अब ज़िन्दगी तूफ़ानों की सवारी करते हुए ही आयेगी इस महादेश में
– कविता कृष्णपल्लवी
पूरे देश में ज़ंजीरों के खड़कने और बेड़ियों के घिसटने की आवाज़ें सुनाई दे रही हैं।
चौराहों पर फाँसी के तख़्ते बनाये जा रहे हैं।
हवा में ज़हरीली गैस की बू भरती जा रही है।
नदियों में मछुआरों की नावें फूली हुई, उतराती लाशों से टकरा रही हैं।
बस्तियों पर बुलडोज़र चल रहे हैं।
नीलामी घरों में जंगलों, पहाड़ों, नदियों और बेघर-बेदर भूखे लोगों पर बोलियाँ लगायी जा रही हैं।
इनके बारे में कुछ भी बातें करना देशद्रोह है।
घरों में बत्तियाँ जलाना ख़तरनाक आतंकवादी साज़िश क़रार दे दिया गया है।
शब्दकोषों से कुछ शब्द निकाले जा रहे हैं।
पुस्तकालय जलाये जा रहे हैं।
शिक्षा के परिसरों में हत्यारे दस्तों के शिविर लगे हुए हैं।
इतिहास की सारी किताबें गहरी क़ब्रों में दफ़न
की जा रही हैं।
सड़कों पर हत्यारे ज़ोम्बियों के गिरोह घूम रहे हैं।
…
लेकिन दुनिया के जिस पुरातन भूभाग पर यह विकराल दृश्य फैला है, वहीं कुछ पुराने अलावों की आग से जलाने के लिए नयी मशालें तैयार की जा रही हैं।
दूर घाटियों में सपनों और विचारों की पौधशालाओं में सयाने हो रहे पौधे वृक्ष बनने को तैयार हैं।
मेहनत करने वालों की घनी बस्तियों में विचारों के बंकर और बैरीकेड्स बन रहे हैं।
बच्चे तूफ़ानों की सवारी करना सीख रहे हैं।
सबकुछ उलट-पुलट देने वाले तूफ़ान की प्रतीक्षा है।
अब ज़िन्दगी तूफ़ानों की सवारी करते हुए ही आयेगी इस महादेश में, जो आतंक और मृत्यु के सन्नाटे भरे अन्धकार में डूबा हुआ है।
एक महाबवण्डर तो उठना ही है, मौत जैसे इस सन्नाटे से! एक प्रचण्ड वेगवाही चक्रवाती झंझावात!
इस तूफ़ान के ख़िलाफ़ चेतावनी देने वाले वही हैं जिन्होंने मौत के कारख़ानों के मालिकों और व्यापारियों से दलाली खा रखी है।
जो इस तूफ़ान से डरकर तेज़ी से रेंगते हुए अपने बिलों की ओर भागने को तैयार बैठे हैं या बिलों में घुसे हुए बाहर की आहट ले रहे हैं, वे इन्सानी ज़िन्दगी की रंगत, स्वाद और गंध को भूल चुके लोग हैं।
मानवीय पारिस्थितिकी के विनाश ने रेंगने वाली
इस विशेष प्रजाति को जन्म दिया है।
इस प्रजाति ने अपनी सभ्यता-संस्कृति का विपुल विकास किया है। इनके पास रेंगने का विज्ञान, दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र, समाजशास्त्र … – सबकुछ है!
अगर अपनी मनुष्यता को बचाये रखना है और स्वाभाविक मनुष्य बने रहना है तो इस प्रजाति के जीवों से सतर्क रहना चाहिए! बहुत संक्रामक होते हैं, सीधे दिमाग़ पर हमला बोलते हैं और संवेदना, तर्कणा और इतिहास-बोध को चाट जाते हैं!
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2021
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन