नहीं सहेंगे इस तानाशाही को अब हम मज़दूर साथियो

संजीव, नालासोपारा, मुम्बई

मेरा नाम संजीव है। मैं उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जि़ले के एक छोटे से गाँव का रहने वाला हूँ। मैं अभी मुम्बई में रहता हूँ, इससे पहले मैंने दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर थोड़े समय के लिए काम किया था। अभी मैं मुम्बई में एक चश्मे की दुकान पर काम करता हूँ। यहाँ पर मैं लगभग डेढ़ साल से काम कर रहा हूँ। दुकान पर काम करने का समय सुबह 10 बजे से रात के 10 बजे तक है ,यानी 12 घण्टे का है। जबकि इसके लिए मेरी पगार सिर्फ़ 7000 रुपये ही है।

मुझे ताज्जुब होता है कि कैसे किसी व्यक्ति को 7, 8, या 9 हज़ार रुपये के लिए 12-12 घण्टे काम करना पड़ता है और ऊपर से तमाम परेशानियों को सहन भी करना पड़ता है। जबकि इन सभी पैसों से उनकी जि़न्दगी सिर्फ़ किसी तरह ही चलती है। यह सिर्फ़ मेरी ही कहानी नहीं है, बल्कि देश और दुनिया के उन 75 फ़ीसदी मेहनतकशों की भी कहानी है। जिनमें से कुछ लोग तो इससे भी बदतर हालत में रहते हैं। मैं देखता हूँ कि मुम्बई में लाखों लोग रोज़ लोकल ट्रेनों में जानवरों की तरह सफ़र करते हुए पूरी मुम्बई में काम करने के लिए जाते हैं। ये सब लोग चाल में रहते हैं या एक छोटे से कमरे में पाँच-छह लोग मिलकर रहते हैं। ये जिन रिहायशी इलाक़ों में रहते हैं, वहाँ गन्दगी और कचरों का अम्बार रहता है। जिसके चलते उनको तरह-तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ता  है। इन इलाक़ों में पीने के पानी के लिए भी किल्लत का सामना करना पड़ता है। मज़दूरों को ना तो ठीक से खाने-पीने को मिलता है और ना ही सोने का समय तय होता है। उनके जीवन के सारे सपने धरे के धरे ही रह जाते हैं। देर रात को आया हुआ मज़दूर जल्दी-जल्दी खा-पीकर सो जाता है और सुबह होते ही फिर से जल्दी-जल्दी काम पर भागने की तैयारी करता है। इस तरह से मज़दूरों को महज़ मशीन बनने के लिए मजबूर किया जाता है। यह एक बहुत बड़ी असमानता है, जहाँ एक तरफ़ पूँजीपति और धन्ना सेठों और नेताओं के लिए तो सारी सुख-सुविधाएँ – बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा इत्यादि के साधन आसानी से मिल जाते हैं, जबकि मज़दूर वर्ग को इसके लिए जीवन-भर संघर्ष करना पड़ता है।

लेकिन सवाल है क्या हम मज़दूरों की इस दुर्दशा में कोई परिवर्तन आयेगा या फिर हमारी जि़न्दगी ऐसे ही बीत जायेगी? क्या हमारे लिए ये पूँजीवादी सरकारें और नेता-मंत्री काम करेंगी? जवाब है – नहीं, ये नेता और मंत्री लोग बड़े-बड़े पूँजीपतियों और मालिकों धन्ना सेठों के लिए ही काम करते हैं। इनका मज़दूरों की जि़न्दगी से कोई लेना-देना नहीं होता है। जबकि ये उल्टे मज़दूरों-किसानों को निचोड़ने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे और क़ानून बनाते हैं, जिससे उनकी जि़न्दगी बद से बदतर होती जाती है। अतः इसके लिए हम मज़दूरों को एक साथ मिलकर एकजुटता के साथ इन नेताओं और पूँजीपति वर्गों के ि‍ख़‍लाफ़ जनआन्दोलन खड़े करने के लिए संगठित होना पड़ेगा। इस पूँजीवादी तंत्र को गिराकर एक समाजवादी समाज की स्थापना करनी पड़ेगी। जिसमें सबको शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ, पानी, बिजली, मकान आदि की सुविधाएँ आसानी से मिल सके।

नहीं सहेंगे इस तानाशाही को अब हम मज़दूर

दिल्ली, मुम्बई हो, कलकत्ता या चेन्नयी के मज़दूर
तुमने हमको बहुत सताया किया बहुत मजबूर
अब तो मेरी बारी है नहीं बहुत दिन दूर
सदियों से हम गढ़ते रहे तुम्हारे लिए कोहिनूर
लेकिन तुमने कर दिये मेरे सपने चकनाचूर
घर को छीना, रोज़गार छीना, शिक्षा से किया दूर
जबकि इन सब चीज़ों पर तुम्हरी सत्ता ज़रूर
एक तरफ़ है चमचम महला जिसमें रहते हुज़ूर
दूसरी तरफ़ गन्दी बस्ती, जिसमें रहते हम मज़दूर
सड़क, रेल और कार बनाते महल उठाते हैं मज़दूर
लेकिन इन सब चीज़ों से हम क्यों हो जाते सुदूर
आख़ि‍र कब तक क़ायम रहेगा शोषण का यह दस्तूर
आओ साथी, मिलकर सब कुछ समझे हम मज़दूर
नया दौर है इन्क़लाब का जो आयेगा ज़रूर
गर साथ दे दुनिया-भर के अब साथी मज़दूर

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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