भाजपा शासन में चुनाव पास आते ही सरहद पर घुसपैठ क्यों बढ़ जाती है?
आदित्य
अगले साल देश में लोकसभा चुनाव होना है। ज़ाहिर है सारी चुनावबाज पार्टियाँ इसमें अपनी तीन-तिकड़मों में व्यस्त हो गयी हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि पूँजीपतियों द्वारा भारी आर्थिक समर्थन के बूते पर भाजपा इसमें अभी तमाम दूसरे चुनावबाज पार्टियों से कहीं आगे है। एक फ़ासीवादी पार्टी होने के नाते भी भाजपा के तौर-तरीके अन्य पूँजीवादी पार्टियों से अलग हैं। उसका मुख्य काम ही है साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल कर असुरक्षा व निश्चितता से बिलबिलाये टुटपुँजिया वर्गों की अन्धी प्रतिक्रिया को मुसलमानों, ईसाइयों या दलितों के रूप में एक नकली दुश्मन दे दिया जाय और फिर दंगे-फ़साद के बूते सत्ता हासिल की जाय। वहीं यह फ़ासीवादी पार्टी इस टुटपुँजिया उभार का इस्तेमाल देश के विशेष तौर पर बड़े पूँजीपति वर्ग जैसे अडानी, अम्बानी, टाटा, बिड़ला आदि की सेवा करने में करता है। ज़ाहिर है, इस सेवा के बदले में भाजपाई नेताओं-मंत्रियों को पर्याप्त मेवा भी मिलता है।
ज़रा सोचिए, क्यों ऐसा होता है कि जैसे–जैसे चुनाव नज़दीक आता जाता है और विशेषकर भाजपा सरकार को हार का ख़तरा सताने लगता है, वैसे ही देश भर में दंगों का माहौल बनना क्यों शुरू हो जाता है? क्यों चुनाव के समय ही मन्दिर और मस्जिद के नाम पर लड़ाइयाँ शुरू हो जाती हैं? क्यों ख़बरों में ऐसा आना शुरू हो जाता है कि पाकिस्तान या चीन ने देश पर हमले शुरू कर दिये हैं? और आख़िर क्यों चुनाव आते ही देश की सीमाओं पर अचानक घुसपैठ तेज हो जाते हैं, सर्जिकल स्ट्राइक की ख़बरें आनी शुरू हो जाती हैं, जिनकी कभी कोई पुष्टि नहीं की जाती और सबूत माँगना ही देशद्रोह घोषित कर दिया जाता है?
ऊपर लिखे सवालों का जवाब बिल्कुल साफ़ है। चुनाव के समय भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी रोज़गार, महँगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जैसे ज़रूरी मुद्दों पर बात कर ही नहीं सकती, क्योंकि न तो इन्होंने कभी इस पर काम किया है और न ही इन मुद्दों पर काम करना इनका मक़सद रहा है। यह तो पूरे तन-मन-धन से अपने मालिकों के वर्ग यानी अम्बानी-अडानी, टाटा-बिरला आदि जैसे पूँजीपतियों की सेवा में लगे रहते हैं। अब चूँकि इनके पास असल मुद्दे होते ही नहीं जिनपर ये वोट माँग सकें, इसलिए यह आम जनता के सामने नक़ली मुद्दे खड़े करते हैं और नक़ली दुश्मन पेश करते हैं जिसके सर वो अपनी सारी नाकामयाबियों का ठीकरा फोड़ सकें। नूह में हुए दंगे इसी का उदाहरण था। इस प्रकार साम्प्रदायिक तनाव भड़का कर जनता का ध्यान असल मुद्दों से हटा दिया जाता है, मुसलमान जनता के रूप में बाकी बहुसंख्यक समुदाय के सामने एक नकली दुश्मन पेश किया जाता है और यह लफ्फाज़ी की जाती है कि सारी समस्याओं की जड़ मुसलमान हैं! जबकि सच्चाई यह है कि सारी समस्याओं की जड़ धन्नासेठों, मालिकों, ठेकेदारों, व्यापारियों, धनी फार्मरों का छोटा-सा वर्ग और एक मुनाफ़ा-केन्द्रित आर्थिक व्यवस्था है।
इसी तरह आजकल देश की सीमाओं पर हलचल की ख़बरें भी तेज हो गयी हैं। लगातार टीवी न्यूज़़ चैनलों में, अख़बारों में और सोशल मीडिया पर यह ख़बरें छायी हुईं हैं कि मोदी के नेतृत्व में भारत ने फ़िर से सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया है (ऐसी कई ख़बरों का सेना ने ख़ुद खण्डन किया है)। पाकिस्तान को खदेड़ने से लेकर चीन को आँख दिखाने जैसी ख़बरों को फ़िर से हवा दी जा रही है! कई घुसपैठ के वाकयों की ख़बरें लगातार आ रहीं हैं। अगर याद हो तो ठीक ऐसा ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी हुआ था। 2019 में चुनाव से ठीक पहले हुए पुलवामा हमले को भला कौन भूल सकता है! इसी साल अप्रैल में पुलवामा हमले के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने खुलकर सामने आकर यह बात कही थी कि पुलवामा हमला को भाजपा ने चुनाव में वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल किया था, जिसके बाद भाजपा को इसका पुरज़ोर फ़ायदा हुआ था और यह हमला हुआ भी भाजपा सरकार के कुकर्मों की वजह से ही था। बाद में कई लोगों ने तो पुलवामा हमले को चुनाव जीतने के लिए भाजपा की साजिश भी बताया था। पुलवामा हमले के बाद हुए सर्जिकल स्ट्राइक को भी चुनाव प्रचार के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। इस सर्जिकल स्ट्राइक के विवरण भी सरकार ने कभी नहीं बताये और इसके बारे में पूछने को ही मानो देशद्रोह घोषित कर दिया गया।
हर बात में पाकिस्तान को “क़रारा ज़वाब” देने और पाकिस्तान से भारत की तुलना करने वाले भाजपाई तब क्यूँ चुप रहते हैं जब भारत भुखमरी के मामले में वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इण्डेक्स) में पाकिस्तान ही नहीं बल्कि बांग्लादेश, नेपाल, सूडान आदि जैसे देशों से भी पीछे होता है? आपको बता दें कि 2022 की वैश्विक भुखमरी सूचकांक के अनुसार भारत 121 देशों में से 107 वें नम्बर पर था। भारत में लगभग 4500 बच्चे हर दिन भूख और कुपोषण से मर जाते हैं, जबकि लाखों टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ जाता है। ये तो महज़ कुछ प्रातिनिधिक आँकड़े हैं जो देश की सच्चाई बयाँ करते हैं। पर देश के हालात इससे कहीं बदतर हैं। महँगाई लगातार बढ़ती जा रही है। पक्का रोज़गार तो दूर की बात है, आज लोगों के पास रोज़गार का ही भयंकर संकट है। हर साल 2 करोड़ रोज़गार का वादा कर के सत्ता में आयी इस सरकार ने पिछले 9 सालों में लगभग साढ़े सात लाख लोगों को ही रोज़गार दिया। शिक्षा को लगातार महँगा तो किया ही जा रहा है, नयी शिक्षा नीति जैसी नीतियों की मदद से शिक्षा का साम्प्रदायीकरण किया जा रहा है और लगातार मेहनतकश आबादी को इससे दूर किया जा रहा है। नये श्रम कानूनों को लागू करने की तैयारी चल रही है, जो तमाम मज़दूरों के शोषण को और बढ़ाने की क़ानूनी छूट देगा। कोरोना काल में देश में स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली का पता तो पहले ही चल गया था। कुल मिलाकर हर ज़रूरी मुद्दों पर भाजपा सरकार नंगी हो चुकी है। इसलिए ही इन्हें ग़ैर-जरूरी और नक़ली मुद्दों की ज़रूरत होती है जिसपर जनता को बाँट सकें।
आइए अब भाजपा की हर बात पर “देश के जवान सरहद पर लड़ रहे हैं” जैसी बातों के पीछे असली मंशा क्या है यह जानते हैं। क्या सच में भाजपा को देश के जवानों की इतनी चिन्ता है? ज़वाब है नहीं! भारत के नियंत्रक एवं लेखा महापरीक्षक (सीएजी) की संसद में पेश रिपोर्ट के मुताबिक सियाचिन, लद्दाख, डोकलाम जैसे ऊँचे क्षेत्रों में तैनात सैनिकों को ज़रूरत के अनुसार कैलोरी वाला भोजन नहीं मिल रहा। उन्हें वहाँ के मौसम से निपटने के लिए जिस तरह के ख़ास कपड़ों की ज़रूरत होती है उसकी ख़रीद में भी काफी देरी हुई। ऐसा भी कई बार हुआ है जब सशस्त्र सीमा बल के जवानों को सरकार ने वेतन के साथ उनके भत्ते देने से मना कर दिया क्योंकि सरकार के पास पैसे नहीं थे! अब ऐसे में सवाल यह बनता है कि पैसे की कमी होने पर कभी नेता-मंत्रियों की तनख्वाहें क्यों नहीं रुकतीं? क्यों उनके ऐशो-आराम में कभी कटौती नहीं की जाती? खैर, इसका जवाब अलग से देने की ज़रूरत नहीं! यह अपने आप में बताता है कि जो पुलवामा में जान गँवाने वाले जवानों के नाम पर वोट माँगता हो उसे देश के जवानों की क्या ही फ़िक्र होगी! कई मारे गये जवानों की पत्नियों को उनके लिए घोषित मुआवज़े की रकम पाने के लिए दर-दर भटकना पड़ता है और भूख हड़ताल तक का सहारा लेना पड़ता है। यही वह भाजपा सरकार है जिसने अग्निवीर योजना के ज़रिये सेना में भी ठेकाकरण की नीति अपनाई है। ऐसे में, यह स्पष्ट है कि सेना के जवान, सीमा पर घुसपैठ, सर्जिकल स्ट्राइक आदि के नाम पर राष्ट्रवाद की सिगड़ी गर्म करने वाली भाजपा की असली मंशा केवल इनके नाम पर वोट माँगना है।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सेना और अर्द्धसैनिक बलों में जवानों की बुरी हालत पर सवाल उठाने वाले कई जवानों को किस तरह प्रताड़ित किया गया है। अगर आपको याद हो कि जब सीमा सुरक्षा बल के जवान तेज बहादुर यादव ने ख़राब खाने को लेकर शिकायत की थी थो मामला ठंडा होते ही उसे बर्ख़ास्त कर दिया गया था। अब आप सोच सकते हैं कि कोई भी ऐसी कोई शिकायत क्यों दर्ज कराएगा अगर उसकी नौकरी ही ख़तरे में आ जाये! और कारगिल की लड़ाई में मरने वाले सैनिकों के लिए ताबूतों की ख़रीद में घोटाला भी भाजपा की सरकार में ही हुआ था! ये परम ढोंगी लोग हैं और केवल अपने मतलब के लिए सैनिकों की दुहाई देते हैं – उसी तरह, जैसे ये हिन्दू हितों की दुहाई देकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। हिन्दू हित कोई एक चीज़ हो ही नहीं सकती, ठीक उसी प्रकार जैसे मुसलमान हित या सिख हित कोई एक चीज़ नहीं हो सकते हैं। एक ग़रीब मज़दूर हिन्दू और एक कारखाना मालिक हिन्दू के समान हित किस प्रकार हो सकते हैं?
भाजपा एक फ़ासीवादी पार्टी है जिसका मक़सद ही जनता का असल मुद्दों से ध्यान भटकाकर नक़ली दुश्मन खड़े करना है। हिटलर और मुसोलिनी जैसे फ़ासिस्ट इनके पूर्वज हैं जिनके नक्शे-क़दम पर आज यह समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर बोने में लगे हैं। बाकी पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियों से इतर यह एक विषैली विचारधारा लोगों के बीच परोसने का काम करती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस), जो इनकी मातृ-संस्था है, पिछले 100 सालों से इस काम में लगी है। कभी अंग्रेजों के शासन का समर्थन करने वाले ये संघी गुण्डे आज हमें राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा रहे हैं तथा झूठे राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ाने और वोट बटोरने का काम कर रहे हैं। इनके द्वारा फैलाया गया सामप्रदायिक ज़हर आज समाज के पोर-पोर में फैला हुआ है और इसे दूर करना आज का सबसे ज़रूरी काम है। इससे पहले भी चुनाव से ठीक पहले ही गुजरात दंगे, मुज्जफरनगर दंगे, 90 के दशक में बाबरी-मस्जिद और राम मन्दिर के नाम पर दंगे हुए थे। इनके तमाम संगठन जैसे विश्व हिन्दू परिषद्, हिन्दू युवा वाहिनी, बजरंग दल चुनाव आने के ठीक पहले अचानक से सक्रिय हो जाते हैं और धार्मिक त्योहारों या ऐसे किसी भी अवसर को दंगों में बदलने से नहीं चूकते। नूंह में अभी दंगे भड़काने के प्रयासों में भाजपा और संघ परिवार के लुच्चे-लफंगों के दल क्यों लगे हुए हैं? कयोंकि 2024 का लोकसभा चुनाव भी नज़दीक है और हरियाणा का विधानसभा चुनाव भी नज़दीक है। जनता को रोज़गार और महँगाई से मुक्ति दिलाने, स्त्रियों को सुरक्षा मुहैया कराने, बच्चों व युवाओं को निशुल्क, समान व स्तरीय शिक्षा मुहैया कराने में नाकाम रहने के बाद भाजपा के पास दंगे-फ़साद करवाने और सीमा पर घुसपैठ के नाम पर राष्ट्रवाद का फर्जीवाड़ा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।
आज बिकी हुई गोदी मीडिया की मदद से यह काम और भी आसान हो गया है। साथ में इनके आयीटी-सेल सोशल मीडिया के ज़रिये इसी काम में लगे हुए हैं। फ़ेक न्यूज़ फ़ैलाकर यह पहले से ही लोगों के अन्दर ज़हर भरने का काम कर रहे हैं, पर चुनाव के आते ही पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश के हमले का डर यह लोगों के दिमाग में डालना शुरू कर देते हैं जिनका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। लेकिन हर झूठ की एक उम्र होती है। आज जनता के बीच से भी संघ परिवार और भाजपा सरकार द्वारा फैलायी जा रही साम्प्रदायिकता और फिरकापरस्ती पर सवाल उठने लगे हैं।
हमें एक बात समझनी होगी, चाहे पुलवामा हमले में मारे गये सिपाही हों, देश की सीमाओं पर तैनात जवान या फ़िर दंगों का शिकार कोई व्यक्ति, ये हमारे-आपके जैसे मेहनतकश घरों के ही बेटे-बेटियाँ होते हैं। कभी भी देश की सरहद पर किसी नेता-मंत्री या पूँजीपति के बेटे-बेटियाँ लड़ने नहीं जाते। इनके बच्चे विदेश के किसी बड़े कॉलेजों में पढ़ रहे होते हैं या बीसीसीआयी के सचिव जैसे बड़े पद पर विराजमान होते हैं। न ही धन्नासेठों और उनके चरम सेवक संघ परिवार के नेताओं के बच्चे कभी त्रिशूल-तलवार हाथ में लेकर दंगा करने जाते हैं। वे तो विदेशों में पढ़ाई करते हैं और फिर नोट छापते हैं। इस मूर्खता में हमें बहाया जाता है, हमारे बच्चे फिजूल के मसलों पर लड़ते-कटते हैं, हमारे ही घर जलते हैं। अत: हमें भाजपा व संघ परिवार के असली फ़ासीवादी एजेण्डे को पहचानना होगा। हमें समझना होगा कि हमारा असली मुद्दा रोज़गार, महँगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का है। यही वे मुद्दे हैं जो सीधे हमारी ज़िन्दगी से जुड़ते हैं। हमें पक्के रोज़गार की, समान व निःशुल्क स्वास्थ्य व शिक्षा की, अप्रत्यक्ष कर को समाप्त करके व पूँजीपतियों पर प्रगतिशील प्रत्यक्ष कर लगाकर महँगाई पर रोक लगाने की, ठेका प्रथा ख़त्म करने की माँगों के लिये लड़ना होगा। यही वे अधिकार हैं जिसके लिए लड़कर हम एक बेहतर भविष्य का सपना देख सकते हैं।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2023
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन