ताइवान को लेकर अमेरिका व चीन के बीच तेज़ होती अन्तर-साम्राज्यवादी होड़

पराग वर्मा

विश्व पूँजीवाद के अन्तरविरोध दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तीखे रूप में प्रकट हो रहे हैं। अन्तर-साम्राज्यवादी होड़ के नतीजे के रूप में यूक्रेन में शुरू हुआ युद्ध अभी तक जारी है। इसी बीच 3 अगस्त 2022 को अमेरिकी संसद के हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने अपनी दक्षिण पूर्व एशिया की यात्रा के दौरान ताइवान की राजधानी ताइपेई का भी दौरा किया जिसके बाद से वैश्विक राजनीति में उथल-पुथल मच गयी। दरअसल चीन ताइवान को एतिहासिक तौर पर अपना हिस्सा मानता है और उसका देर-सबेर चीन के साथ विलय होना निश्चित मानता है। वैसे तो चीन का कहना है कि वह इस विलय को शान्तिपूर्ण तरीक़े से करना चाहता है, पर वह यह भी कहता है कि यदि ताक़त का इस्तेमाल भी करना पड़ा तो वह हिचकेगा नहीं। कोई भी देश यदि ताइवान की आज़ादी  की बात का समर्थन करता है तो चीन उस पर तीखी प्रतिक्रिया देता है। चीन की चेतावनी के बावजूद पच्चीस सालों में पहली बार नैंसी पेलोसी के रूप में किसी अमरीकी शीर्ष पदाधिकारी ने ताइवान की यात्रा की है। नैंसी पेलोसी ने ताइवान को आश्वासन दिया कि उसके (बुर्जुआ)जनवादी राजनीतिक ढाँचे और आत्मरक्षा के अधिकार का अमेरिका पूर्ण समर्थन करता है। इसके जवाब में चीन ने तुरन्त प्रतिक्रिया देते हुए बयान जारी किया कि वो अमेरिका के इस क़दम को चीन की राष्ट्रीय सम्प्रभुता का गम्भीर उल्लंघन मानता है और इसे दोनों देशों के बीच पूर्वनिर्धारित ‘वन चाइना’ नीति के ख़िलाफ़ देखता है। चेतावनी की कार्रवाई के तौर पर चीन ने ताइवान जलडमरूमध्य के इलाक़े में तीन दिन तक सैनिक युद्धाभ्यास भी किया।

ताइवान की भूराजनीतिक स्थिति

ताइवान चीन की मुख्य भूमि के दक्षिण पूर्व तट से क़रीब 120 किलोमीटर दूर दक्षिण व पूर्वी चीन सागर के सन्धिबिन्दु पर स्थित एक द्वीप है। चीन के समुद्री तट से क़रीब होने के अतिरिक्त ताइवान का एक अन्य भूरणनीतिक महत्व यह भी है कि उसपर नियंत्रण के ज़रिए चीन के समुद्री व्यापार के सभी मार्गों पर नियंत्रण किया जा सकता है। शीत युद्ध के समय से ही जापान के दक्षिण से जो द्वीपों की श्रृंखलाएँ है, जिनमें ताइवान और फ़िलीपींस जैसे द्वीप हैं, उन्हें अमेरिका अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने का प्रयास करता आया है। अमेरिका की साम्राज्यवादी विदेश नीति के अहम हिस्से के रूप में वह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सैन्य सहायता, आर्थिक व्यापारिक व तकनीकी मदद के बदले कई सहयोगी बनाता रहा है जो अन्ततः उसके साम्राज्यवादी हितों की रक्षा करते हैं। ताइवान भी अमेरिका का मित्र है जिसे अमेरिका उसकी क्षेत्रीय सुरक्षा का आश्वासन देता है और बदले में इण्डो-पेसिफ़िक क्षेत्र में चीन को नियंत्रित रखने के लिए ताइवान का इस्तेमाल करता है।

ताइवान व चीन के सम्बन्धों का उतार-चढ़ाव-भरा इतिहास

17वीं सदी से 19वीं सदी के बीच चीन के अधिकांश भूभाग पर किंग राजवंश का राज्य था जिसमें ताइवान का द्वीप भी शामिल था। 1895 में जापान ने ताइवान पर क़ब्ज़ा कर लिया और यह क़ब्ज़ा 50 सालों तक रहा। 1945 में दूसरे विश्वयुद्ध में जापान के हारने के बाद चीन ने फिर से ताइवान पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसी समय चीन की मुख्यभूमि में माओ त्से-तुङ के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रवादी पार्टी ‘कुओमिंतांग’ के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। 1949 में चीन की नवजनवादी क्रान्ति के पश्चात चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन के सम्पूर्ण क्षेत्र में ‘पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ की स्थापना की घोषणा की। जबकि कुओमिंतांग का नेतृत्व चीन से भाग खड़ा हुआ और उसने ताइवान जाकर शरण ले ली और ख़ुद को चीन देश का प्रतिनिधि घोषित करते हुए देश का नाम ‘रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ रख दिया। वास्तव में यह ताइवान में कुओमिंतांग के नेतृत्व में एक निरंकुश सत्ता थी और उसका नेता च्यांग काई शेक 1975 में अपनी मृत्यु तक ताइवान के स्वघोषित रूप से राष्ट्रपति पद पर आसीन रहा। इस दौरान ताइवान में मार्शल लॉ लागू था और कम्युनिस्टों सहित हर प्रकार के विरोधियों का बर्बर दमन किया गया। च्यांग काई शेक की मृत्यु के बाद उसका बेटा च्यांग चिंग कुओ ताइवान का राष्ट्रपति बना। इस बीच ताइवान में हुए पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप स्थानीय बुर्जुआ वर्ग भी विकसित हुआ जिसका प्रतिनिधित्व 1986 में गठित डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) कर रही थी जिसका नेता ली तेंग हुई ताइवान में पैदा हुआ था और जिसकी शिक्षा-दीक्षा अमेरिका में हुई थी। स्थानीय बुर्जुआ वर्ग और जनान्दोलनों के दबाव में चिंग कुओ को ताइवान की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ सुधार करने पर मजबूर होना पड़ा। 1987 में ताइवान से मार्शल लॉ हटाया गया और वहाँ बुर्जुआ जनवाद की स्थापना की शुरुआत हुई। 1988 में कुओ की मृत्यु के बाद ली तेंग हुई ताइवान का राष्ट्रपति बना और 1990 के दशक में बुर्जुआ जनवादी सुधारों को आगे बढ़ाया गया। उसके बाद से अलग-अलग समय पर ताइवान में डीपीपी और कुओमिंतांग पार्टी का शासन रहा है। जहाँ कुओमिंतांग ताइवान का चीन से एकीकरण करने की पक्षधर है वहीं डीपीपी का झुकाव अमेरिका की ओर है।
1949 में च्यांग काई शेक द्वारा स्थापित ताइवान के ‘रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ को अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों ने चीन देश की एकमात्र वैध सरकार के रूप में मान्यता दी थी। लेकिन 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ताइवान की मान्यता रद्द करके उसे ‘पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ के अंग के रूप में ही मान्यता दी। उसके बाद से ताइवान को अलग देश मानने वाले देशों की संख्या कम होती गयी और अब केवल 15 छोटे देश ही ऐसा मानते हैं। इतिहास और सांस्कृतिक समानता के मद्देनज़र चीन ताइवान को उसका अभिन्न अंग मानता है। मौजूदा चीन के बढ़ते आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व के कारण अधिकांश देश चीन की इस ‘वन चाइना’ नीति के समर्थक हैं। ‘वन चाइना’ नीति पर सभी देशों को राज़ी करना चीनी विदेश नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
हालाँकि ताइवान को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं मिली है, फिर भी वह आज काफ़ी हद तक आज़ाद देश जैसी स्थिति बनाये हुए है। उसके पास अपनी फ़ौज है, बुर्जुआ जनवादी ढाँचा है, अपनी मुद्रा, पासपोर्ट, सशक्त राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में भी उसकी विचारणीय हिस्सेदारी है। यह बात दीगर है कि बुर्जुआ वर्ग के विभिन्न धड़ों की क़रीबी चीन व अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ होने से वह साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का अखाड़ा भी बनता जा रहा है। नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा में ताइवान की आत्मरक्षा के समर्थन में दिये बयान और फिर प्रतिक्रिया में चीन द्वारा किये हवाई सैन्य परीक्षण, समुद्री व्यापार में अवरोध और ताइवान से चीन में आयात होने वाले फल और मछली जैसे फ़ूड पर चीन द्वारा प्रतिबन्ध लगाया जाना, यह बताता है कि चीन और अमेरिका के बीच साम्राज्यवादी होड़ और तीखी हो रही है और जिसके ठोस कारण पूँजीवादी व्यवस्था के गहराते संकट में मौजूद हैं।

पूँजीवादी संकट के दौर में तीखी होती साम्राज्यवादी होड़

2008 के वैश्विक पूँजीवादी संकट के बाद पूँजीवाद अभी पूरी तरह से उबर नहीं पाया था कि कोरोना महामारी ने पूँजीवादी दुनिया को एक और झटका दे दिया। उसके बाद इस साल रूस द्वारा यूक्रेन पर किये गये हमले ने पूरे विश्व को और गहरी मन्दी और महँगाई की ओर ढकेल दिया है। मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने के लिए दुनिया की तमाम कम्पनियाँ उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में ऑटोमेशन और डिजिटलाइज़ेशन पर ज़ोर दे रही हैं। इस बीच विभिन्न साम्राज्यवादी देशों व धड़ों के बीच ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों, बाज़ारों व प्रौद्योगिकी पर क़ब्ज़ा करने की होड़ तीखी हुई है। सूचना प्रौद्योगिकी के मौजूदा दौर में कम्पनियाँ 5जी, आर्टिफ़िशियल इण्टेलिजेंस, फ़ास्ट स्पीड कम्प्यूटिंग, मशीन लर्निंग और क्लाउड कम्प्यूटिंग जैसी प्रौद्योगिकियों पर ज़ोर बढ़ा रही हैं। इन प्रौद्योगिकियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है उच्च घनत्व के सेमीकण्डक्टर डिवाइस। आज विश्वभर में अमेरिका, चीन, जापान, कोरिया इत्यादि देशों के पास सेमीकण्डक्टर चिप बनाने की ऐसी सुविधाएँ मौजूद हैं जिनमें 14 नेनोमीटर तक की सूक्ष्म चिप बनायी जा सकती हैं। परन्तु 5जी टेक्नोलॉजी, आर्टीफ़िशियल इण्टेलिजेंस, क्लाउड इत्यादि के अत्याधुनिक इस्तेमाल में जिन चिप की ज़रूरत होती है वे 5-7 नेनोमीटर की उच्च घनत्व वाली चिप होती हैं। इस तरह की सूक्ष्म और उन्नत चिप बनाने की क्षमता पूरे विश्व में केवल ताइवान की कम्पनी टी.एस.एम.सी. और कोरिया की कम्पनी सैमसंग के पास है। टी.एस.एम.सी. आज विश्वभर में होने वाले चिप उत्पादन का 54% उत्पादन करती है। ताइवान की बाक़ी चिप निर्माता कम्पनियों का भी जोड़ दिया जाये तो ताइवान पूरे विश्व के चिप उत्पादन का 64 प्रतिशत उत्पादन करता है। यही नहीं, दुनिया की 92 प्रतिशत उन्नत और जटिल चिप का उत्पादन ताइवान में होता है। अमेरिका और चीन सेमीकण्डक्टर की डिज़ाइन कर सकते हैं, परन्तु उसके उत्पादन के लिए दोनों ही ताइवान पर निर्भर हैं। ताइवान की भी चिप उत्पादन के कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होने वाली सिलिकॉन के लिए चीन पर, सॉफ़्टवेयर के लिए अमेरिका पर, चिप बनाने की आधुनिक मशीनों के लिए नीदरलैण्ड्स पर और केमिकल व स्पेयर्स के लिए अन्य देशों पर निर्भरता है। जहाँ एक ओर चीन के साथ ताइवान के मतभेद हैं वहीं पूँजीवादी मुनाफ़े और बाज़ार के फैलाव के फलस्वरूप ताइवान के कुल निर्यात का 42 प्रतिशत चीन को जाता है और ताइवान चीन से कुल निर्यात का 22 प्रतिशत लेता है। ताइवान का व्यापार अमेरिका की तुलना में चीन के साथ बहुत ज़्यादा है। अमेरिकी व चीनी साम्राज्यवादियों के बीच ताइवान में जो टकराहट दिखायी दे रही है उसका कारण भूरणनीतिक कारणों के अलावा सेमीकण्डक्टर को लेकर चल रही खींचतान भी है।
व्यापारिक व प्रौद्योगिक रूप से ताइवान पर निर्भरता के कारण सैन्य बल में कई गुना बड़ी ताक़त होने के बावजूद चीन ने अभी तक ताइवान पर बल का इस्तेमाल नहीं किया है। आमतौर पर ताइवान के मामले में अमेरिका भी यथास्थिति बरकरार रखने, द्वीप समूहों पर स्थित फ़ौज के आधार द्वारा चीन पर नज़र रखने और आर्थिक प्रतिबन्धों द्वारा चीन को बाज़ार की प्रतियोगिता में पछाड़ने की बातें करता आया है, परन्तु इस बार नैंसी पेलोसी ने अचानक ताइवान पहुँचकर ताइवान के साथ खड़े रहने का जो आह्वान किया है वह चीन को उकसाने की हरकत है। अमेरिका द्वारा ताइवान के मुद्दे को हवा देना अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मन्दी व विश्व राजनीति में अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व के ह्रास की परिस्थिति से अमेरिकी जनता का ध्यान भटकाने की भी एक कोशिश है। इसी प्रकार चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग को भी ताइवान के मुद्दे से चीन के भीतर आर्थिक संकट व आवास संकट से लोगों का ध्यान भटकाने का मौक़ा मिल गया है।
ताइवान के मज़दूर वर्ग और उसका प्रतिनिधित्व करने वाली ताक़तों के लिए चीनी व अमेरिकी साम्राज्यवादियों की इस होड़ में किसी एक का पक्ष चुनने की बजाय सर्वहारा वर्ग की स्वायत्त राजनीति को विकसित करना आज के दौर का सबसे अहम कार्यभार है। इस प्रक्रिया में ताइवान के बुर्जुआ वर्ग के चीन की ओर झुकाव रखने वाले धड़े और अमेरिका की ओर झुकाव रखने वाले धड़े, इन दोनों का जनविरोधी चरित्र उजागर करना चाहिए। साथ ही चीन के सर्वहारा वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करने वाली ताक़तों के साथ एकजुटता स्थापित करते हुए चीन व ताइवान दोनों देशों में समाजवादी व्यवस्था के लिए संघर्ष की तैयारियों में जुट जाना चाहिए क्योंकि समाजवाद ही पूँजीवादी शोषण व उत्पीड़न के साथ ही साथ साम्राज्यवादी युद्धों से भी निजात दिला सकता है।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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