम्न-बुर्जुआ सामन्ती निरंकुशता के जुवे के नीचे बुर्जुआ बनने में सफल हो गया था। लेकिन आधुनिक मज़दूर की दशा बिल्कुल उल्टी है। उद्योग की उन्नति के साथ, ऊपर उठने के बजाय, वह स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर के नीचे गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और उसकी मुफ़लिसी आबादी और दौलत से भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती है। ऐसी स्थिति में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज का शासक बने रहने के और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को, अनिवार्य नियम के रूप में, लादने के अयोग्य है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने के अयोग्य है क्योंकि वह अपने ग़ुलाम को ग़ुलामी की हालत में ज़िन्दा रहने की गारण्टी देने में असमर्थ है, क्योंकि वह उसके जीवन स्तर में ऐसी गिरावट नहीं रोक सकता जिसके फलस्वरूप वह उसकी कमाई खाने के बजाय उसका पेट भरने को मजबूर हो जाता है। समाज अब बुर्जुआ वर्ग के मातहत नहीं रह सकता – दूसरे शब्दों में, बुर्जुआ वर्ग का अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता। … बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी क़ब्र खोदने वालों को पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं।”

 

बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

 


 

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