स्त्री मज़दूर
पेशागत बीमारियों और इलाज में उपेक्षा की दोहरी मार झेलती हैं स्त्री मज़दूर

कविता

आज देश भर में करोड़ों स्त्रियाँ हर तरह के उद्योगों में काम कर रही हैं। पूरे सामाजिक और पारिवारिक ढाँचे की ही तरह उद्योगों में भी स्त्री मज़दूर सबसे निचले पायदान पर हैं। सबसे कम मज़दूरी पर बेहद कठिन, नीरस, कमरतोड़ और थकाऊ काम उनके ज़िम्मे आते हैं। इसके साथ ही, काम की परिस्थितियों के चलते स्त्री मज़दूर तमाम तरह की पेशागत बीमारियों और स्वास्थ्य समस्याओं की शिकार हो रही हैं। किसी भी मज़दूर बस्ती में कुछ मज़दूरों के घरों में जाने पर इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। और कई सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं की रिपोर्टें  इस सच्चाई को आँकड़ों के साथ बयान करती हैं।

इलेक्ट्रानिक सामान, रेडीमेड गारमेण्ट और प्लास्टिक के सामान बनाने वाले उद्योगों में काम कर रही स्त्री मज़दूरों के बीच बड़े पैमाने पर किये गये एक सरकारी सर्वेक्षण के मुताबिक़ अधिकांश स्त्री मज़दूर पेशे के कारण होने वाली किसी न किसी समस्या से पीड़ित हैं। इनमें लगतार गर्मी, शोर और थरथराहट से भरे माहौल में काम करने के कारण सिरदर्द, तनाव, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियाँ, कई तरह के तीख़े केमिकल्स की गैसों, धुएँ और धूल-गर्द के बीच रहने से आँख, नाक, गले के रोग, फेफड़े की बीमारियाँ, घण्टों खड़े रहने के कारण स्थायी थकान और रीढ़ की हड्डी की समस्याएँ शामिल हैं। घण्टों तक खड़े रहने से कई स्त्रियों में बच्चेदानी की बीमारियाँ भी हो जाती हैं।

WOMEN_LABOURERS

तीनों ही उद्योगों की स्त्री मज़दूरों में मानसिक तनाव और उससे होने वाली बीमारियाँ पायी गयीं। लगातार एक ही मुद्रा में खड़े या बैठे रहकर 8-10 घण्टे तक एक जैसे काम करते रहने से माँसपेशियों में गम्भीर अन्दरूनी चोटें हो जाती है। इन स्त्री मज़दूरों में सिर दर्द, पीठ व कमर दर्द, खाँसी, टीबी, साँस फूलना, ख़ून की कमी, ब्लडप्रेशर, चमड़ी के रोग, दिल की बीमारियाँ, ऑंखों में जलन, रोशनी कम होना, पेट की गड़बड़ी, सुनने की शक्ति कम होना आदि समस्याएँ बड़े पैमाने पर पायी गयीं।

राजधानी दिल्ली सहित सारे देश में आजकल धुआँधार निर्माण कार्य चल रहे हैं, जिधर देखो ऊँची-ऊँची दैत्याकार इमारतें खड़ी हो रही हैं। देश के करीब साढ़े तीन करोड़ निर्माण मज़दूरों में लगभग आधी स्त्रियाँ हैं। सभी निर्माण मज़दूर बेहद ख़राब हालात में काम करते हैं लेकिन इनमें भी स्त्री मज़दूरों की स्थिति और भी ख़राब है। एक स्वयंसेवी संस्था की रिपोर्ट के अनुसार निर्माण उद्योग में काम करने वाली स्त्रियाँ गर्दन, रीढ़, पीठ कमर और टाँगों के दर्द से बुरी तरह पीड़ित होती हैं। बोझ उठाने वाली मज़दूरों में लगातार दबाव की वजह से लकवा मार जाने की घटनाएँ भी अकसर होती रहती हैं। निर्माण स्थानों पर उठने वाली धूल-राख- सीमेण्ट आदि के बीच लगातार रहने से सिलिकोसिस और ब्रोंकाइटिस जैसी फेफड़े की बीमरियाँ और त्वचा के रोग आम बात हैं। निर्माण स्थलों पर छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ तो रोज़ की बात हैं। सीढ़ियों से ‍फिसलकर गिर जाने, ऊँचाई से गिरने, खोदे जा रहे गङ्ढे या दीवार आदि के ढह जाने, क्रेन की चेन टूटने से या अन्य वजहों से गिरे भारी सामान के नीचे दब जाने से मौत या ज़िन्दगी भर के लिए अपंग हो जाने का डर साये की तरह उनका पीछा करता रहता है। निर्माण कम्पनियाँ और ठेकेदार सुरक्षा उपायों पर होने वाले ख़र्च करने को फालतू ख़र्च मानते हैं। आख़िर, जब उन्हें बिना किसी दिक्कत के बेहद कम क़ीमत पर मज़दूर मिलते ही रहते हैं, तो वे सुरक्षा जाल, सुरक्षा पेटी, हेल्मेट, रेलिंग, उपकरणों के नियमित मेनटेनेंस आदि पर पैसे बर्बाद क्यों करें?

दिल्ली के कई इलाक़ों  में मसालों की पिसाई और पैकिंग के काम में हज़ारों स्त्रियाँ लगी हुई हैं। इनमें 60-70 से लेकर 100 स्त्रियों तक को काम पर लगाने वाली कम्पनियों से लेकर 4-5 स्त्रियों वाली छोटी-छोटी इकाइयाँ तक शामिल हैं। सुबह से रात तक मसालों की धूल के सम्पर्क में रहने से इन स्त्रियों को आँख, नाक, साँस की समस्याएँ, त्वचा पर जलन व खुजली और एलर्जी जैसी परेशानियाँ होती रहती हैं। लगातार सिरदर्द और हथेलियों पर छाले पड़ना भी सामान्य बात है। नाक और मुँह के रास्ते मसालों की बारीक़ धूल पेट में जाते रहने से बहुत-सी मज़दूरों को आँतों में जलन या घाव भी हो जाते हैं। अचार उद्योग में काम करने वाली स्त्रियों की भी ऐसी ही समस्याएँ होती हैं। लोगों के खाने में स्वाद भरने वाले मसालों और अचार के पीछे की इस कड़वी हक़ीक़त का पता शायद ही किसी को चलता है।

दिल्ली तथा नोएडा की सूती और ऊनी कपड़े तैयार करने वाली इकाइयों में स्त्री कामगारों के बारे में 2 वर्ष पहले आयी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अन्य समस्याओं के साथ-साथ सूत और ऊन के महीन धागे कारख़ाने के हॉल की हवा में भरे रहते हैं। इसकी वजह से स्त्री मज़दूरों में साँस फूलने और सीने में दर्द की शिकायतें बहुत अधिक पायी जाती हैं। रेडीमेड कपड़ों के कारख़ानों में कपड़े प्रेस करने वाली स्त्रियों में भीषण गर्मी से सिरदर्द, मितली, चक्कर और बेहोशी तक हो जाती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार एक बड़ी कम्पनी की क्लिनिक में रोज़ाना लगभग 100 स्त्री मज़दूरों का सिरदर्द, चक्कर, बेहोशी आदि के लिए हलाज करना पड़ता है।

उपरोक्त रिपोर्टों में इस बात के भी ब्योरे हैं कि इन उद्योगों में काम की परिस्थितियाँ ही स्त्री मज़दूरों की इन स्वास्थ्य समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं। कहीं भी सुरक्षा और बचाव के उचित इन्तज़ाम नहीं किये जाते हैं। बहुतेरे कारखानों में तो पीने का साफ़ पानी तक नहीं होता। स्त्रियों के लिए अलग शौचालय या तो होते ही नहीं या बेहद गन्दे होते हैं। शौचालय जाने से बचने के लिए बहुतेरी स्त्री मज़दूर दिनभर कुछ खाती-पीती ही नहीं हैं जिसकी वजह से भी उन्हें कई बीमारियाँ हो जाती हैं। बहुत ही कम कारख़ानों में दुर्घटना या बीमारी की हालत में स्त्री मज़दूरों को तुरन्त उपचार मुहैया कराने का इन्तज़ाम है। कहीं-कहीं तो प्राथमिक चिकित्सा तक का इन्तज़ाम नहीं होता। गर्भवती स्त्री मज़दूरों की स्थिति तो और भी ख़राब होती है। सरकारी कर्मचारियों और चन्द बड़ी कम्पनियों की स्थायी कामगारों के लिए तो गर्भावस्था अवकाश का क़ानून लागू है लेकिन करोड़ों असंगठित स्त्री मज़दूर आख़िरी समय तक काम पर जाने के लिए मजबूर हैं। उन्हें न तो कोई छुट्टी मिलती है और न ही गर्भावस्था के लिए किसी तरह का कोई विशेष लाभ दिया जाता है। उल्टे, ज़्यादातर मालिक तो उन्हें काम से ही निकाल देते हैं। परिवार की ग़रीबी और बच्चे के जन्म के लिए कुछ पैसे बचाने के लिए स्त्री मज़दूर अक्सर प्रसव के एक दिन पहले तक काम करती रहती हैं और प्रसव के बाद भी जल्द-से-जल्द वापस काम पर जाने की कोशिश करती हैं। गर्भावस्था के अन्तिम कुछ महीनों में कठिन काम करने के कारण कई स्त्रियों को प्रसव में जटिलताएँ पैदा हो जाती हैं या कभी-कभी गर्भपात भी हो जाता है।

यह पूरी स्थिति तब और भी गम्भीर नज़र आती है जब हम यह देखते है कि इलाज़ और देखभाल में भी स्त्री मज़दूरों को उपेक्षा और लापरवाही का सामना करना पड़ता है। यह स्थिति कारख़ानों से लेकर घर-परिवार तक होती है। स्त्री मज़दूरों की विशेष ज़रूरतों का धयान किसी कारख़ाने में नहीं रखा जाता। उनके लिए अलग साफ़-सुथरे शौचालय और काम के बीच में थोड़ा आराम करने की जगहें कहीं नहीं होतीं। अगर किसी कारखाना इलाक़े  में कोई क्लिनिक है भी तो वहाँ स्त्री डॉक्टर नहीं होती।

पुरुष वर्चस्ववादी सोच मज़दूरों के बीच भी हावी है जिसका खामियाज़ा भी स्त्रियों को झेलना पड़ता है। बीमार या कमज़ोर या गर्भवती होने पर स्त्रियों को अकसर काम की जगह पर मज़ाक, ताने, डाँट-फटकार या गालियों का सामना करना पड़ता है। घर पर भी अक्सर उन्हें अपने पति या परिवार के पुरुष सदस्यों से मदद या संवेदनशीलता भरा व्यवहार नहीं मिलता। उनके इलाज में अक्सर लापरवाही बरती जाती है और अगर घर में कोई दूसरी स्त्री नहीं है तो उनकी ठीक से देखभाल भी नहीं होती। जो पुरुष ख़ुद बीमार होने पर स्त्री से उम्मीद करता है कि वह उसकी जी-जान से सेवा करे वह स्त्री के बीमार होने पर उसकी देखभाल को बोझ समझता है और अक्सर किसी-न-किसी बहाने उससे भागा रहता है। ऐसे में स्त्री मज़दूर अक्सर अपनी बीमारी को काफ़ी समय तक छिपाती रहती हैं और चुपचाप तकलीफ़ झेलती रहती हैं।

सरकारी-ग़ैरसरकारी रिपोर्टें  स्त्री मज़दूरों की हालत की सिर्फ़ एक झलक दिखाती हैं। ज़मीनी तौर पर स्थितियाँ और भी भयंकर हैं। मगर इन स्थितियों को बदलने के लिए इन रिपोर्टों में सुझाये गये उपाय या तो महज़ पैबन्दसाज़ी होते हैं या फिर वे कहीं लागू ही नहीं किये जाते। पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा के अधिकारों के लिए लड़ना स्त्री मज़दूरों के संघर्ष का एक अहम मुद्दा होगा। बेशक़, यह संघर्ष अलग-थलग नहीं, बल्कि व्यापक मज़दूर आबादी के साथ जुड़कर ही चलेगा लेकिन स्त्री मज़दूरों की विशेष समस्याओं को उसमें दरकिनार न कर दिया जाये, इसके लिए स्त्री मज़दूरों को संगठित होकर आवाज़ उठानी होगी।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2012

 


 

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