मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (नवीं किश्त)

सनी

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पिछली किश्त में हमने इण्टरनेशनल की स्थापना और उसके जीवनकाल के दौरान हुए संघर्षों में मार्क्स-एंगेल्स की भूमिका पर चर्चा की थी। इण्टरनेशनल के बनने और उसमें सही विचारधारा के अधिपत्य के लिए मार्क्स-एंगेल्स ने ब्रिटिश सुधारवादियों, लासालपन्थियों, प्रूधोंवादियों तथा बाकुनिनपन्थियों से तीखा संघर्ष चलाया और मज़दूर आन्दोलन में सही विचारधारा व कार्यदिशा को स्थापित किया। इण्टरनेशनल के औपचारिक तौर पर समाप्त होने के बाद भी मार्क्स-एंगेल्स अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन के परामर्शदाता बने रहे। सर्वहारा वर्ग की कार्यनीति के सन्दर्भ में बात करें तो यह दौर प्राथमिक तौर पर मज़दूर वर्ग की पार्टियों के गठन का दौर था। निश्चित ही ये पार्टियाँ लेनिनवादी पार्टियाँ नहीं थीं, परन्तु लेनिनवादी पार्टी की वे पूर्वज पार्टियाँ थीं जिनके व्यवहार, कार्यक्रम तथा वैचारिक अवस्थिति से बोल्शेविक पार्टी के गठन हेतु ज़रूरी सबक हासिल हुए, नकारात्मक भी और सकारात्मक भी। 1870 के दशक से ही पश्चिमी यूरोप में मज़दूर पार्टियाँ बननी शुरू हो गयी थीं। इस दौर में मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व की महती भूमिका रही। यह लेनिनवादी पार्टी के गठन से पहले का वह दौर है जिसने पार्टी अवधारणा हेतु ज़रूरी व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक शिक्षाएँ दीं। हम कम्युनिस्ट लीग और इण्टरनेशनल के दौर में लेनिनवादी पार्टी के पूर्वाधार के तौर पर मार्क्स-एंगेल्स की शिक्षाओं पर बात कर चुके हैं। लेनिनवादी पार्टी के सिद्धान्तकार लेनिन ने सबसे अधिक उपरोक्त दौर में बनी पार्टियों के स्वरुप तथा वैचारिक व सांगठनिक बहसों से सीखा। लेनिन लिखते हैं:  

“संसार के सभी देशों में मज़दूर आन्दोलन के पहले से कहीं अधिक विकास के युग के लिए, यानी उसके कार्यक्षेत्र के बढ़ने के युग के लिए, अलग-अलग राष्ट्रीय राज्यों के आधार पर सर्वजनीन समाजवादी मज़दूर पार्टियों की स्थापना के युग के लिए स्थान बनाकर पहले इण्टरनेशनल ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका समाप्त कर दी।” (लेनिन, कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षा, पृ. 9)

मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व में ही कई देशों में मज़दूर पार्टियाँ अस्तित्व में आई। हालाँकि अभी भी विजातीय प्रवृतियों का प्रभाव मौजूद था जिसके ख़िलाफ़ मार्क्स-एंगेल्स ने तीखा संघर्ष छेड़ा। मार्क्स-एंगेल्स ने यूरोप के मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व में मौजूद जर्मन मज़दूरों और उनकी पार्टी के गठन, उसकी विचारधारा, कार्यक्रम और उसके ढाँचे पर जो कहा वह मज़दूर वर्ग की पार्टी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सबक हैं। जर्मनी में मज़दूर वर्ग की ऐसी मज़दूर पार्टी खड़ी हुयी जो मार्क्सवादी नज़रिये के क़रीब थी। इसका कारण जर्मनी के मज़दूर आन्दोलन में निहित हैं। विचारधारात्मक तौर पर सशक्त मज़दूर आन्दोलन के बीच से ही यह पार्टी निकली। जर्मन मज़दूर आन्दोलन के सशक्त होने के पीछे के कारण पर बात करते हुए एंगेल्स बताते हैं: 

जर्मन मज़दूरों को बाक़ी यूरोप के मज़दूरों के मुक़ाबले दो महत्वपूर्ण लाभ हैं। पहला यह है कि वे यूरोप के सबसे अधिक सैद्धान्तिक लोगों में से हैं और उन्होंने सिद्धान्त की उस समझ को जीवित रखा है, जो जर्मनी के तथाकथित शिक्षितवर्गों में लगभग एकदम मर चुकी है। संसार में अभी तक केवल एक वैज्ञानिक समाजवाद हुआ है, यानी जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद, और वह अभी अस्तित्व में न आता, यदि उसके पहले जर्मन दर्शन, विशेषकर हेगेल का दर्शन न पैदा हो चुका होता। मज़दूरों में यदि सिद्धान्त की समझ न होती, तो यह वैज्ञानिक समाजवाद उनकी नस-नस में उस तरह कभी न समा पाता, जिस तरह वह आज समा गया है। यह कितना बेहिसाब लाभ है, इसका अन्दाज़ा एक तरफ़ तो हर प्रकार के सिद्धान्तों के प्रति उदासीनता से लगाया जा सकता है, जो इस बात का मुख्य कारण है कि अंग्रेज़ मज़दूरों का आन्दोलन अलग-अलग यूनियनों के शानदार संगठन के बावजूद इतने धीरे-धीरे रेंगता हुआ बढ़ रहा है। दूसरी तरफ़, इसका अन्दाज़ा उस भ्रम और उन गड़बड़ियों से भी लगाया जा सकता है, जिन्हें प्रूदोंवाद ने अपने मूल रूप में फ़्रांसीसी और बेल्जियन मज़दूरों के बीच तथा बाकुनिन द्वारा विकृत रूप में स्पेन और इटली के मज़दूरों के बीच फैला दिया था।

जर्मन लोग मज़दूरों के आन्दोलन में सबसे आख़िर में शामिल हुए हैं। जिस प्रकार जर्मनी का सैद्धान्तिक समाजवाद यह कभी नहीं भूल सकता कि यह सेंट-सीमों, फ़ूरिये तथा ओवेन के कन्धों पर टिका हुआ है–उन तीन विचारकों के कन्धों पर, जिन्हें उनकी शिक्षाओं के तमाम ऊटपटांग विचारों और समस्त यूटोपियनवाद के बावजूद तमाम युगों के महान विचारकों में गिना जायेगा, जिनकी विलक्षण प्रतिभा ने ऐसी कितनी ही बातों को पहले से ही देख लिया था, जिनके औचित्य को अब हम वैज्ञानिक ढंग से प्रमाणित कर रहे हैं — उसी प्रकार जर्मन मज़दूरों के व्यावहारिक आन्दोलन को भी यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह अंग्रेज़ और फ़्रांसीसी मज़दूरों के आन्दोलनों के कन्धों पर बढ़ा और विकसित हुआ है, कि इन आन्दोलनों ने बड़ी क़ीमत देकर जो अनुभव प्राप्त किया था, जर्मन आन्दोलन ने उससे केवल लाभ उठाया है, कि वह अब उनकी ग़लतियों से बच सका है, जिनसे बचना उस समय प्रायः असम्भव ही था। अंग्रेज ट्रेड-यूनियनों तथा फ़्रांसीसी मज़दूरों के पृष्ठभूमि हमारे पास न होती, ख़ास तौर पर यदि जरा सोचिये कि यदि राजनीतिक संघर्षों की हमारे पास वह महान प्रेरणा न होती, जो हमें पेरिस कम्यून से प्राप्त हुई है, तो आज हम कहाँ होते ?” (एंगेल्स, प्राक्कथन, जर्मनी में किसान युद्ध)

जर्मन मज़दूर आन्दोलन यूरोप के मज़दूर आन्दोलन के हिरावल की भूमिका निभा रहा था। लेकिन उस समय यह केवल मार्क्स के विचारों से ही प्रभावित नहीं था। 1860 के दशक में जर्मनी की दो मज़दूर पार्टियाँ अस्तित्व में आ चुकी थीं; लासाल के नेतृत्व में बनी ‘जनरल जर्मन वर्कर्स एसोसिएशन’ नामक पार्टी, जो लासाल के ग़लत विचारों के इर्द-गिर्द बनी थी तथा लीब्कनेख़्त, बेबेल व ब्राके के नेतृत्व में बनी समाजवादी मज़दूर पार्टी (आइज़ेनाख़ पार्टी) जो मार्क्स-एंगेल्स के विचारों के क़रीब पड़ती थी। इन दोनों पार्टियों  ने 1875 में  गोथा में सम्मेलन कर एकता कर ली। मार्क्स और एंगेल्स ने आइज़ेनाख़ पार्टी के नेता लीब्कनेख़्त और बेबेल को इस एकता के विरुद्ध में पहले भी आगाह किया था। मार्क्स-एंगेल्स ने पहले ही कहा था कि केवल कार्रवाई हेतु एकता तो की जा सकती थी परन्तु कार्यक्रम व सिद्धान्तों के प्रश्न पर एकता करना अवसरवाद होगा। लेनिन के शब्दों में:

“मार्क्स ने पार्टी के नेताओं को लिखा था कि यदि आप लोग संयुक्त होना ही चाहते हैं, तो आन्दोलन के व्यावहारिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए समझौते कीजिए, पर उसूलों के सवाल पर कभी कोई सौदेबाज़ी मत होने दीजिए, सिद्धान्तों के सवाल पर कोई “रियायत” मत कीजिए।”

परन्तु यही हुआ और 1875 में गोथा में दोनों पार्टियाँ साथ आ गयीं और जर्मनी की सामाजिक-जनवादी पार्टी के बैनर तले एकजुट हुई। पारित कार्यक्रम में लासाल के विचारों को छूट दी गई थी जबकि 1869 के आइज़ेनाख़ पार्टी के कार्यक्रम की भी ग़लतियों की ओर मार्क्स-एंगेल्स ने इशारा किया था। एंगेल्स ने बेबेल को इस एकता के उपरान्त लिखा था: 

हमारी पार्टी ने लासालवादियों के सामने मेल के या कम से कम सहयोग के प्रस्ताव इतनी बार रखे और हाज़ेनक्लेवेरो, हैस्सेलमैनों तथा ट्योल्केओं द्वारा वह इतनी बार तिरस्कारपूर्वक दुत्कारी गयी है कि कोई बच्चा भी यही निष्कर्ष निकालता कि यदि ये सज्जन अब स्वयं आगे बढ़कर मेल का प्रस्ताव कर रहे हैं तो इनकी हालत बहुत तंग होनी चाहिए। लेकिन इन लोगों के सुविदित चरित्र को ध्यान में रखते हुए हमारा यह कर्तव्य है कि हम हर सम्भव गारण्टी प्राप्त करने के लिए इनकी इस तंग हालत का उपयोग करे ताकि ये हमारी पार्टी के बल पर मज़दूरों में अपनी कमज़ोर स्थिति को फिर से मज़बूत न बना पाये। उनके साथ अत्यन्त उपेक्षा और अविश्वास के साथ पेश आना चाहिए था और मेल को इस बात पर निर्भर कर देना चाहिए था कि किस हद तक वे अपने सम्प्रदायवादी नारों और अपनीराजकीय सहायताको छोड़ने और 1869 के आइज़ेनाख़ कार्यक्रम या वर्तमान स्थिति के अनुकूल उसके संशोधित रूप को तत्वतः स्वीकार करने के लिए तैयार है। हमारी पार्टी को सैद्धान्तिक क्षेत्र में और इसलिए कार्यक्रम के लिए निर्णायक चीज़ों में लासालवादियों से बिल्कुल कुछ नहीं सीखना है, लेकिन लासालवादियों को अवश्य हमारी पार्टी से कुछ सीखना है। एकता की पहली शर्त यह होनी चाहिए थी कि वे सम्प्रदायवादी लासालवादी न रहें और अतः सर्वोपरि शर्त यह है कि राजकीय सहायता की रामबाण औषधि यदि पूर्णत: तजी नहीं जाती तो किसी भी सूरत में वह उनके द्वारा अन्य कई सम्भव उपायों में से एक गौण संक्रमणकालीन उपाय के रूप में स्वीकारी जानी चाहिए। कार्यक्रम का प्रस्ताव सिद्ध करता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से हमारे लोग लासालवादी नेताओं से सैकड़ों गुना श्रेष्ठ हैं पर राजनीतिक चालाकी में वे उनसे इतने ही नीचे भी हैं; खरे (आईसनाख़वादियों को खरा कहा जाता था) लोग एक बार फिर खोटे लोगों द्वारा निर्ममतापूर्वक छले गये हैं। (एंगेल्स, बेबेल को एंगेल्स का पत्र, मार्च 18-28, 1875)

मार्क्स-एंगेल्स ने गोथा कार्यक्रम की सुसंगत आलोचना की और यह आलोचना ऐतिहासिक भौतिकवाद का एक ज़रूरी दस्तावेज़ बन गया। यह दस्तावेज़ कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम का कम्युनिस्ट घोषणापत्र के बाद सबसे प्रमुख दस्तावेज़ था। मार्क्स ने इसमें पूँजीवाद से कम्युनिज़्म के बीच समाजवादी संक्रमणकाल की व्याख्या की तथा यह बताया कि किस प्रकार राज्य का विलोपीकरण होता है, हालाँकि मार्क्स के ये तमाम प्रेक्षण लासालपन्थ की तीखी आलोचना के आवेग में कहीं छिप-से जाते हैं। लेनिन बताते हैं कि :

इस अनूठी कृति के खण्डनात्मक भाग ने, जिसमें लासालपथ की आलोचना है- एक तरह से उसके मण्डनात्मक भाग को यानी कम्युनिज़्म के विकास और राज्य के विलोप के सम्बन्ध के विश्लेषण को दबा दिया है।” (लेनिन, राज्य और क्रान्ति, मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन कृत सर्वहारा अधिनायकत्व लेख संग्रह,
पृ. 158-159)

लेनिन ने मार्क्स के इस दस्तावेज़ की थीसिस को सर्वहारा राज्य और समाजवादी क्रान्ति के समूचे सिद्धान्त की समाहार-मूलक थीसिस कहा। लेनिन ने इसके “मण्डनात्मक भाग” पर चर्चा करते हुए लिखा: 

आधुनिक पूँजीवाद पर विकास के सिद्धान्त को उसके सबसे सुसंगत, पूर्ण, विचारनिष्ठ और अर्थपूर्ण रूप से लागू करना ही मार्क्स का पूरा सिद्धान्त है। स्वभावतः मार्क्स के सामने इस सिद्धान्त को पूँजीवाद के आनेवाले पतन और भावी कम्युनिज़्म के भावी विकास, दोनों पर लागू करने का सवाल था।

“भावी कम्युनिज़्म के भावी विकास के प्रश्न की विवेचना किन तथ्यों के आधार पर की जा सकती है?

इस तथ्य के आधार पर कि उसका जन्म पूँजीवाद से होता है, कि ऐतिहासिक दृष्टि से वह पूँजीवाद के भीतर से विकसित होता है, कि उसकी उत्पत्ति उस सामाजिक शक्ति की क्रिया के परिणामस्वरूप होती है, जिसको पूँजीवाद ने पैदा किया है। मार्क्स ने किसी प्रकार के यूटोपिया की तस्वीर खींचने की या एक अज्ञेय वस्तु के सम्बन्ध में व्यर्थ की हवाई उड़ानें भरने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। कम्युनिज़्म के प्रश्न को मार्क्स बिलकुल उसी ढंग से पेश करते हैं, जैसे कोई प्रकृतिविज्ञानी, समझ लीजिए, किसी नयी जैव उपजाति के विकास पर विचार करेगा, यदि वह जानता हो कि वह इस प्रकार पैदा हुई और इस निश्चित दिशा में परिवर्तित हो रही है।” (लेनिन, वही, पृ. 160)

“खण्डनात्मक भाग” में मार्क्स ने गोथा कार्यक्रम में लासाल की टुटपुँजिया अवसरवादी लाइन को बेनक़ाब किया। गोथा कार्यक्रम में मार्क्स ने लासाल के सम्पत्ति पर काल्पनिक समाजवादी विचारों, मज़दूर वर्ग को एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग बताने व मेहनतकश जनसमुदायों के अन्य वर्गों को “प्रतिक्रियावादी समूह” बताने वाम-हिरावलपन्थी सोच, “राजकीय सहायता” की ग़ैर-सर्वहारा अवधारणा, उजरत के लौह-नियम के ग़लत सिद्धान्त, सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद के निषेध और राज्य के प्रश्न ग़लत समझदारियों की मार्क्स ने आलोचना रखी। मार्क्स ने लासाल के बिस्मार्क के साथ समझौतों को भी आड़े हाथों लिया। मार्क्स की ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना’ को पार्टी ने पूर्णतः स्वीकार नहीं किया। इस समझौते के चलते पार्टी में कई ढुलमुल तत्व भी शामिल हुए। ड्यूहरिंग के अलावा ह्योखवर्ग, बर्नस्टीन भी पार्टी में घुस गए थे। इस परिस्थिति पर टिप्पणी करते हुए मार्क्स ने लिखा : 

“जर्मनी में हमारी पार्टी मे दुर्गन्ध व्याप्त है। इतनी जनसाधारण में नहीं, जितनी कि नेताओं (उच्च वर्ग और “मज़दूरों”) में। लासालवादियों के साथ समझौते ने अन्य सन्दिग्ध तत्वों के साथ–बर्लिन में (मोस्ट के ज़रिये) ड्यूहरिंग और उनके “प्रशंसकों” के साथ और इनके अलावा अधकचरे विद्यार्थियों और अतिबुद्धिमान “दर्शन के डाक्टरों” के साथ जो समाजवाद को “सर्वोच्च भाववादी” दिशा देना चाहते हैं, यानी इसके भौतिकवादी आधार (जिसकी अपेक्षा है कि प्रयोग किये जाने से पहले उसका गम्भीर वस्तुपरक अध्ययन करना चाहिए) की जगह न्याय, स्वतन्त्रता समानता और बन्धुत्व की देवियों के साथ आधुनिक पुराणविद्या को कायम करना चाहते हैं–समझौते के लिए विवश कर दिया है। ज़ुकुंफ्ट (Zukunft) पत्रिका के प्रकाशक डा० ह्योखवर्ग इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधि है। और मेरे ख़याल से वह  “उदात्ततम इरादों” से पार्टी में “घुस आये हैं” लेकिन मैं “इरादों” की ज़रा भी परवाह नहीं करता। ज़ुकुंफ्ट (Zukunft) के उनके कार्यक्रम से अधिक घटिया और अधिक ‘तुच्छ आडम्बर” से पूर्ण कोई चीज़ शायद ही प्रकाश में आयी हो।

“प्रतीत होता है कि स्वयं मज़दूर जब काम छोड़ देते हैं और मोस्ट और उनकी मण्डली की तरह पेशेवर साहित्यकार बन जाते हैं, तो हमेशा “सैद्धान्तिक” शरारत शुरू करते हैं और हमेशा तथाकथित “विद्वान” वर्ग के बेवकूफ़ों में शामिल होने को तत्पर रहते हैं। दशकों से हम एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर जर्मन मज़दूरों के दिमागों से कल्पनावादी समाजवाद, भावी समाज के बारे में काल्पनिक तस्वीरों को हटा रहे हैं और इससे उनकी मुक्ति ने ही उन्हें सैद्धान्तिक रूप से (इसलिए व्यावहारिक रूप से भी फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ मज़दूरों से श्रेष्ठ बना दिया है)। लेकिन कल्पनावादी समाजवाद न केवल महान फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ कल्पनावादियों की तुलना में, बल्किवाइटलिंग की तुलना में भी अधिक निरर्थक रूप में पुनः व्याप्त हो गया है। स्वभावतया कल्पनावादी सिद्धान्त, जो भौतिकवादी आलोचनात्मक समाजवाद से पहले वाइटलिंग में बीज रूप में विद्यमान था अब विलम्बित रूप से प्रकट होते हुए केवल भद्दा घिसापिटा और मूलतः प्रतिक्रियावादी ही हो सकता है।” (मार्क्स, ज़ोर्गे को मार्क्स, 19 अक्टूबर, 1877)

जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी के इतिहास में दूसरा महत्वपूर्ण संघर्ष मार्क्स द्वारा इंगित “भद्दा घिसापिटा और मूलतः प्रतिक्रियावादी” कल्पनावादी सिद्धान्त के एक प्रणेता ड्यूहरिंग के ख़िलाफ़ चला। ड्यूहरिंग ने अपने इर्द-गिर्द एक मण्डली एकत्रित कर ली थी जो उसके अनर्गल सार संग्रहवादी विचारों को समाजवादी विचारों के रूप में प्रचारित कर रही थी। ड्यूहरिंग के विचारों के इर्दगिर्द बनाने वाले गुट से नवगठित पार्टी की एकता को ख़तरा था और उन्नत मज़दूरों तथा छात्रों के बीच ड्यूरिंग के विचार पहुँच तरह थे। इन विचारों का खण्डन एंगेल्स ने अपनी कृति ‘ड्यूहरिंग मत-खण्डन’ में किया और साथ ही इस पुस्तक से मार्क्सवाद को व्यवस्थित रूप में प्रचारित किया। 

तीसरा महत्वपूर्ण संघर्ष तब शुरू हुआ जब जारबूख़ अखबार ज़्यूरिख़ से ह्योख़बर्ग, बर्नस्टीन और श्राम्म ने निकालना शुरू किया। ये तीनों मार्क्सवाद और पेरिस कम्यून के खिलाफ़ बात रख रहे थे और बिस्मार्क के साथ समझौते का आह्वान कर रहे थे। तीनों ने वर्ग सहयोग की लाइन पेश की और मज़दूर वर्ग को क्रान्तिकारी वर्ग मानने से भी इन्कार किया। इसके ख़िलाफ़ मार्क्स-एंगेल्स ने बेबेल, लीब्कनेख़्त और ब्राके को ‘गश्ती चिट्ठी’ लिखी जो कि राजनीतिक अवसरवाद के ख़िलाफ़ लिखे सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों में से एक है। मार्क्स-एंगेल्स तीनों “विद्वानों” को टुटपुँजिया बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि घोषित करते हैं और उनके समाजवादी चोगे में बुर्जुआ राजनीति का पर्दाफाश करते हैं। आज भी संशोधनवाद के पंककुण्ड में डूबे अवसरवादियों के मुँह पर यह चिट्ठी तमाचे के समान पड़ती है। 

पार्टी के सन्दर्भ में चौथा संघर्ष ग़ैर-क़ानूनी कामों को लेकर चला। बिस्मार्क पेरिस कम्यून से आगाह होकर लम्बे समय से कम्युनिस्टों के खिलाफ़ कार्रवाई करने के लिए कदम उठा रहा था। बिस्मार्क-पूर्व जर्मनी के युंकरों का प्रतिनिधि था जिसने पूँजीवादी विकास के ‘प्रशियन पथ’ को प्रशिया में लागू किया, यानी ग़ैर-क्रान्तिकारी रास्ते से ऊपर से, और प्रतिक्रिया की शक्तियों के ज़रिये पूँजीवाद का विकास। वह राजनीतिक तौर पर औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग और युंकर वर्ग की नीतियों को लागू कर रहा था। बिस्मार्क ने 1877 में “समाजवादियों के विरुद्ध असाधारण क़ानून” पारित किया। इसके ख़िलाफ़ खुला संघर्ष करने की जगह और गैर-क़ानूनी सांगठनिक ढाँचा बनाकर अपने कामों को जारी रखने की जगह पार्टी का एक हिस्सा संगठन को केवल क़ानूनी स्तर पर चलाने और बिस्मार्क की नीतियों के समर्थन करने तक पहुँच रहा था। मार्क्स-एंगेल्स ने इन विचारों की भी धज्जियाँ उड़ा दीं। लेनिन इस बाबत बताते हैं: 

“राजनीतिक गतिरोध और बुर्जुआ वैधानिकता के बोलबाले के दौर में संघर्ष के क़ानूनी साधनों के उपयोग की पूरी तरह कद्र करते हुए मार्क्स ने 1877-1878 में “समाजवादियों के विरुद्ध असाधारण क़ानून” पास होने के बाद मोस्ट की “क्रान्तिकारी लफ़्फ़ाज़ी” की तीक्ष्ण निन्दा की। लेकिन उन्होंने उस आधिकाधिक सामाजिक-जनवादी पार्टी पर अस्थायी रूप से हावी तत्कालीन अवसरवाद पर भी उतना ही तीव्र हमला किया, जिसने समाजवादियों के विरुद्ध असाधारण क़ानून के जवाब में ग़ैर-क़ानूनी संघर्ष की ओर कदम बढ़ाने का संकल्प, दृढ़ता, क्रान्तिकारिता, तत्परता तुरन्त प्रदर्शित नहीं की।” (लेनिन, कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षा, पेज 33)

इन चार महत्वपूर्ण संघर्षों ने पार्टी में विचारधारात्मक, कार्यक्रम-सम्बन्धी तथा रणनीतिक मसलों में बेहद ज़रूरी सबक दिए। फ़्रांस में मार्क्स एंगेल्स के नेतृत्व में गेद और लाफ़ार्ग ने सही दिशा में फ्रांसीसी मज़दूर पार्टी को संगठित करने का प्रयास किया, हालाँकि मार्क्स गेद की विच्युतियों की भी आलोचना रखते रहे थे। गेदवादियों और सम्भावनावादियों के बीच संघर्ष से ही फ़्रांसीसी मज़दूर पार्टी स्थापित हुयी थी।    

मार्क्स-एंगेल्स की स्पेन, इंग्लैण्ड से लेकर यूरोप के कई देशों से लेकर अमरीका तक में मज़दूर वर्ग की स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी गठित करने में अहम भूमिका रही। रूस में भी मार्क्स-एंगेल्स कई क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में थे। उन्होंने रूस के क्रान्तिकारी आन्दोलन और रूस में मज़दूर पार्टी के गठन के लिए भी ज़रूरी सुझाव दिये थे। हम इन सबकों अगली किश्त में देखेंगे जब हम रूस में मज़दूर पार्टी के गठन की पूर्वपीठिका पर बात करेंगे। 

प्रथम इण्टरनेशनल के बाद का मार्क्स-एंगेल्स के जीवनकाल का दौर मज़दूर पार्टियों के गठन का और मार्क्स-एंगेल्स द्वारा छेड़े दो लाइनों के संघर्ष का था जिसमें मार्क्स-एंगेल्स ने विचारधारात्मक तौर पर किसी भी ग़लत प्रवृति के सर उठाते ही उसके ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ दिया और यह उन्होंने हर-हमेशा अलग-थलग पड़ जाने का ख़तरा मोल लेते हुए भी किया।

 

(अगले अंक में जारी)

 

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2024


 

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