महान भारत में औरतों के नहाने के लिए बन्द-बाथरूम भी नहीं
बलजीत
शारीरिक सफ़ाई हर मनुष्य की शारीरिक और मानसिक तन्दरुस्ती के लिए बहुत ज़रूरी है। लेकिन भारत के एक बड़े हिस्से में लोगों के नहाने के लिए बन्द बाथरूम और साफ़ पानी की कोई सुविधा नहीं है। इनमें से औरतों को सबसे अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। औरतों को नहाने के लिए निजी और सुरक्षित जगह की ज़रूरत होती है। जहाँ वह अपनी ठीक तरह से सफ़ाई कर सकें और उनकी निजता भी क़ायम रह सके। लेकिन हमारे देश में बहुत बड़ी संख्या में औरतों को खुले में नहाना पड़ता है। उनको अपने घरों से दूर तालाब या कुओं पर जाकर नहाना पड़ता है, जहाँ कोई चारदीवारी या पर्दा नहीं होता। उनके पास नहाने के लिए समय भी बहुत कम होता है और कपड़े पहनकर नहाना पड़ता है जिससे वह अच्छी तरह अपने शरीर की सफ़ाई भी नहीं कर पाती। इससे समझा जा सकता है कि इन औरतों को कितनी शारीरिक बीमारियों और मानसिक दबाव झेलना पड़ता होगा।
झारखण्ड के एक ज़िले में हुए सर्वेक्षण के अनुसार 29 में से 3 औरतें ही बन्द जगह पर नहाती हैं, जहाँ दीवारों पर छत हो। ज़्यादातर औरतें तालाब में नहाने जाती हैं जो उनके घर से एक किलोमीटर तक दूर थे। इनमें से 75% औरतें तालाब में नहाने जाती हैं और 6% औरतें घरों के नज़दीक बने कुएँ पर नहाती हैं जो कि बन्द जगह पर नहीं हैं। औरतों ने बताया कि मासिक चक्र के दौरान भी वे कपड़े पहनके नहाती हैं और गन्दे कपड़े उसी तालाब में धोती हैं। यह गन्दा पानी उसी तालाब में जाता है जिस पानी से वे नहाती हैं। इनमें से 3.4% औरतें ही नैपकिन का इस्तेमाल कर पाती हैं, जिसे वे इस्तेमाल के बाद उसी तालाब या कुएँ में फेंक देती हैं जहाँ वे नहाती हैं। इस गन्दे पानी से नहाने पर कपड़े पहनकर नहाते समय ठीक तरह से शरीर की सफ़ाई न कर पाने के कारण उन्हें कई तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। औरतों को आदमियों से अधिक बीमारियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन परिवार के अन्य ख़र्चों के बोझ के कारण वे दवा-इलाज भी नहीं करवा पाती हैं।
ये हालात भारत के एक बहुत बड़े हिस्से के हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा शहरों में भी मज़दूरों के लिए जो किराये के कमरे बने होते हैं, वहाँ बाथरूम और रसोई जैसी कोई सुविधा नहीं होती है। 20-25 कमरों के पीछे एक लैटरीन-बाथरूम और एक हैण्डपम्प होता है। दिल्ली हो या लुधियाना या अन्य कोई शहर सभी जगह यही हालात हैं।
एक बहुत चिन्ताजनक बात यह है कि बन्द बाथरूम की ज़रूरत का मुद्दा कभी चर्चा का विषय नहीं बनता। जब लोगों के साथ इस बारे में बात होती है तो उनका कहना होता है कि भले ही नहाने के लिए बन्द जगह की ज़रूरत होती है, लेकिन हमारे पास इस पर ख़र्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण ज़रूरतें भी हैं जिन्हें पूरा करना पहल के आधार पर ज़रूरी है। पेट भरने, तन ढँकने और सिर पर छत की ख़ातिर जद्दोजहद के बीच किसी और ज़रूरत की तरफ़ ध्यान देने का न समय रह जाता है और न पैसा। बुनियादी ज़रूरतें पूरा करने से असमर्थ लोगों के लिए साफ़-सफ़ाई रखना असम्भव है। लेकिन प्रश्न यह पैदा होता है कि आखि़र ये सब कब तक चलता रहेगा? इस पर सोचना तो होगा ही और इस परिस्थिति को बदलना भी होगा।
मज़दूर बिगुल, जून 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन