एक ऐतिहासिक फ़ासिस्ट नरसंहार में बदल चुकी कोविड महामारी और हठान्ध कोविडियट्स का ऐतिहासिक अपराध
– कविता कृष्णपल्लवी
नदियों में सैकड़ों की तादाद में लाशें उतरा रही हैं। नीचे उन्हें कुत्ते किनारे घसीटकर नोच रहे हैं और ऊपर गिद्ध-चील मँड़रा रहे हैं।
‘भास्कर’ जैसे सत्ता-समर्थक अख़बार भी कोविड से वास्तविक मौतों की संख्या सरकारी आँकड़ों से पाँच गुनी अधिक बता रहे हैं। कई शहरों में कोविड से हुई मौतों के सरकारी आँकड़ों और श्मशानों में पहुँची ऐसे मरीज़ों की लाशों की संख्या के बीच दस गुने तक का अन्तर पाया गया है। उत्तर प्रदेश में निजी अस्पताल कोविड से हुई अधिकांश मौतों का कारण दस्तावेज़ों में कुछ और दर्ज कर रहे हैं।
उत्तर भारत, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश गाँवों में रोज़ाना कहीं 5 तो कहीं 15 लोग मर रहे हैं। विशेष कर कुम्भ, बंगाल के चुनावों और उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनावों के बाद गाँवों में मौत का ताण्डव हो रहा है और मरघटी सन्नाटा पसरा हुआ है। गाँवों में हो रही मौत की यह बारिश सरकारी आँकड़ों से लगभग एकदम बाहर है।
प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय जर्नल ‘लांसेट’ का कहना है अगस्त तक भारत में कोविड मौतों की संख्या दस लाख के ऊपर हो जायेगी। ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि मौतें सरकारी आँकड़ों से कम से कम दस गुना अधिक हैं! कम से कम दस गुना अधिक! यानी दस लाख की संख्या तो अभी पार हो चुकी है।
वे हठी जड़वामन कोविडियट्स, यानी कोविड-मूर्ख जो अभी भी कोरोना को “सरकारी प्रचार” और ‘सीज़नल फ़्लू’ बता रहे हैं, वे पहले से ही अपने अनपढ़पन के चलते ‘षड्यंत्र सिद्धान्त’ की फेरी लगाते हुए वस्तुगत तौर पर प्रतिक्रियावादी भूमिका निभा रहे थे, लेकिन अब वे एक बर्बर फ़ासिस्ट सत्ता के नरसंहार जैसे ऐतिहासिक अपराध पर पर्दा डालने का ऐतिहासिक अपराध कर रहे हैं। ख़ास तौर पर उन पथभ्रष्ट लोगों को तो क़त्तई माफ़ नहीं किया जा सकता जो अपने को ‘क्रान्तिकारी वामपन्थी’ कहते हुए यह जघन्य कुकर्म कर रहे हैं।
पंजाब में ये “वामी” कोविडियट्स जो इन दिनों नरोदवाद और राष्ट्रवाद का कच्छा-कड़ा-कृपाण धारण किये हुए धनी किसानों और क्षेत्रीय (इनके हिसाब से “राष्ट्रीय”) छोटी-मँझोली बुर्जुआज़ी के जुलूसों के आगे उन्मादी निहंगों की तरह नाच रहे हैं, वे अभी भी कह रहे हैं कि सरकार ने किसानों के आन्दोलन और अन्य जनान्दोलनों को कुचलने और काले क़ानूनों को लादने के लिए यह सारा ड्रामा रचा है। इसलिए यह अफ़ीमची राजनीतिक मण्डली पंजाब में लॉकडाउन का विरोध कर रही है और सभी स्कूलों को भी खोलने की माँग कर रही है। धिक्कार है इस पागलपन को!
बेशक बिना किसी तैयारी के (पिछली बार की तरह) लॉकडाउन लगाना ग़रीब मेहनतकशों की भारी आबादी को भुखमरी और तबाही के मुँह में झोंकना होगा। हम निरपेक्षत: न लॉकडाउन का विरोध कर सकते हैं न समर्थन। हमारी माँग यह होनी चाहिए कि अगर वायरल संक्रमण की श्रृंखला को तोड़ने के लिए राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाना ही पड़े, तो उसके पहले यह सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह सरकारी गोदामों में ठँसे पड़े अनाज की ही नहीं, बल्कि सभी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों की घर-घर तक आपूर्ति सुनिश्चित करे। और यह साबित किया जा सकता है कि यह क़त्तई सम्भव है। हमारी असल बुनियादी माँग यह बनती है कि स्वास्थ्य-सेवाओं का अधिकतम सम्भव तात्कालिक विस्तार किया जाये, और दूरगामी तौर पर, स्वास्थ्य-सेवा के बुनियादी ढाँचे को व्यापक और सुदृढ़ बनाने की तथा सभी प्रकार की स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं को नि:शुल्क समूची आबादी को मुहैय्या करने की घोषणा की जाये।
वर्तमान आपातकालीन स्थिति में हमारी यह फ़ौरी माँग होनी चाहिए कि सभी निजी अस्पतालों, नर्सिंग होम्स, फ़ार्मास्युटिकल कम्पनियों और दवा-व्यापार के समूचे सेक्टर का तत्काल प्रभाव से निजीकरण कर दिया जाना चाहिए और सेना तथा अर्धसैनिक बलों के पास चिकित्सा सुविधाओं का जो विराट तंत्र और मेडिकल स्टाफ़ है, उसे तुरन्त आम जनता की सेवा में लगा दिया जाना चाहिए। मेहनतकश अवाम का नारा यह होना चाहिए कि उसे न भूख से मरना स्वीकार है, न महामारी से!
यही समय है जब हम एक प्रत्यक्ष जीवित मुद्दे के तौर पर स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधाओं को जीने का बुनियादी अधिकार बताते हुए क्रान्तिकारी प्रचार का काम क़ायल करने वाले ढंग से चला सकते हैं और सभी स्वास्थ्य-चिकित्सा सेवाओं के राष्ट्रीकरण की माँग को लेकर प्रभावी ढंग से जन-लामबन्दी की शुरुआत कर सकते हैं।
यह समय यह सवाल उठाने का है कि वैक्सीन ख़रीदने के लिए सरकार ने 35000 करोड़ की जिस रक़म की घोषणा की थी, वह कहाँ चली गयी? पीएम केयर फ़ण्ड में बटोरी गयी खरबों की राशि कहाँ गयी? कोविड की दूसरी लहर की विशेषज्ञों द्वारा बार-बार चेतावनी दी जाने के बाद भी उसका सामना करने की तैयारी में इतनी आपराधिक लापरवाहियाँ क्यों हुईं? अस्पताल, वेण्टिलेटर, बेड, आक्सीजन, जीवनरक्षक दवाओं, मेडिकल स्टाफ़ – इन सबके भीषण अभाव के चलते इतने लोगों का मरना क्या सत्ता-प्रायोजित नरसंहार नहीं है?
आज का सवाल यह बनता है कि 20,000 करोड़ रुपये की लागत से बन रहे सेण्ट्रल विस्टा के काम को रद्द करके सौ-सौ करोड़ की लागत वाले 200 अस्पताल बनाने का फ़ैसला क्यों नहीं लिया जा रहा है? 8500 करोड़ रुपये के दो विशेष जहाज़ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के लिए ख़रीदे जाने की ऐतिहासिक विलासिता की जगह यह सारी धनराशि लोगों की जान बचाने और चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार पर क्यों नहीं ख़र्च की जा रही है?
ऐसे ही दर्ज़नों और सवाल हैं जिन्हें उठाकर एजिटेशन और प्रोपेगैण्डा करने का यह सबसे सही समय है। इस आपदा के समय में अपनी पूरी शक्ति और क्षमता के साथ जनता की मदद करते हुए हमें उसे लगातार इन मुद्दों पर जागृत और शिक्षित करना होगा। जो काम इस समय हो सकता है वह आम दिनों में उस गति के साथ नहीं हो सकता। आज हम व्यापक क्रान्तिकारी प्रचार के ज़रिए न केवल हत्यारे फ़ासिस्टों को बल्कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को अधिक सुगम और जीवन्त ढंग से एक्सपोज़ कर सकते हैं और एक वैकल्पिक क्रान्तिकारी ढाँचे के निर्माण के लिए क्रान्तिकारी बदलाव की अपरिहार्यता और व्यावहारिकता पर लोगों को क़ायल कर सकते हैं।
लेकिन कोविडियट्स इन बुनियादी सवालों को एकदम हाशिए पर धकेल कर अपनी ‘मिथ्या चेतना’ को जनता पर आरोपित कर रहे हैं, अजीबोग़रीब ख़याली पुलाव पका रहे हैं, ‘नॉन इश्यूज़’ को ‘इश्यू’ बना रहे हैं, कुछ ग़लत और कुछ संकीर्ण दायरे की सुधारवादी माँगों पर प्रचार और आन्दोलन की नौटंकी कर रहे हैं, ‘हँसिए के ब्याह में खुरपी का गीत’ गा रहे हैं, तथा फ़ासिस्टों और पूँजीवादी व्यवस्था के सामान्य जनविरोधी चरित्र की चर्चा करते हुए, दिन के उजाले की तरह सामने आ चुकी उनके बर्बर रक्तपिपासु चरित्र की वीभत्स नग्नता की ओर से लोगों का ध्यान भटका रहे हैं।
अगर यह सिर्फ़ मूर्खता है, तब भी एक ऐतिहासिक क्षतिकारी परिघटना है। अगर यह एक हठी मूर्खता है (क्योंकि बार-बार इंगित करने पर भी तथ्यों और तर्कों की अनदेखी और अश्लील कुतर्क करती रही है) तो सिर्फ़ दुर्योधनी व्यक्तिवादी अहम्मन्यता ही नहीं है, बल्कि परले दर्जे की बेईमानी तक जा पहुँची ख़तरनाक राजनीतिक प्रवृत्ति है। वस्तुगत अवसरवाद से मनोगत अवसरवाद, मनोगत अवसरवाद से बेईमानी और बेईमानी से पतन के नरककुण्ड तक का सफ़रनामा इतिहास के पन्नों पर इसी तरह पहले भी दर्ज होता रहा है। इसी तरह इतिहास में त्रासदी के रूप में घटित घटनाएँ प्रहसन के रूप में, और फिर बेहद अश्लील-फूहड़ प्रहसन के रूप में अपने को दुहराती हैं!
मज़दूर बिगुल, मई 2021
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