दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में फिर से आम आदमी पार्टी की जीत के मायने: एक मज़दूर वर्गीय नज़रिया
अभिनव
सम्पादक, ‘मज़दूर बिगुल’
जैसा कि उम्मीद थी, दिल्ली विधानसभा चुनावों में केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी को भारी जीत हासिल हुई। इसमें आम आदमी पार्टी द्वारा दी जा रही 200 यूनिट मुफ़्त बिजली और मुफ़्त पानी का निश्चित तौर पर एक योगदान है। लेकिन ये अपने आप में आम आदमी पार्टी की लहर की पूरी तरह से व्याख्या नहीं कर सकते हैं। इसके पीछे अन्य कई राजनीतिक और आर्थिक कारण मौजूद हैं, जिन पर हम इस लेख में आगे चर्चा करेंगे।
मोदी-शाह की हार पर ख़ुश होने और ‘आप’ की जीत पर ख़ुश होने में फ़र्क़ है!
मोदी-शाह की अगुवाई वाली भाजपा की करारी हार से हर जनवादी, सेक्युलर और जनपक्षधर व्यक्ति को ख़ुशी हुई है। होनी भी चाहिए। साम्प्रदायिकता के एजेण्डे को चुनावों का प्रमुख एजेण्डा बनाने के लाख प्रयासों के बावजूद भाजपा चुनाव जीतने में सफल नहीं हो सकी। लेकिन भाजपा की हार पर ख़ुश होने के साथ कई लिबरल, लिब-डेम क़िस्म के लोग ‘आप’ की जीत पर भी ख़ुश हैं। हालांकि इन दोनों में फ़र्क़ है। आप आम आदमी पार्टी की जीत पर ख़ुश हुए बिना, भाजपा की हार पर ख़ुश हो सकते हैं! हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, इसे समझ लेते हैं।
जिन्होंने भी केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के पूरे चुनाव अभियान को क़रीबी से देखा है, वह अच्छी तरह जानते हैं कि भाजपा के हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के एजेण्डे के बरक्स, अरविन्द केजरीवाल ने कोई सही मायनों में सेक्युलर, जनवादी और प्रगतिशील एजेण्डा नहीं रखा था। उल्टे केजरीवाल ने ‘सॉफ़्ट हिन्दुत्व’ का कार्ड खेला। अपने आपको हिन्दू, हनुमान-भक्त आदि साबित करने में केजरीवाल ने कोई कसर नहीं छोड़ी। साथ ही, कश्मीर में 370 हटाने पर मोदी को बधाई देने से लेकर, जामिया और जेएनयू पर हुए पुलिसिया अत्याचार और शाहीन बाग़ और सीएए-एनआरसी-एनपीआर जैसे सबसे ज्वलन्त और व्यापक मेहनतकश आबादी को प्रभावित करने वाले प्रमुख मसलों के सवाल पर चुप्पी साधे रहने तक, केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने मोदी-शाह-नीत भाजपा के कोर एजेण्डा से किनारा काटकर निकल लेने (सर्कमवेण्ट करने) की रणनीति अपनायी। तात्कालिक तौर पर, इस रणनीति का फ़ायदा आम आदमी पार्टी को मिला है। लेकिन ऐसी रणनीति दूरगामी तौर पर हमेशा ही हिन्दुत्ववादी एजेण्डे को ही फ़ायदा पहुँचाती है, क्योंकि अन्तत: यह हिन्दुत्व के एजेण्डा को ही वैध ठहराती है, उसे लेजिटिमाइज़ करती है, या कम-से-कम उसे स्वीकार्य तो बनाती ही है। कांग्रेस ने एक अलग तरीक़े से ‘साफ़्ट हिन्दुत्व’ की लाइन अपनायी थी। कांग्रेस को भी इसका तात्कालिक लाभ मिला था। लेकिन किसी भी ब्राण्ड का ‘साफ़्ट हिन्दुत्व’ आख़िरी विश्लेषण में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद को ही लाभ पहुँचाता है, यह 1980 के दशक का मध्य आते-आते स्पष्ट हो चुका था। केजरीवाल और ‘आप’ द्वारा ‘सॉफ़्ट हिन्दुत्व’ की लाइन अपनाने का भी अन्तिम नतीजा यही होगा। ऐसा किस रूप में होगा, यह आज बताने का प्रयास करना अटकलबाज़ी होगी।
आम आदमी पार्टी की दक्षिणपन्थी लोकरंजक और अवसरवादी रणनीति
आम आदमी पार्टी ने बैल को सींग से न पकड़ने की रणनीति अपनायी। इसका एक उदाहरण चुनावों में आम आदमी पार्टी के नारे भी थे। मिसाल के तौर पर, इस नारे पर ग़ौर करें: ‘दिल्ली में तो केजरीवाल’। जो भी हिन्दी भाषा में ‘तो’ के प्रयोग से वाक़िफ़ हैं, वे इस व्याकरणिक तौर पर अधूरे नारे को पूरा कर सकते हैं, इस प्रकार से: ‘दिल्ली में तो केजरीवाल, देश में मोदी’। आम आदमी पार्टी और भाजपा के ही कुछ ग्रासरूट समर्थकों ने अपने-अपने इलाक़े में इस नारे को इसी प्रकार से पूरा कर भी दिया! दिल्ली के कई इलाक़ों में ऐसे पोस्टर देखे जा सकते थे जो कि देश में मोदी की और दिल्ली में केजरीवाल के नारे की हिमायत कर रहे थे। यह अनायास नहीं था, बल्कि यह आम आदमी पार्टी की राजनीतिक रणनीति का ही लाज़िमी नतीजा था।
- शाहीन बाग़ और सीएए-एनआरसी-एनपीआर पर ‘आप’ का स्टैण्ड
शाहीन बाग़ से शुरू हुए ऐतिहासिक आन्दोलन पर भी केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने मौक़ापरस्त पोजीशन अपनायी। शुरुआत में दबे स्वर में सीएए का विरोध किया गया और शाहीन बाग़ का दबे स्वर में समर्थन किया गया, या फिर सरकार से शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों से संवाद करने की गुहार लगायी गयी। लेकिन जैसे-जैसे भाजपा अपने साम्प्रदायिक एजेण्डा पर अधिक से अधिक आक्रामक होती गयी, वैसे-वैसे आम आदमी पार्टी ने पहले चुप्पी की रणनीति अपनायी और फिर यहाँ तक पहुँच गयी कि केजरीवाल ने यह शर्मनाक बयान दिया कि अगर दिल्ली पुलिस उसके हाथ में होती तो वह दो घण्टे में शाहीन बाग़ के प्रदर्शन को उठवा देता।
आज के समय सीएए-एनआरसी-एनपीआर पर ‘आप’ कुछ बोल ही नहीं रही है! अगर उससे पूछा जाता है कि तो वह कहती है कि हम पहले दिल्ली के स्थानीय मुद्दों पर ही बात करेंगे। निश्चित तौर पर, यदि एनआरसी लागू होता है तो वह राष्ट्रीय मुद्दा होने के साथ-साथ दिल्ली के ग़रीब मेहनतकशों के लिए स्थानीय राजनीतिक मुद्दा भी बन जायेगा। लेकिन केजरीवाल और ‘आप’ इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं क्योंकि उनकी राजनीति का भी एक आयाम ‘भारत माता की जय’-स्टाइल राष्ट्रवाद है और राष्ट्रवादी राजनीति का एक आयाम बाहरी-अन्दरी (आउटसाइडर-इनसाइडर), क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी प्रवासी/शरणार्थी का युग्म (बाइनरी) होता है। इसलिए ‘विदेशियों की पहचान करके इन दीमकों को साफ़ करने’ के शाह के तर्क का ‘आप’ कोई जवाब नहीं दे सकती। ख़ैर, इस भयंकर सोच को लेकर ‘आप’ के बारे में क्या कहा जाय, जबकि अपने आपको क्रान्तिकारी कहने वाले कई संगठन ही देश में तो एनआरसी का विरोध करते हैं, मगर असम में एनआरसी पर गोलमोल पोज़ीशन अपनाते हुए ‘शरणार्थी समस्या’, ‘संसाधनों की समस्या’, ‘मूल निवासियों के अल्पसंख्या बन जाने की समस्या’ और ‘क़ौमी संस्कृति और भाषा को शरणार्थियों के बढ़ने से पैदा होने वाली समस्या’ का ज़िक्र करते हैं! कोई भी प्रगतिशील और जनवादी व्यक्ति समझ सकता है कि इस प्रकार के वाहियात तर्कों का इस्तेमाल केवल बुर्जुआ राष्ट्रवादी करते हैं। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इनका शिकार आज के समय में कुछ क्रान्तिकारी माने जाने वाले संगठन भी हो गये हैं।
बहरहाल, मसला यह है कि अपनी दक्षिणपन्थी लोकरंजक राजनीति के कारण ‘आप’ स्वाभाविक तौर पर सीएए-एनआरसी-एनपीआर पर कोई सिद्धान्तनिष्ठ प्रतिरोध कर पाने में अक्षम है।
- ‘आप’ और केजरीवाल की राजनीति का मज़दूर-विरोधी और निम्न-पूँजीवादी चरित्र
स्पष्ट है कि केजरीवाल ने मोदी द्वारा श्रम क़ानूनों में संशोधन (‘बचे-खुचे श्रम क़ानूनों की हत्या’ पढ़ें) जैसे मज़दूर-विरोधी क़दमों पर कभी मुँह नहीं खोला। दिल्ली में हर वर्ष न्यूनतम मज़दूरी ज़रूर बढ़ायी गयी, लेकिन सिर्फ़ इसलिए क्योंकि यह कहीं लागू ही नहीं होती है! ख़ुद आम आदमी पार्टी के कारख़ानेदार नेता जैसे कि गिरीश सोनी, राजेश गुप्ता आदि अपने और अपने रिश्तेदारों के कारख़ानों में न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, सुरक्षा उपकरणों, साप्ताहिक छुट्टी आदि के श्रम क़ानूनों का खुलेआम उल्लंघन करते हैं। ज़ाहिर है, जब केजरीवाल ने यह कहा था कि उनकी नस-नस में ख़ून के रूप में ‘धंधा’ दौड़ रहा है और पूँजीपतियों को उनसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है, तो इसका यही मतलब था कि अगर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तो श्रम क़ानूनों, कारख़ाना क़ानूनों से मुक्ति और साथ ही आयकर विभाग के छापों से मुक्ति।
दिल्ली छोटे पूँजीपतियों (औद्योगिक और व्यापारिक) का शहर है। दिल्ली में केजरीवाल की सफलता का एक प्रमुख कारण यह है कि दिल्ली के छोटे और मंझोले कारख़ाना-मालिकों, ठेकेदारों, बिचौलियों, दुकानदारों ने अपना पाला भाजपा से बदलकर आम आदमी पार्टी को अपना समर्थन दे दिया। बड़े पूँजीपतियों से भी आम आदमी पार्टी की कोई दुश्मनी नहीं है। यही कारण है कि उसे भारती मित्तल और टाटा से सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट से काफ़ी बड़ा चुनावी चन्दा मिलता है। इसका एक कारण यह भी है कि दिल्ली में विद्युत वितरण का जो निजीकरण कांग्रेस सरकार ने किया था उसे केजरीवाल सरकार ने क़ायम रखा है और बिजली के बिल पर जो सब्सिडी वह दे रही है, उससे टाटा और अम्बानी को कोई हानि नहीं है। उल्टे यह सब्सिडी सरकारी ख़ज़ाने से दी जा रही है जो कि जनता के करों से ही आता है। इसे ज़्यादा से ज़्यादा आंशिक रूप में नवउदारवादी और दक्षिणपन्थी शैली में ‘समृद्धि का पुनर्वितरण’ कहा जा सकता है। लेकिन कुल मिलाकर जनता के लिए इसका मतलब एक हाथ से चवन्नी देना और दूसरे हाथ से चवन्नी लेना ही है। हालांकि तात्कालिक तौर पर लोगों को इससे राहत महसूस होती है और इस अहसास को आम आदमी पार्टी को चुनावों में लाज़िमी तौर पर फ़ायदा पहुँचा है। लेकिन यदि, मिसाल के तौर पर, दिल्ली में बिजली के निजीकरण को समाप्त किये बिना सरकार बिजली के बिलों पर सब्सिडी देती है, तो वह पूँजीपति वर्ग को कहीं कोई हानि नहीं पहुँचाता है, बस जनता को राहत का एक भ्रामक अहसास देता है क्योंकि केजरीवाल सब्सिडी सरकारी ख़ज़ाने से ही देता है और उसका बोझ अन्तत: जनता पर ही पड़ता है। लेकिन तात्कालिक राहत में यह सच्चाई छिप जाती है और केजरीवाल और ‘आप’ इसी का लाभ उठाते हैं।
लुब्बेलुबाब यह कि केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की रणनीति के तीन बुनियादी पहलू ऐसे हैं, जो कि उसके राजनीतिक वर्ग चरित्र को काफ़ी हद तक उजागर कर देते हैं: पहला, मोदी-शाह और संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद से सीधे टक्कर मोल न लेना या उसकी साफ़ शब्दों में मुख़ालफ़त न करना; दूसरा, पूँजी-परस्त नीतियों के मामले में मोदी को पूरा समर्थन देना; और तीसरा, अन्धराष्ट्रवाद के एजेण्डा पर भाजपा का विरोध न करना, उल्टा, अन्धराष्ट्रवाद का एक अपना ही अलग ब्राण्ड पेश करना। इन तथ्यों के आधार पर ही हम आम आदमी पार्टी की विचारधारा और राजनीति के चरित्र को भी समझ सकते हैं।
आम आदमी पार्टी की विचारधारा क्या है? — प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपन्थी अवसरवाद और व्यवहारवाद!
आम आदमी पार्टी की राजनीति क्या है? — दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद!
आम आदमी पार्टी का वर्ग आधार क्या है? — राजनीतिक व सामाजिक रूप से पूँजीपति वर्ग और निम्न-पूँजीपति वर्ग तथा सामाजिक रूप से सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग का एक हिस्सा!
आम आदमी पार्टी की विचारधारा वास्तव में प्रतिक्रियावादी अवसरवाद और व्यवहारवाद की टटपुँजिया विचारधारा है। इस विचारधारा का दावा यह है कि कोई विचारधारा जैसी कोई चीज़ नहीं होती! यानी किसी भी चीज़ का कोई आम सिद्धान्त नहीं होता है। लेकिन जैसा कि पिछला वाक्य पढ़कर समझदार लोग समझ गये होंगे, यह कहना कि ‘कोई आम सिद्धान्त नहीं होता है’ स्वयं एक आम सिद्धान्त ही है, एक सामान्यीकरण ही है।
- ‘आप’ की दक्षिणपन्थी अवसरवादी और व्यवहारवादी विचारधारा
केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के नेताओं को अक्सर यह कहते सुना जा सकता है कि वह ‘लेफ़्ट’ या ‘राइट’ में यक़ीन नहीं करते! वह बस ‘मुद्दों की राजनीति’ करते हैं! यह खोखला दावा है। कारण यह कि मुद्दों का आपका चुनाव और उन चुने गये मुद्दों पर आपकी अवस्थिति आपके आम नज़रिये या विश्व-दृष्टि से तय होती है। यही कारण है कि आम आदमी पार्टी ने राष्ट्रवाद, धर्म, साम्प्रदायिकता, आदि पर जो अवस्थिति अपना रखी है, वह वास्तव में दक्षिणपन्थी अवस्थिति है। यही कारण है कि आम आदमी पार्टी एक वर्गेतर नज़रिया रखने का दावा करती है और दावा करती है कि अच्छे और बुरे का उसका पैमाना भ्रष्टाचार और सदाचार से तय होता है। एक वर्ग समाज में वर्गेतर पोज़ीशन रखने का दावा प्रभुत्वशाली वर्गों का पक्ष लेना ही होता है; टटपुँजिया वर्ग अवस्थिति रखने वाले तमाम ईमानदार बुद्धिजीवी ऐसा अनजाने भी करते हैं, लेकिन केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में ऐसा क़तई नहीं कहा जा सकता है, कि वे अनजाने ऐसा कर रहे हैं!
‘आम आदमी पार्टी’ के लिए भ्रष्टाचार का अर्थ केवल सरकारी कर्मचारियों और चुनावबाज़ नेताओं द्वारा ली जाने वाली रिश्वत और किये जाने वाले घपलों तक सीमित है। संविधानसम्मत और विधिसम्मत भ्रष्टाचार को केजरीवाल और आम आदमी पार्टी सदाचार की श्रेणी में ही रखते हैं। मिसाल के तौर पर, श्रमशक्ति का शोषण और मुनाफ़े का अधिग्रहण भ्रष्टाचार में नहीं आता है। यहाँ तक कि अगर निजी उद्यमी (पूँजीपति) भ्रष्टचार करे तो उस पर केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की आँखें बन्द रहती हैं, केजरीवाल को पूँजीपतियों के लिए जूनियर मोदी बनकर ‘ईज़ ऑफ़ बिज़नेस’ भी तो देना है। ‘ईज़ ऑफ़ बिज़नेस’: ज़रा इस वाक्यांश के अर्थ के बारे में सोचिए! ‘बिज़नेस’ का अर्थ ही होता है श्रमशक्ति के शोषण के आधार पर मुनाफ़ा निचोड़ना; ‘ईज़ ऑफ़ बिज़नेस’ का अर्थ है कि श्रमशक्ति के शोषण के ज़रिये मुनाफ़ा पीटने की राह में सारी बाधाओं को हटाना। इसमें ‘वन विण्डो क्लियरेंस’, पूँजीपतियों द्वारा स्वप्रमाणीकरण की व्यवस्था आदि जैसी नीतियों के अलावा मुख्य होता है श्रम क़ानूनों से छुटकारा। पूँजीपतियों की यह सेवा करने में केजरीवाल कहीं भी मोदी से पीछे नहीं है और कुछ पूँजीपति तो केजरीवाल मॉडल को बेहतर मानते हैं कि क्योंकि वह यह सेवा प्रदान करने में कोई भ्रष्टाचार नहीं करता! यानी लूट के माल में औद्योगिक व व्यापारिक पूँजीपति वर्ग से नौकरशाह पूँजीपति वर्ग भ्रष्टाचार के ज़रिये जो एक हिस्सा वसूलता है, केजरीवाल ने उस हिस्से को न्यूनातिन्यून कर दिया है! लेकिन भ्रष्टाचार-रहित प्रशासन से केजरीवाल और ‘आप’ का अर्थ है पूँजीपति वर्ग और ज़्यादा से ज़्यादा मध्य वर्ग के लिए भ्रष्टाचार से मुक्ति, वह भी तब यदि हम भ्रष्टाचार का अर्थ केवल रिश्वतखोरी और घपले के निहायत सीमित अर्थों में लें। लेकिन मज़दूरों को प्रशासन द्वारा तमाम क़ानूनी अधिकारों से वंचित किया जाना केजरीवाल और ‘आप’ के भ्रष्टाचार की परिभाषा में नहीं आता है। वह तो ‘ईज़ ऑफ़ बिज़नेस’ है और भाजपा के समान ‘आप’ का भी मानना है कि समाज में समृद्धि पैदा करने वाला वर्ग तो पूँजीपति वर्ग है और उस पर कोई बोझ नहीं पड़ना चाहिए। वह तो मालिक है, वही तो रोज़गार देता है! इसलिए इस रोज़गार-दाता, उद्यमी और समृद्धिजनक वर्ग पर कोई बोझ नहीं पड़ना चाहिए और उसे श्रम क़ानूनों के स्पीडब्रेकरों से पूरी मुक्ति मिली चाहिए ताकि ‘ईज़ ऑफ़ बिज़नेस’ मिल सके। इसलिए श्रम क़ानूनों का दिल्ली में खुल्लेआम और अन्धाधुन्ध उल्लंघन कोई भ्रष्टाचार नहीं है! मिसाल के तौर पर, यदि कारख़ानेदार श्रम क़ानूनों को लागू न करें, दुकानदार बिक्री कर व आयकर की चोरी करें, क़ानूनों को लागू न करें तो वह भ्रष्टाचार नहीं बल्कि उद्यमिता की श्रेणी में आता है! इसलिए ‘आप’ की तथाकथित वर्गेतर सोच के पीछे विशेष तौर पर छोटे मालिकों और आम तौर पर पूँजीपति वर्ग का हित और उनका वर्ग नज़रिया ही मौजूद है। यही कारण है कि मज़दूरों की दिल्ली में औद्योगिक दुर्घटनाओं में बढ़ती मौतों पर केजरीवाल चुप है; श्रम क़ानूनों के संशोधन पर वह चुप है; ठेका प्रथा के उन्मूलन के अपने शुरुआती वायदे पर अमल से मुकर जाने के मामले में केजरीवाल चुप है। तो केजरीवाल इस तरह से एक वर्गेतर नज़रिया अपनाने का दावा करता है और ‘राइट’ के कन्धे पर बैठकर, ‘राइट’ और ‘लेफ़्ट’ से इतर होने का दावा करता है। यही नज़रिया दरअसल पूँजीवादी दक्षिणपन्थी अवसरवाद और व्यवहारवाद की विचारधारा है।
विचारधारात्मक तौर पर, जब कोई पार्टी या नेता कोई विचारधारा न रखने का दावा करता है, तो आप मानकर चल सकते हैं कि वह उसी विचारधारा का हामी है, जो कि शासक वर्गों की विचारधारा है। यह एक विचारधारात्मक अवसरवाद है। यह केजरीवाल और ‘आप’ को यह लचीलापन प्रदान करता है कि वह विभिन्न मसलों पर कभी कोई तो कभी कोई अवस्थिति अपना सकते हैं। मिसाल के तौर पर, सीएए-एनआरसी के मसले पर भी इनका सुर इसी प्रकार बदला है।
- ‘आप’ की दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी राजनीति
इनका प्रतिक्रियावादी व्यवहारवाद ‘जब जो कारगर हो, उसे लागू करो’ (‘व्हाटेवर वर्क्स’) के नारे पर काम करता है। यह दीगर बात है कि आम तौर पर लम्बी दूरी में पूँजीवादी व्यवस्था और समाज में ‘कारगर’ और ‘सुविधाजनक’ वही होता है, जो कि पूँजीपति वर्ग के हित में हो। यही विचारधारा केजरीवाल की राजनीति के चरित्र को निर्धारित करती है।
पिछले पाँच वर्षों के केजरीवाल के शासन में यह बात स्पष्ट तौर पर दिखलाई भी पड़ती है। जब केजरीवाल ने राजनीति में प्रवेश किया था, तो उसे मज़दूर वर्ग के वोटों की ज़रूरत थी। इसलिए उसने वायदा किया कि सरकार बनने पर वह दिल्ली से ठेका प्रथा को समाप्त करेगा, 55 हज़ार ख़ाली पदों को भरेगा, आदि। लेकिन 49 दिनों की सरकार में जब मज़दूर वर्ग के राजनीतिक रूप से सचेत हिस्से ने इन वायदों को पूरा करने के लिए उसके ऊपर दबाव बनाया तो वह मुख्यमंत्री के कांटों के ताज को उतारकर बहाने बनाते हुए भाग गया। लेकिन इस बीच उसने दिल्ली के टटपुँजिया और अर्द्धसर्वहारा वर्गों में अपनी पकड़ बनायी। इसके लिए कई पैंतरों का इस्तेमाल किया गया। इसमें अपने विधायकों के ज़रिये झुग्गीवासियों के राशन कार्ड, जाति पहचान पत्र, वोटर कार्ड आदि बनवाने में मदद करवाना, रियायती दरों पर पानी, बिजली आदि देना, झुग्गी गिराने आदि की कार्रवाइयों पर आंशिक रूप से रोक लगाना आदि शामिल था। चूंकि भाजपा और कांग्रेस की सरकारों के विधायक इस हद तक भी आम निम्न मध्यवर्गीय जनता की पहुँच में नहीं रहते थे, इसलिए निम्न मध्यवर्ग के लोगों के बीच इस चीज़ ने ‘आप’ का एक आधार तैयार किया। पहले 49 दिनों में ही दिल्ली के व्यापारियों को सेल्स टैक्स व इनकम टैक्स विभाग के छापों से केजरीवाल सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में छुटकारा दिला दिया था। इसके कारण, दिल्ली के छोटे पूँजीपति वर्ग के एक बड़े हिस्से ने आम आदमी पार्टी का समर्थन शुरू कर दिया था। लेकिन अगले चुनावों के प्रचार में केजरीवाल ने मज़दूरों से पिछली बार किया ठेका प्रथा समाप्त करने का वायदा गोल कर दिया! अब केजरीवाल सरकार के तथाकथित ‘एक्शन प्लान’ से मज़दूरों के मसले ग़ायब थे। यह सच है कि राजनीतिक चेतना की कमी के कारण और कुछ सुधारों के आंशिक लाभप्राप्तकर्ता बनने के कारण दिल्ली के मज़दूरों के एक बड़े हिस्से ने फिर भी केजरीवाल को ही वोट दिया। लेकिन पिछले पाँच वर्षों में केजरीवाल की राजनीति और शब्दावली में मज़दूर वर्ग से जुड़े बचे-खुचे सन्दर्भ भी ग़ायब हो गये। दिल्ली के पूँजीपति वर्ग के समर्थन को सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक था। आम आदमी पार्टी का नेतृत्व यह भी जानता था कि मज़दूरों और ग़रीबों के बीच भाजपा और मोदी बुरी तरह से अलोकप्रिय हो चुके हैं और कांग्रेस उनके बीच अपनी विश्वस्नीयता पहले ही गंवा चुकी है। ऐसे में, यदि वह मज़दूरों के मसलों को अपने एजेण्डा से गायब भी कर दे, तो मज़दूर अधिकांशत: उसी को वोट देंगे। इस स्थिति का फ़ायदा केजरीवाल को मौजूदा चुनावों में भी मिला है।
जहाँ तक धार्मिक अल्पसंख्यकों की बात है, तो मोदी-शाह और संघ परिवार की विजय को रोकने के लिए उनके पास दिल्ली में और कोई विकल्प नहीं था। यह बात भी केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का नेतृत्व अच्छी तरह से समझते हैं। वस्तुत:, पिछले चुनावों के समय एक फ़ोन कॉल की रिकॉर्डिंग सामने आयी थी, जिसमें केजरीवाल साफ़ शब्दों में यह कह भी रहा था कि उसे चुनावों में मुसलमानों को टिकट देने की कोई मजबूरी नहीं है। उल्टे मुसलमानों के पास भाजपा का कोई विकल्प दिल्ली में मौजूद नहीं है, इसलिए वे आम आदमी पार्टी को ही वोट देंगे। इसलिए यह भी स्पष्ट है कि केजरीवाल और आम आदमी पार्टी धार्मिक अल्पसंख्यकों के कोई शुभचिन्तक नहीं हैं। वे विकल्पहीनता का लाभ उठा रहे हैं। मौक़ा पड़ने पर यदि ‘आप’ को अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ कोई कट्टरतावादी (शॉविनिस्ट) अवस्थिति अपनानी पड़ी, तो यक़ीनन वह हिचकेगी नहीं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच मौजूद प्रगतिशील, जनवादी और सेक्युलर हिस्से को यह बात समझ लेनी चाहिए और केजरीवाल की जीत पर ताली नहीं पीटनी चाहिए।
केजरीवाल और ‘आप’ की राजनीति इसी दक्षिणपन्थी अवसरवाद और व्यवहारवाद की विचारधारा पर आधारित है। यह विचारधारा आज के विशिष्ट ऐतिहासिक सन्दर्भ में ‘आप’ के मामले में दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद के रूप में सामने आती है। यह लोकरंजकतावाद ‘आप’ सरकार की कुछ असली और कुछ दिखावटी कल्याणकारी नीतियों में सामने आता है। इन कल्याणकारी नीतियों के एक हिस्से का लाभ आंशिक तौर पर समूची आम जनता को मिलता है। बाक़ी दिखावटी हैं, हालांकि उन्हें मॉडल के तौर पर पेश करने का काम ‘आप’ ने कुशलता से किया है। मिसाल के तौर पर, शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कुछ कार्य। कुछ स्कूलों को वाक़ई सुविधासम्पन्न बनाया गया है और उन्हें मॉडल स्कूलों के तौर पर बनाने का प्रयास किया गया है। लेकिन अभी भी दिल्ली में दस में से नौ राजकीय स्कूलों की हालत दयनीय है। लेकिन चन्देक मॉडल स्कूलों का ‘आप’ सरकार ने कुशलता के साथ प्रचार किया है। लोग यह भी भूल गये हैं कि मूल वायदा तो 500 नये स्कूल और 20 नये कॉलेज बनाने का था, जिनमें से एक भी वायदा पूरा नहीं किया गया। कुछ का लाभ आम जनता के एक हिस्से को एक हद तक मिला है, हालांकि लम्बी दूरी में उन योजनाओं का ख़र्च भी जनता से ही वसूला जायेगा और किसी भी रूप में पूँजीपति वर्ग पर उसका बोझ नहीं पड़ने दिया जायेगा। लोकरंजक नारों, जुमलों और नौटंकियों (मफ़लर, खांसी, आदि) के इस्तेमाल के अलावा इन लोकलुभावन लेकिन मूलत: और मुख्यत: दिखावटी कल्याणकारी नीतियों में ‘आम आदमी पार्टी’ का लोकरंजकतावाद दिखायी देता है। लेकिन साथ ही ‘आप’ हिन्दुत्ववादी राजनीति से सीधे बैर मोल लेने, पूँजीपति वर्ग को नाराज़ करने और मज़दूर वर्ग के लिए कोई वास्तविक काम करने से बचती है। यह श्रम क़ानूनों के प्रति उसके रवैये, मज़दूरों से किये गये वायदों के मामले में उसके विश्वासघात, पूँजीपरस्त नीतियाँ बनाने के मामले में उसकी तत्परता और हिन्दू पहचान का दिखावा करने और अन्धराष्ट्रवाद पर भाजपा की ही नाव की सवारी करने की उसी नीति में दिखता है। यह उसका दक्षिणपन्थ है। केजरीवाल सरकार शुरू से ही यूनियन विरोधी रही है, चाहे वह अस्पताल कर्मचारियों की हड़ताल रही हो या फिर आंगनबाड़ीकर्मियों की हड़ताल या फिर औद्योगिक मज़दूरों की हड़तालें और आन्दोलन।
कई मामलों में केजरीवाल की राजनीति यूनान की सिरिज़ा पार्टी की राजनीति की ‘मिरर इमेज’ है। सिरिज़ा की विचारधारा कई वाम व सामाजिक-जनवादी सुधारवादी विचारधाराओं का घोलमट्ठा थी, जिसे सुधारवादी व सामाजिक-जनवादी अवसरवाद और व्यवहारवाद कहा जा सकता है; ‘आप’ की विचारधारा कई दक्षिणपन्थी व सेण्टर-राइट (मध्य-दक्षिणपन्थी) विचारधाराओं की खिचड़ी थी, जिस पर भारतीय समाजवादियों और एनजीओपन्थियों की राजनीति का तड़का लगा हुआ था; इसे हम दक्षिणपन्थी और प्रतिक्रियावादी अवसरवाद और व्यवहारवाद कह सकते हैं। सिरिज़ा की वाम सुधारवादी अवसरवाद और व्यवहारवाद की विचारधारा की राजनीतिक अभिव्यक्ति थी वामपन्थी व सामाजिक-जनवादी लोकरंजकतावाद, जबकि ‘आप’ की दक्षिणपन्थी अवसरवाद और व्यवहारवाद की विचारधारा की राजनीतिक अभिव्यक्ति है उसकी दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी राजनीति।
- ‘आप’ का सामाजिक व राजनीतिक वर्ग आधार
हम वर्ग आधार की दो अर्थों में बात कर सकते हैं: सामाजिक रूप से और राजनीतिक रूप से। ‘आप’ का राजनीतिक वर्ग आधार दिल्ली में पूँजीपति वर्ग और निम्न-पूँजीपति वर्ग है (जिसमें छोटे उद्यमी और मध्य व उच्च मध्य वर्ग के तमाम संस्तर शामिल हैं)। राजनीतिक रूप से वर्ग आधार होने का अर्थ है कि ये वर्ग अपने राजनीतिक वर्ग हितों के प्रति सचेत हैं और इस बात को समझकर ‘आप’ का समर्थन करते हैं कि ‘आप’ उनके वर्ग हितों की सेवा करती है। इन वर्गों का ‘आप’ को समर्थन एक विकल्पहीनता की स्थिति में दिया गया नकारात्मक समर्थन या फिर राजनीतिक वर्ग चेतना के अभाव में दिया गया समर्थन नहीं है। यह राजनीतिक वर्ग हितों की स्पष्ट समझदारी के आधार पर दिया गया सोचा-समझा राजनीतिक समर्थन है। यह ‘आप’ का राजनीतिक (व सामाजिक) वर्ग आधार है।
अर्द्धसर्वहारा वर्ग और टटपुँजिया वर्गों के निम्नतम संस्तरों के लिए यह बात लागू नहीं होती है। वह अपने ही राजनीतिक वर्ग हितों के प्रति मूलत: और मुख्यत: अनभिज्ञ होने के कारण ‘आप’ को वोट देते हैं। पिछले 5 वर्षों में ‘आप’ ने झुग्गीवासियों, पटरी दुकानदारों, आटो चालकों, ई-रिक्शा चालकों, बेहद निम्न आर्थिक स्तर के जॉबरों, बिचौलियों आदि के लिए यानी अर्द्धसर्वहारा वर्ग और टटपुँजिया वर्ग के निम्नतर संस्तरों के लिए (जिन पर कि लगातार पूर्ण सर्वहाराकरण की तलवार लटकती रहती है) कोई विशेष वास्तविक क़दम नहीं उठाया है, सिवाय प्रशासन द्वारा उत्पीड़न को थोड़ा कम करने के और ‘पहुँच के भीतर रहने वाली सरकार’ की भ्रामक छवि बनाकर। लेकिन अपने राजनीतिक वर्ग हितों के प्रति सचेत न होने के कारण वे ‘आप’ की प्लेबियन और सबऑल्टर्न यानी निम्नवर्गीय शब्दावली और शैली से आकर्षित होकर उसे अपनी पार्टी के रूप में देखते हैं। यह वर्ग सिर्फ़ आर्थिक झटके खाकर अपने राजनीतिक वर्ग हितों के प्रति सचेत नहीं हो सकता है, बल्कि क्रान्तिकारी ताक़तों को इसे सतत् राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण भी देना पड़ेगा। इन दोनों प्रक्रियाओं के ज़रिये ही अर्द्धसर्वहारा वर्ग और टटपुँजिया वर्गों के निम्नतम संस्तर एक लम्बी प्रक्रिया में ‘आप’ के असली वर्ग चरित्र को समझ सकते हैं और क्रान्तिकारी विकल्प के निर्माण की आवश्यकता को समझ सकते हैं। इस प्रकार उपरोक्त वर्ग ‘आप’ का सामाजिक वर्ग आधार हैं, मगर राजनीतिक वर्ग आधार नहीं।
यह पूरी बात मज़दूर वर्ग के भी एक हिस्से पर लागू होती है। मज़दूर वर्ग के भी राजनीतिक रूप से पिछड़े और मंझोले संस्तर का एक हिस्सा वर्ग चेतना के अभाव का शिकार है और ‘आप’ की प्लेबियन व सबऑल्टर्न शब्दावली से आकर्षित होकर अपने ही वर्ग हितों के विपरीत जाकर ‘आप’ को समर्थन और वोट देता है, हालांकि वह उसे लेकर थोड़ा सशंकित भी रहता है क्योंकि सभी औद्योगिक क्षेत्रों में ‘आप’ के समर्थकों और वित्तपोषकों के तौर पर वह अपने ही मालिकों, ठेकेदारों, मकान-मालिकों, प्रापर्टी डीलरों, दुकानदारों और तरह-तरह के बिचौलियों व दलालों को भी देखता है। लेकिन फिर भी चूंकि उसके पास एक राजनीतिक वर्ग चेतना का अभाव होता है, इसलिए वह ‘आप’ को ही समर्थन देता है। मज़दूर वर्ग का यह हिस्सा भी राजनीतिक रूप से ‘आप’ का समर्थन आधार नहीं है, बल्कि वर्ग चेतना के अभाव में सामाजिक रूप से ‘आप’ का वर्ग आधार है।
लेकिन मज़दूर वर्ग के राजनीतिक रूप से उन्नत संस्तर और राजनीतिक रूप से पिछड़े और मंझोले संस्तरों का एक हिस्सा एक हद तक ‘आप’ के वर्ग चरित्र को पिछले पांच वर्षों में समझता गया है और जानता है कि उसके वर्ग शत्रुओं का समर्थन ‘आप’ को हासिल है, बल्कि दिल्ली में उसी समर्थन के आधार पर ‘आप’ टिकी हुई है। वह यह भी समझता है कि केजरीवाल सरकार ने मज़दूरों के लिए कुछ भी नहीं किया है, उल्टे मज़दूरों से किये गये सारे वायदों से मुकरकर मज़दूर वर्ग के साथ विश्वासघात किया है। लेकिन फिर भी वह विकल्पहीनता में ‘आप’ को दो कारणों से वोट देता है। पहला कारण यह है कि भाजपा को वह सीधे-सीधे धुर मज़दूर-विरोधी, ग़रीब-विरोधी, दमनकारी और तानाशाहाना पूँजीवादी पार्टी के रूप में पहचानता है और जो भी जिस भी राज्य में चुनावों में भाजपा को हराने की कूव्वत रखता है, उसे वोट देता है। दूसरा कारण यह है कि ‘आप’ की कुछ कल्याणकारी नीतियों का थोड़ा-बहुत लाभ उसे भी मिलता है या मिलता प्रतीत होता है। इसलिए एक ‘कम बुरे’ विकल्प को चुनने के तौर पर वह ‘आप’ को चुनावों में समर्थन देता है। सर्वहारा वर्ग इस रूप में महज़ सामाजिक रूप से चुनावों में ‘आप’ का वर्ग आधार है, हालांकि वह राजनीतिक वर्ग हितों की अपनी समझदारी के एक हद तक विकसित होने के कारण ‘आप’ के चरित्र को समझता भी है। क्रान्तिकारी ताक़तों को सर्वहारा वर्ग के बीच राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण और राजनीतिक कार्य के ज़रिये एक अलग क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की आवश्यकता की ज़रूरत का सतत् प्रचार करना चाहिए। उन्हें बताना होगा कि जब तक पूँजीवादी चुनावों के दायरे में मज़दूर वर्ग की अपनी स्वतंत्र राजनीतिक आवाज़ और पक्ष नहीं खड़ा होगा, तब तक मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग की इस या उस पार्टी का पिछलग्गू बनने को मजबूर होगा।
क्रान्तिकारी ताक़तों के लिए सर्वहारा वर्ग, अर्द्धसर्वहारा वर्ग और टटपुँजिया वर्गों के निम्न संस्तरों को राजनीतिक रूप से जीतना अपरिहार्य है। यह न सिर्फ़ दिल्ली में ‘आप’ और भाजपा को राजनीतिक चुनौती देने के लिए अनिवार्य है, बल्कि यह बाक़ी देश में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की ताक़त को आम तौर पर राजनीतिक चुनौती देने के लिए भी ज़रूरी है।
‘आप’ के प्रति भारतीय उदारवादियों (लिबरल्स) का रवैया
उदारवादियों की समस्या यह होती है कि वह हमेशा ‘कम बुरे’ की तलाश में रहते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के बाद जब भाजपा का नेतृत्व ज़्यादा हार्डलाइनर आडवाणी के हाथों में आया, तो ये लोग वाजपेयी की ‘कवि हृदयता’ को लेकर भर आये थे और आडवाणी को कोस रहे थे। ये भूल गये थे कि वाजपेयी की बाबरी मस्जिद को गिराने की प्रक्रिया में क्या भूमिका थी। जब आडवाणी को मोदी-शाह की और भी ज़्यादा हार्डलाइनर जोड़ी ने किनारे लगा दिया तो उन्हें आडवाणी अच्छे लगने लगे और वे उनके प्रति नॉस्टैल्जिक हो गये। यह पूरा तर्क ही न सिर्फ़ मूर्खतापूर्ण है, बल्कि आत्मघाती भी है।
‘आप’ की जीत के बाद भी हमारे लिबरल्स यही कर रहे हैं। वह उन्मादोन्मत्त हो गये हैं। फ़ासीवाद की हार के नगाड़े बजाये जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि हमें इस दानव से आख़िरी तौर पर छुटकारा मिल गया हो। अरविन्द केजरीवाल को हीरो बनाकर पेश करने वाले मीम्स बनाये जा रहे हैं। भाजपा की हार पर ख़ुशी हमें भी हो रही है और ऐसा होना किसी भी जनवादी और प्रगतिशील व्यक्ति के लिए लाज़िमी है। लेकिन इस हर्षातिरेक में इस क़दर मस्त नहीं हो जाना चाहिए कि यह सोचने लगें कि दिल्ली की जनता ने साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद को नकार दिया है। क्योंकि आम आदमी पार्टी को वोट करने वाली जनता का ठीक-ठाक हिस्सा ऐसा है, जिसकी शाहीन बाग़, सीएए-एनआरसी, कश्मीर के राष्ट्रीय दमन पर वही पोज़ीशन है जो कि भाजपा की है। इसका कारण स्पष्ट है: क्योंकि उनके चहेते केजरीवाल की भी इन प्रश्नों पर वही पोज़ीशन है, जो कि भाजपा की है। ऐसे में, आम आदमी पार्टी की जीत को दिल्ली की जनता द्वारा साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को नकार दिये जाने के रूप में व्याख्यायित करना एक भयंकर भूल होगी, राजनीतिक नादानी होगी और वह भी आत्मघाती क़िस्म की। क्योंकि यह समझना बहुत ज़रूरी है कि ‘आप’ की विचारधारा और राजनीति अन्तिम विश्लेषण में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की मुख़ालफ़त नहीं करती है, और विशिष्ट राजनीतिक सन्दर्भ में यह हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद को मज़बूत करने में योगदान भी कर सकती है। यह भूलना नहीं चाहिए कि केजरीवाल और ‘आप’ का उदय ही एक दक्षिणपन्थी राष्ट्रवादी आन्दोलन (‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’) से हुआ था, जो दिखाने के लिए भ्रष्टाचार के सवाल पर था, लेकिन जिसका असली मक़सद था साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की संघ परिवार की राजनीति के लिए पहले एक टटपुँजिया राष्ट्रवादी कंसेंसस तैयार करना, जिसे बाद में एक बारीक हाथ की सफ़ाई के ज़रिये ‘कम्युनल कंसेसस’ में तब्दील किया जा सके। वास्तव में, संघ परिवार ने यह काम सफलतापूर्वक किया भी। इसने भी मोदी के उभार और 2014 में उसकी जीत में एक अहम भूमिका निभायी थी। अगर आपको अण्णा हज़ारे के समूचे आन्दोलन का प्रतीकवाद याद हो, तो आप आराम से समझ सकते हैं कि यह आन्दोलन मूलत: और मुख्यत: स्वत:स्फूर्त नहीं था, बल्कि इसको खड़ा करने में संघ परिवार की केन्द्रीय भूमिका थी। चूंकि जनता 2012-13 से ही आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, स्त्री-विरोधी अपराधों आदि के कारण एक राजनीतिक मोहभंग से गुज़र रही थी, इसलिए उसके आकारहीन, आकृतिहीन और अन्धे क़िस्म के राजनीतिक ग़ुस्से, असन्तोष और प्रतिक्रिया को अण्णा हज़ारे और केजरीवाल के आन्दोलन ने एक दक्षिणपन्थी, राष्ट्रवादी और लोकरंजक अभिव्यक्ति दी, जिसने लम्बी दूरी में, मोदी के उभार की ज़मीन तैयार करने में एक अहम भूमिका निभायी। अरविन्द केजरीवाल इस पूरी प्रक्रिया में महज़ मोहरा रहा हो, इसकी गुंजाइश कम है। निश्चित तौर पर, संघ की पूरे आन्दोलन में भूमिका के विषय में उसे पता था। लेकिन उसकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी थी, जो कि अन्तत: ‘आप’ के गठन में अभिव्यक्त हुई। वास्तविक इतिहास में चीज़ें इसी द्वन्द्वात्मक रूप में घटित होती हैं। केजरीवाल के इस इतिहास को भी लिबरल्स अपने ‘ट्रेडमार्क’ लघुकालिक स्मृति के कारण भूल गये हैं।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि आम आदमी पार्टी की जीत किसी भी रूप में सेक्युलरिज़्म या जनवाद की विजय नहीं है। यह एक दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी राजनीति की एक विशिष्ट ऐतिहासिक सन्दर्भ में विजय है, जो कि आज के सन्धि-बिन्दु पर एक राज्य में लघुकालिक राजनीतिक अर्थों में चुनावी मैदान में देश की फ़ासीवादी पार्टी भाजपा के ख़िलाफ़ खड़ी है। स्वयं इस लोकरंजकतावादी राजनीति में फ़ासीवादी तत्व हैं, हालांकि इन तत्वों के पूर्ण रूप से फलने-फूलने की उम्मीद कम ही है। इसका कारण यह है कि समूचा राजनीतिक परिदृश्य द्वन्द्वात्मक रूप से विकसित होता है और भाजपा और संघ परिवार की फ़ासीवादी राजनीति और संगठन के जीवित रहते, इसकी उम्मीद ज़्यादा है कि आम आदमी पार्टी भ्रूण रूप में फ़ासीवादी तत्वों के साथ महज़ दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद के दायरे में ही बनी रहेगी। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि कल किसी अन्य सन्धिबिन्दु पर ‘आप’ की राजनीति भाजपा के साथ खड़ी भी दिख सकती है। अगर कल ऐसा होता है, तो समझदार लोगों को इस पर मुँह नहीं बाना चाहिए। मुँह बाने का काम हमें मूर्ख लिबरल्स पर छोड़ देना चाहिए! वैज्ञानिक विश्लेषण से इस सम्भावना की सम्भाव्यता को स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है। लेकिन टटपुँजिया उदारवादी विचारधारा रखने वाले लिबरल्स से ऐसी उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे इसे समझें। जब प्रतिक्रियावादी लिबरल्स को गाली देते हैं, तो वे शुक्र मनाते हैं कि ‘चलो, पीटा नहीं!’ जब प्रतिक्रियावादी पीट देते हैं, तो वे कहते हैं, ‘शुक्र है जान से नहीं मारा!’ जब प्रतिक्रियावादी जान से मार देते हैं, तो ज़िन्दा बचे लिबरल्स कुछ पुराने प्रतिक्रियावादियों को भावुक होकर याद करते हैं जो ‘इतने प्रतिक्रियावादी नहीं थे कि जान से मार दें!’ यह लिबरल्स के सोचने का तरीक़ा है। अरविन्द केजरीवाल ऐसे लिबरल्स का पोस्टर बॉय बना हुआ है तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए।
अन्त में…
अगले पाँच वर्षों के लिए दिल्ली में भाजपा कुछ अर्थों में राजनीतिक तौर पर हाशिये पर रहेगी, यह तात्कालिक तौर पर एक राहत और ख़ुशी की बात है। मगर राहत की आहों-कराहों में क्रान्तिकारी ताक़तों, प्रगतिशील, जनवादी और सेक्युलर लोगों को ज़्यादा मगन नहीं हो जाना चाहिए। यह आत्मघाती होगा। उल्टे हमें निम्न काम करने होंगे: पहला, केजरीवाल सरकार को मजबूर किया जाना चाहिए कि वह चुनाव घोषणापत्र में किये गये सारे वायदों को पूरा करे; दूसरा, केजरीवाल सरकार को मजबूर किया जाना चाहिए कि वह एक रोज़गार गारण्टी क़ानून दिल्ली राज्य स्तर पर पारित करे, क्योंकि रोज़गार राज्य सूची में आता है और दिल्ली सरकार के पास यह अधिकार है; तीसरा, हमें माँग करनी चाहिए कि केजरीवाल सरकार सीएए-एनआरसी-एनपीआर पर स्पष्ट स्टैण्ड ले और महाराष्ट्र, केरल, पंजाब के समान दिल्ली विधानसभा में इसके ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित करे; चौथा, हमें माँग करनी चाहिए कि सभी श्रम क़ानूनों का सख़्ती से पालन हो, इसके लिए श्रम विभाग में भर्तियाँ की जायें और उसे चुस्त-दुरुस्त बनाया जाय; पाँचवाँ, हमें माँग करनी चाहिए कि दिल्ली राज्य सरकार के मातहत आने वाले सभी स्कूलों में धार्मिक प्रार्थनाएँ, धार्मिक सभाएँ, धार्मिक प्रतीक आदि पूरी तरह से वर्जित हों और उन्हें पूर्ण रूप से सच्चे मायने में सेक्युलर बनाया जाय; छठवाँ, दिल्ली राज्य सरकार के मातहत आने वाले स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा को पूर्णत: निशुल्क बनाया जाय; सातवाँ, दिल्ली राज्य सरकार मॉब लिंचिंग व साम्प्रदायिक राजनीति पर पूर्ण रोक लगाने के लिए सख़्त क़ानूनों को पारित करे जिसमें कि कठोर दण्ड का प्रावधान हो; आठवां, हमें स्वास्थ्य का बीमा नहीं बल्कि निशुल्क स्वास्थ्य देखरेख की व्यवस्था चाहिए, इसलिए दिल्ली सरकार के मातहत आने वाले सभी अस्पतालों में चिकित्सा पूर्ण रूप से निशुल्क हो; नौवाँ, मज़दूरों हेतु सरकारी आवास के प्रोजेक्ट्स बनाये जाने की माँग उठायी जानी चाहिए। इसी प्रकार अन्य मज़दूर वर्गीय और मेहनतकश जनसमुदायों की माँगों की पहचान की जानी चाहिए और ‘आप’ सरकार से इन माँगों पर संघर्ष किया जाना चाहिए। इन संघर्षों की प्रक्रिया में ही ‘आप’ की आम आदमी वाली नौटंकी का पर्दाफ़ाश होगा और मेहनतकश जनता के विभिन्न वर्ग उसके असली वर्ग चरित्र को भी समझेंगे।
ये महज़ कुछ तात्कालिक कार्यभार हैं, कोई समूचा राजनीतिक कार्यक्रम नहीं। लेकिन हमें लगता है कि इन क़दमों से शुरुआत तो की ही जानी चाहिए, ताकि मज़दूर वर्ग को एक स्वतंत्र राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित किया जा सके और उसे व्यापक मेहनतकश अवाम के राजनीतिक नेतृत्व के रूप में तैयार किया जा सके।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2020
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