रोशनाबाद श्रृंखला की तीन कविताएँ
कविता कृष्णपल्लवी
(एक) नगद-उधार की उधेड़बुन
नाम सत्यनारायण है।
साथी-संघाती सब सत्तू उसे कहते हैं।
दो महीने घर रहकर लौटा है
घरवाली राजदुलारी को साथ लेकर।
गाँव नांगल सोती, जिला बिजनौर।
नयी-नयी शादी है, एक साल पुरानी।
राजदुलारी को सत्तू
दीपिका पदुकोण समझता है।
दोस्तों से कहता है कि उसकी चाल
और हँसी पर मन दीवाना-मस्ताना हो जाता है।
दोस्त सब ख़ूब हँसते हैं
और भौजाई को छेड़ते हैं।
सत्तू कई गाँवों का कबड्डी चैंपियन रहा
गाँव में और ताजिया के जुलूस में
लाठी भी भाँजता था एक नम्बर।
राजदुलारी का मन भी उसपर
दीवाना-मस्ताना रहता है।
दिहाड़ी करता है सत्तू
हरिद्वार सिडकुल के कारख़ानों में,
जहाँ भी मिल जाये।
दो-चार महीने से ज़्यादा
शायद ही कहीं टिकता है।
रोशनाबाद की मज़दूर बस्ती में रहता है।
भारी काम का माहिर है,
लेकिन सुपरवाइज़रों की निगाह में
मनबढ़ भी है।
जब न भिड़े किसी फ़ैक्ट्री में जुगत
तो लेबर चौक पर खड़ा हो जाता है।
आज शाम को पहुँचा राशन-पानी का
सामान लेने रामबीर पंसारी की दुकान पर।
सौदा-सुलफ़ के बाद जो रक़म बनी
उससे पैंतीस रुपये कम थे
सत्तू की टेंट में।
कुछ देर जोड़ा-घटाया,
कुछ देर सोचा, फिर बोला,
“कुछ सामान कम कर दो सेठ!”
“तू कहे तो फिर खोल दूँ खाता तेरा!”
कहा रामबीर पंसारी ने।
थोड़ा रुका सत्तू, फिर बोला, “रहने दो, सेठ,
जहाँतक हो सके, नगद का हिसाब ही ठीक है।
अब घरवाली भी काम पकड़ लेगी कहीं।
उधार बड़ी आफ़त है।
जान की साँसत है।
आते-जाते ताकते भी हो
तो लगता है तगादा कर रहे हो।”
**
(दो) अलका और सुमेर की प्रेम कविता
सिर्फ़ 200 मीटर का अन्तर था उनके डेरों में,
उमर में दो सालों का,
और बिहार में उनके गाँव भी
अगल-बगल के ज़िलों में थे
दो कोस के फ़ासले पर ।
जातियाँ अलग थीं उनकी ।
अलका थी बढ़ई
और सुमेर कलवार था ।
दो बरस की थी जान-पहचान
जो एक-दूसरे को जानने-समझने में लगी ।
गाँव-जवार की नज़दीकी भी काम आयी
और यह बात भी कि सुमेर की बुआ
ब्याही थी अलका के गाँव में ।
गाँव में दोनों के अपना कहने को
कोई नहीं बचा था
और इसकी भी दोनों की अलग-अलग
लम्बी कहानी थी ।
सुमेर की तो खेतीबारी थी ही नहीं,
पिता को उसने देखा ही नहीं था
और सोलह की उमर में माँ भी छोड़ गयी थी
दुनिया में अकेला,
मेहनत-मजूरी कर जिसने उसे पाला-पोसा था ।
इकलौती अलका की डेढ़ बीघा ज़मीन
उसके चाचाओं ने दबा ली थी
मलेरिया की चपेट में आकर
माँ के मरने के बाद ।
पिता तो बहुत पहले ही
दूसरी शादी करके कोलकाता में बस गये थे
जहाँ कभी गये थे मज़दूरी करने ।
अलका मिडिल पास थी
और सुमेर चौथी फेल ।
अलग-अलग कारख़ानों में दिहाड़ी करते हुए
कई बार ऐसा हुआ कि दोनों को काम मिला
एक ही जगह
और कई बार तो शिफ़्ट भी एक ही
मिल जाती थी ।
अलका को साइकिल चलाना सिखाया सुमेर ने
अपनी पुरानी खड़खड़हिया साइकिल पर ।
कुछ पैसे जोड़ जब अलका ने
कसवायी अपनी साइकिल
तो सुमेर गया था साथ ।
घटने पर पौने चार सौ रुपये उधार भी दिये ।
बार-बार कहने पर भी सिर्फ़ दो सौ ही
वापस लिये ।
अलका कई बार उसके लिए भी
रोटी लेती आती थी
जब दोनों काम करते होते थे एक ही फ़ैक्ट्री में ।
फिर दिल से दिल मिलने में
बस दो महीने लगे ।
समय ही कुछ ऐसा था
इन्सानों का और रिश्तों का
इम्तिहान लेने वाला
कि विपत्ति झेलते अकेले लोगों का
गहराई से आपस में प्यार कर बैठना
कोई अचरज की बात न थी ।
कोरोना का कहर बरपा था पूरे देश में ।
मज़दूर अधिकतर लौट गये थे अपने गाँव ।
अलका और सुमेर भला कहाँ जाते!
आफ़त भरे दिन काटने थे साथ-साथ ।
दु:ख इम्तिहान लेते हैं लेकिन
अक्सर लोगों को क़रीब भी ला देते हैं
इसतरह अलका और सुमेर एक दूसरे के हुए ।
कोर्ट में शादी हुई ।
साथी-संघाती गवाह बने ।
रात को मुर्गा कटा, जश्न मना ।
अलका ने ‘जब प्यार किया तो डरना क्या’ गाना गाया ।
सुमेर ने ‘चलो दिलदार चलो’ गाया ।
पुरानी फ़िल्मों के गाने दोनों को पसन्द हैं ।
सुमेर के संघाती गनेसी को
जब बिना बकाया भुगतान किये
एक फ़ैक्ट्री से निकाला गया
तो दोनों साथ-साथ फ़ैक्ट्री गेट पर
धरने पर बैठे थे पिछले साल ।
अब कमरे में भगतसिंह का एक फोटू भी
टाँग लिया है दोनों ने ।
मई दिवस का परचा भी बाँटा था पिछले साल
रोशनाबाद, पठानपुरा और अन्नेकी में
घूम-घूमकर ।
ठेकेदार, दुकानदार, सुपरवाइज़र
सब कहते हैं, “बहुत उड़ रहे हैं आजकल दोनों,
माथा घूम गया है!”
दु:खों का इतिहास अगर एक हो
और वर्तमान भी अगर साझा हो
तो प्यार कई बार ताउम्र ताज़ा बना रहता है,
सीने के बायीं ओर दिल धड़कता रहता है
पूरी गर्मजोशी के साथ
और इन्सान बार-बार नयी-नयी शुरुआतें
करता रहता है ।
अलका और सुमेर आजकल
मज़दूरों के हक़ और इन्साफ़ की बातें करते हैं
और बेहद कठिन ज़िन्दगी जीते हुए भी
ख़ुश रहते हैं ।
अभी रात को साढ़े दस का समय हो रहा है,
बस्ती सो रही है और अलका और सुमेर
अपनी कोठरी में खाना पकाते हुए
‘ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना’ गा रहे हैं ।
**
(तीन) छोटा पाकिस्तान
गफ़ूर मियाँ की साइकिल मरम्मत की गुमटी है
रोशनाबाद में ।
रहते हैं पठानपुरा में जिसे अब पठानपुरा
कोई नहीं कहता,
सभी छोटा पाकिस्तान कहते हैं ।
गफ़ूर मियाँ रोज़ाना छोटा पाकिस्तान से
आज के हिन्दुस्तान आते हैं
और हिन्दू-मुसलमान, सभी मज़दूरों की
साइकिलों की मरम्मत करते हैं,
पंक्चर साटते हैं ।
पठानपुरा पहले शायद पठानों का
कोई गाँव रहा होगा
जो अब शहर का हिस्सा है,
एक मज़दूर बस्ती बस गयी है वहाँ ।
वहाँ के अमीर मुसलमानों के बेड़ों में
कुछ सस्ते में और आसानी से गाँवों से आये
उन ग़रीब मुसलमानों को जगह मिल जाती है
जो सिडकुल के कारख़ानों में काम करते हैं ।
हालाँकि कुछ हिन्दू मज़दूर भी रहते हैं
पठानपुरा में और कुछ मुसलमान मज़दूर
रोशनाबाद में भी ।
रोशनाबाद में शाखा भी लगती है
और ख़ास मौक़ों पर भगवा झण्डे के साथ
जुलूस भी निकलते हैं
जिनसे हालाँकि दलितों के खित्तों के
रहवासी दूर ही रहते हैं
लेकिन ठेकेदारों, दुकानदारों, बेड़ों के मालिकों
और कुछ बाबुओं के बेटों के साथ ही
कुछ नौजवान हिन्दू मज़दूर भी हिस्सा लेते हैं ।
कुछ मनबढ़ लड़के कहते हैं गफ़ूर मियाँ से, “चचा,
अपनी गुमटी तुम लगाओ
अब छोटे पाकिस्तान में
या फिर सीधे पाकिस्तान ही चले जाओ!”
गफ़ूर मियाँ हँसते हैं टूटे दाँत दिखाते हुए,
दाढ़ी खुजाते हुए, फिर कहते हैं, “बेटा, हमरे
अब्बा को तो पाकिस्तान जाना
मंज़ूर नहीं हुआ,
और हम तो एहीं की पैदाइस हैं, बिजनौर के ।
अब तो पाकिस्तान वाले भी हमें न लेंगे,
पिछवाड़े लात मार भगा देंगे ।
ई तो तुम सबकी किरपा है कि हमरी खातिर
कै-कै ठो छोटा पाकिस्तान बनाय दिये ।”
लड़कों के जाने के बाद थोड़ी देर
चुप रहे गफ़ूर मियाँ,
फिर मेरी ओर मुड़कर बोले,
“बिटिया, मेरा बेटा बम्बई में मजूरी करता है ।
नालासोपारा की जिस झुग्गी बस्ती में रहता है
उसे भी अब लोग छोटा पाकिस्तान कहते हैं ।
ओरिजिनल नाम लक्ष्मीनगर था, फिर
पुलिसवालों ने यह नाम दे दिया
और अब यही चलता है ।”
एक लम्बी साँस लेते हैं गफ़ूर मियाँ,
फिर कहते हैं, “पाकिस्तान तो हम गये नहीं,
मगर अब लगता है पाकिस्तान से आये रिफूजी हैं,
रिफूजी कैम्प में रहते हैं ।”
**
(टिप्पणी : रोशनाबाद उत्तराखण्ड में हरिद्वार के पास सिडकुल, यानी उत्तराखण्ड राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड के औद्योगिक क्षेत्र से लगी मज़दूरों की बस्ती है। पठानपुरा (जिसके लिए आजकल ‘छोटा पाकिस्तान’ नाम ही चल गया है), हेत्तमपुर और अन्नेकी गाँव की मज़दूर बसाहटें इससे लगी हुई हैं।)
मज़दूर बिगुल, मार्च 2023
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन