मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल : पूँजीपतियों को रिझाने के लिए रहे-सहे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाने की तैयारी

आनन्द सिंह

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान पूँजीपति वर्ग के सच्चे सेवक के रूप में काम करते हुए तमाम मज़दूर-विरोधी नीतियाँ लागू कीं। हालाँकि अपने असली चरित्र को छिपाने और मज़दूर वर्ग की आँखों में धूल झोंकने के लिए नरेन्द्र मोदी ने ख़ुद को ‘मज़दूर नम्बर वन’ बताया और ‘श्रमेव जयते’ जैसा खोखले जुमले दिये, लेकिन उसकी आड़ में मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों पर डाका डालने का काम बदस्तूर जारी रहा। अब जबकि मोदी सरकार दोबारा सत्ता पर आसीन हो चुकी है, पूँजीपतियों के लग्गू-भग्गू और उनके थिंक टैंक कयास लगा रहे हैं कि मोदी सरकार इस कार्यकाल में श्रम क़ानूनों को पूरी तरह से बेमतलब बना देगी। लोकसभा चुनाव के नतीजे आते ही भाजपा नेता सुब्रमण्यम ने श्रम क़ानूनों में ज़बरदस्त फेरबदल करने की अपील कर डाली। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने भी चुनावी मोदी के शपथ ग्रहण लेने से पहले ही देशी-विदेशी पूँजीपतियों को ख़ुशख़बरी सुनाते हुए तथाकथित श्रम सुधारों सहित तमाम आर्थिक सुधारों की गति तेज़ करने का भरोसा जताया।

मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान ही देशी-विदेशी पूँजीपतियों को रिझाने के लिए ‘ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस (कारोबार करने में सहूलियत)’ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर करते हुए 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके 4 श्रम संहिताओं — मज़दूरी, औद्योगिक सम्बन्ध, सामाजिक और व्यावसायिक सुरक्षा और श्रमिकों के स्वास्थ्य और कार्यस्थलों की स्थिति पर — को बनाने की योजना बनायी थी। अगस्त 2017 में लोकसभा में ‘कोड ऑफ़ वेजेज बिल’ (मज़दूरी की संहिता विधेयक) प्रस्तुत किया गया। इस विधेयक में मज़दूरों के काम के प्रदर्शन और हड़तालों में भागीदारी जैसे कारणों की आड़ में मज़दूरी में कटौती के प्रावधान हैं और इसमें मालिकों को काम के घण्टों और ओवरटाइम की परिभाषा में फेरबदल करने के भी अधिकार दिये गये हैं। इस विधेयक का एक प्रावधान यह है कि नये मज़दूरों के लिए तीन साल तक नियोक्ता के हिस्से का प्रॉविडेण्ट फ़ण्ड सरकार देगी। ज़ाहिरा तौर पर यह प्रावधान करदाताओं की जेब काटकर मालिकों की तिज़ोरी में डालने के लिए बनाया गया है।

उपरोक्त विधेयक की तुलना पहले के श्रम क़ानूनों से करने पर साफ़ समझ में आता है कि श्रमिकों के न्यूनतम वेतन तय करने को लेकर जो सुरक्षा मानक थे उन्हें कमज़ोर किया जा रहा है। पहले न्यूनतम वेतन निर्धारित करने के लिए त्रिकोणीय प्रणाली थी जिसमें विभिन्न क्षेत्र के मज़दूरों के प्रतिनिधि, फ़ैक्टरी मालिक और सरकार के प्रतिनिधि मिलकर एक सेण्ट्रल एडवाइज़री बोर्ड में न्यूनतम वेतन निर्धारित करते थे। पर अब नयी संहिता में मज़दूरों के प्रतिनिधित्व को कमज़ोर कर दिया गया है जिससे कि न्यूनतम वेतन निर्धारण में मज़दूरों की भागीदारी लगभग ख़त्म हो जायेगी। पहले उद्योग में काम के चरित्र के आधार पर अलग-अलग उद्योग का न्यूनतम वेतन निर्धारित होता था पर अब सभी उद्योगों में एक जैसा समय-रेट और पीस-रेट के आधार पर न्यूनतम वेतन तय किया जायेगा। मज़दूरों का एक उद्योग के आधार पर संगठित होकर माँग रखने का अधिकार अब छीन लिया जायेगा। पहले न्यूनतम वेतन राष्ट्रीय स्तर पर तय होता था परन्तु अब नयी संहिता में न्यूनतम वेतन तय करने का अधिकार राज्यों को दे दिया जायेगा जिससे सभी राज्यों में ज़्यादा से ज़्यादा निवेश को आकर्षित करने की होड़ लगेगी और अन्तरराज्यीय प्रतिद्वन्द्विता के चलते राज्यों द्वारा श्रमिकों का न्यूनतम वेतन और कम निर्धारित होगा। न्यूनतम वेतन को संशोधित करने का निर्धारित समय 5 साल था परन्तु नयी संहिता में इस निर्धारित समय को हटा दिया गया है और जानबूझकर इस मामले में अस्पष्टता रखी गयी है। इसके साथ ही महिलाओं के लिए न्यूनतम वेतन निर्धारण की प्रक्रिया में पुरुषों के बराबर का वेतन मिलने के लिए कोई तय नियम नहीं बनाया गया है।

इसी प्रकार औद्योगिक सम्बन्धित संहिता द्वारा मज़दूरों को यूनियन बनाने और उसके माध्यम से सामूहिक मोलभाव करने की जो आज़ादी पहले प्राप्त थी उसमें रुकावटें पैदा की गयी हैं जैसे ट्रेड यूनियन के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में नये अवरोध लगा दिये गये हैं जिससे यूनियन बनाना ही और कठिन हो जायेगा, यूनियन की मान्यता रद्द कर देने के लिए नयी नयी शर्तें लगा दी गयी हैं जिससे पूँजीपति कई कारणों से यूनियन की मान्यता रद्द कर सकते हैं, मज़दूरों की गोपनीयता को दरकिनार कर सभी जानकारी रजिस्ट्रार को देना आवश्यक बना दिया है जिसके चलते मज़दूरों में निजी स्तर पर एक भय बना रहेगा, यूनियन पर लगाया जाने वाला जुर्माना भी बढ़ा दिया गया है जिससे यूनियन पनप ना पाये और दूसरी तरफ़ फ़ैक्टरी मालिकों के लिए दण्ड बहुत कम रखे गये हैं, नयी संहिता के अनुसार 300 मज़दूरों तक की फ़ैक्टरियों में मालिक अपनी मनमर्ज़ी से मज़दूरों को रखने और निकालने का फ़ैसला कर सकते हैं और उन्हें सरकार से इसकी कोई अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। इन सभी बदलावों का सार यही है कि मज़दूरों के यूनियन बनाने की क्षमता को लगभग असम्भव बना दिया जाये।

तीसरी संहिता है ‘सामाजिक सुरक्षा संहिता’ जिसके माध्यम से सरकार सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं जैसेकि ईपीएफ़ और ईएसआई को मिलाकर एक बड़ी सुरक्षा योजना बनाना चाह रही है। असल में यह काम इसलिए किया जा रहा है कि मज़दूरों का एक जगह एकत्र किया गया सारा पैसा सट्टा बाज़ार में निवेश किया जा सके। श्रमिकों के स्वास्थ्य और कार्यस्थलों पर लागू की जाने वाली चौथी संहिता भी फ़ैक्टरी मालिकों पर मज़दूरों की जान से खेलने के लिए कोई कठोर दण्ड नहीं लगाती दिखती जबकि सच्चाई यह है कि फ़ैक्टरी दुर्घटनाओं और उसमें अपाहिज होने वाले और जान गँवाने वाले मज़दूरों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी हुई है। निचोड़ के तौर पर कहा जाये तो इन चारों श्रम संहिताओं द्वारा सुधार के नाम पर मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी को और कम किया जा रहा है, मज़दूरों को इच्छानुसार नौकरी पर रखने और हटाने की पूरी स्वतन्त्रता पूँजीपतियों को मुहैया करायी जा रही है और बुनियादी ट्रेड यूनियन के अधिकारों को भी छीना जा रहा है।

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में भी कई मज़दूर विरोधी कदम उठाये गये थे। उदाहरण के लिए कारख़ाना अधिनियम में बदलाव किया गया था। इस बदलाव के तहत छोटी इकाइयाँ जिनमें कारख़ाना अधिनियम लागू नहीं होगा उनमें मज़दूरों की निर्धारित संख्या को 10 से बढ़ाके 40 कर दिया गया था। इस फेरबदल से अब 70% पंजीकृत कारख़ानों पर कारख़ाना अधिनियम ही लागू नहीं होता है। फ़ैक्टरी मालिक कोशिश करते हैं कि छोटी-छोटी यूनिटों का अलग पंजीकरण करवा के मज़दूरों की संख्या 40 से कम रखी जाये जिससे वे कारख़ाना अधिनियम के बाहर बने रहें और मज़दूरों का जमकर शोषण करें। 2015 के ही एक संशोधन के मुताबिक़, कारख़ाना मालिक महिलाओं को रात में काम करने के लिए नियुक्त कर सकते हैं। 2016 के एक संशोधन के मुताबिक़, एक तिमाही में ओवरटाइम का समय बढ़ाकर 50 से 100 घण्टे कर दिया गया था और उसमें भी भारी वर्कलोड वालों के लिए यह सीमा 115 घण्टे और तथाकथित सार्वजनिक हितों वाले कामों के लिए 125 घण्टे रखी गयी। इसके अलावा स्थायी नियुक्ति की जगह पर निश्चित अवधि रोज़गार योजना का लाया जाना और अप्रेण्टिस ऐक्ट में बदलाव किये जाने की योजना है जिनका मक़सद कम्पनियों को कम वेतन में ज़्यादा काम करवाने की छूट देना है।

मोदी सरकार ने कर्मचारी भविष्य निधि में महिला कर्मचारियों के योगदान को 12 प्रतिशत से कम करके 8 प्रतिशत कर दिया था। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि इससे महिला कर्मचारियों के हाथ में अधिक तनख़्वाह आयेगी। परन्तु दूरगामी तौर पर देखा जाये तो यह महिला कर्मचारियों के ख़ि‍लाफ़ ही जायेगा क्योंकि वृद्धावस्था में उनकी पुरुषों पर निर्भरता को बढ़ायेगा। यही नहीं मसौदा विधेयक में महिला कर्मचारियों की मातृत्व अवकाश व शिशु को दूध पिलाने जैसी अहम सुविधाओं को भी अनिवार्य नहीं बनाया गया है जो उत्पादन के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को हतोत्साहित करेगा।

केन्द्र के अतिरिक्त राज्यों में भी भाजपा के शासन वाली कई सरकारों ने भी हाल के वर्षों में श्रम क़ानूनों को पूँजीपतियों के पक्ष में लचीला बनाया है। मिसाल के लिए अगस्त 2014 में राजस्थान की वसुन्धरा राजे सरकार ने चार श्रम क़ानूनों में अहम बदलाव किये जिसके तहत कम्पनियों को 300 कर्मचारियों को बिना सरकार की अनुमति के निकाल देने का अधिकार दे दिया गया। पहले यह सीमा 100 थी। इसके अतिरिक्त प्रमुख नियोक्ता को बिना लाइसेंस के 49 मज़दूरों तक को ठेके पर रखने का अधिकार दे दिया गया। इसी प्रकार गुजरात और मध्य प्रदेश की भाजपा सरकारों ने अपने-अपने राज्य में श्रम क़ानूनों में भारी फेरबदल किये थे।

श्रम क़ानूनों को धीरे-धीरे कमज़ोर बनाने का काम तो कांग्रेस भी उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के साथ करती चली आ रही थी, पर आज के नवउदारवादी पूँजीवाद की उम्र बढ़ाने के लिए मज़दूरों का और ख़ून चूसने की छूट देना ज़रूरी है और यह काम भाजपा सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में भी ज़ोर-शोर से करेगी।


 

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