दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में
दिल्ली की आँगनवाड़ी महिलाओं की शानदार जीत!
58 दिनों तक चली हड़ताल के बाद केजरीवाल सरकार को झुकाया, सरकारी राजपत्र निकाल कर सरकार ने मानदेय दो गुना किया! महिलाओं ने किया जात-पात तोड़क विजय भोज का आयोजन!
आख़िरकार दिल्ली की आँगनवाड़ी की महिलाओं ने अपनी यूनियन दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन की अगुवाई में अरविन्द केजरीवाल और उसकी नौटंकी मण्डली को झुका ही दिया। 58 दिनों तक चली हड़ताल के बाद, 23 अगस्त को सरकार ने राजपत्र निकालकर मानदेय को दो गुना कर दिया। आँगनवाड़ी हेल्पर का मानदेय 2500 से बढ़कर 5089 हो गया है और आँगनवाड़ी वर्कर का मानदेय 5000 से बढ़कर 10028 हो गया है। दिल्ली की आँगनवाड़ी के इतिहास में मानदेय में इतनी बड़ी वृद्धि अभूतपूर्व है और इतनी बड़ी हड़ताल उससे भी अधिक अभूतपूर्व है। हालाँकि लड़ाई का यह सिर्फ़ पहला चरण था और आगे अभी लड़ाई जारी रहेगी, क्योंकि न्यूनतम वेतन और सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिलने का हक़ पाना अभी बाक़ी है। और इसके लिए इस नौटंकीबाज़ केजरीवाल के साथ-साथ झूठे और जुमलेबाज़ मोदी सरकार से भी लोहा लेना होगा। इस जीत के जश्न में 3 सितम्बर को दिल्ली स्थित अम्बेडकर भवन में जात-पात तोड़क भोज किया गया, जिसका तात्पर्य यह है कि आँगनवाड़ी महिलाओं ने हड़ताल से सिर्फ़ अपने वेतन और भत्तों की वृद्धि को ही नहीं जीता है, बल्कि वे राजनीतिक तौर पर भी एक हद तक चेतस हुई हैं और जाति-प्रथा और महिलाओं की गुलामी जैसे मुद्दों पर भी सक्रिय हो रही हैं, जोकि आज के इस अन्धकारमय समय में बेहद ख़ुशी और उत्साहवर्धक बात कही जा सकती है।
काम न आयी केजरीवाल सरकार की कोई भी चाल!
जैसाकि पिछले दो अंकों में हम पहले ही बता चुके हैं कि इस हड़ताल को तोड़ने और नाकाम करने के लिए अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। वह हर एक चाल के बाद दूसरी चाल चलती रही, लेकिन आँगनवाड़ी की महिलाओं ने अपनी यूनियन दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के कुशल नेतृत्व में बेहतरीन जवाब दिया और सरकार की हर चाल को नाकाम किया। सरकार ने सबसे पहले यह कोशिश की कि महिलाओं को यूनियन से अलग-थलग कर दिया जाये, ताकि वे अपने नेतृत्व से कटकर बिखर जायें और हड़ताल टूट जाये। इसी सिलसिले में अरविन्द केजरीवाल का अलोकतान्त्रिक और तानाशाहीपूर्ण स्वरुप देखने को मिला। सरकार यूनियन से बात करने से मना कर रही थी, जोकि न सिर्फ़ ग़ैर-क़ानूनी और असंवैधानिक है, बल्कि अभूतपूर्व भी है। ऐसा रवैया तो कांग्रेस और भाजपा की मज़दूर विरोधी सरकारों ने भी नहीं अपनाया था। केजरीवाल सरकार की यह चाल उसे उलटी पड़ी। शायद उसका अनुमान यह था कि इससे महिलाएँ टूट जायेंगी और अपनी यूनियन को दरकिनार कर देंगी, लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। इन चालबाज़ियों के कारण सरकार के िख़लाफ़ गुस्सा और तेज़ हो गया और महिलाओं का यूनियन के नेतृत्व पर भरोसा पहले से और ज़्यादा बढ़ गया। इस बात का प्रमाण हड़ताल स्थल पर उनकी उपस्थिति में ज़बरदस्त वृद्धि होना था। ज्यों-ज्यों महिलाओं को केजरीवाल सरकार की ये चालें मालूम पड़ीं तो जहाँ पहले 1500-2000 महिलाएँ आम दिनों में उपस्थित होती थीं, वहीं बाद में यह संख्या 4000-5000 तक पहुँच गयी।
अपनी इस चाल को नाकामयाब होता देख केजरीवाल ने हड़ताल तोड़ने की ठेकेदारी प्रोफ़ेशनल हड़ताल-तोड़क यूनियनों को दे दी। इस काम में सबसे शातिर-माहिर नाम सीटू का है जिनका इतिहास ही देश-भर के मज़दूरों से ग़द्दारी के कारनामों से भरा पड़ा है। गुडगाँव, मानेसर से लेकर बंगाल और केरल में मज़दूरों से ग़द्दारी करने में इन्होंने बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हासिल की हैं तो भला अब ये दिल्ली में आँगनवाड़ी की महिलाओं को दगा देने में पीछे क्यों हटते! सीटू की कमला वाली यूनियन, जिसने 2015 में भी हड़ताल तोड़ने की भरसक कोशिश की थी लेकिन उस समय महिलाओं ने उसे हड़ताल स्थल से ही भगा दिया था, इस बार भी फिर से हमारी यूनियन को समर्थन देने के बहाने आन्दोलन में घुसने की कोशिश कर रही थी। लेकिन उसकी इस पुरानी चाल को यूनियन ने कामयाब नहीं होने दिया। ऐसी दलाल यूनियनों की यह पुरानी चाल रही है कि समर्थन देने के बहाने हड़ताल में शामिल हो और अन्दर ही अन्दर तोड़-फोड़ की कार्यवाहियाँ कर और अफ़वाहें फैलाकर हड़ताल को तबाह कर दो।
लेकिन जब यह चाल कामयाब नहीं हुई तो कमला की यूनियन सीधे अपनी असली रूप में आ गयी और उसने हड़ताल से अलग नया परचा निकाल कर मनीष सिसोदिया का घेराव करने का आह्वान किया और हमारी यूनियन और नेतृत्व की साथी शिवानी के िख़लाफ़ घटिया कि़स्म का कुत्साप्रचार शुरू कर दिया। लेकिन कमला की यह चाल भी काम नहीं आयी। जिस दिन उसने मनीष सिसोदिया के आवास के घेराव का आह्वान किया उसके साथ सिर्फ़ उसकी तीन चमचियाँ ही पहुँची। यह उसके मुँह पर महिलाओं का जड़ा हुआ ज़ोरदार तमाचा था और सभी संशोधनवादी यूनियनों को एक चेतावनी यही थी कि अब बस! बन्द कर दो मज़दूरों के साथ ग़द्दारी करना वरना आगे तुम सब का हश्र इससे भी बुरा होने वाला है। अरविन्द केजरीवाल को अपनी इस चाल में भी मुँह की खानी पड़ी लेकिन उसका गन्दा इरादा अभी भी बना हुआ था। अब केजरीवाल सरकार ने एक नया फ़र्ज़ीवाडा शुरू कर दिया, जिसमें इनकी एनजीओ-बाज़ आम आदमी पार्टी बेहद माहिर खिलाड़ी है, लेकिन इस बार उसका पाला ग़लत लोगों से पड़ गया था। सरकार ने एक फ़र्ज़ी यूनियन बनायी जिसमें सुपरवाइज़र, सीडीपीओ, आम आदमी पार्टी की कार्यकर्ता आदि समेत सब शामिल थे सिवाय आँगनवाड़ी की महिलाओं के। और सरकार ने यह घोषणा कर दी कि यूनियन से बात हो गयी है, हमने उनकी माँगें पूरी कर दी हैं और हड़ताल ख़त्म हो गयी है। इस फ़र्ज़ी यूनियन के फ़र्ज़ी समझौते की असलियत को समझने के लिए सिर्फ़ एक माँग जो इन्होंने समझौता-पत्र में लिखी थी उसका जि़क्र कर देना ही काफ़ी होगा। इस समझौते में इस फ़र्ज़ी यूनियन ने माँग की थी कि चार आँगनवाड़ियों को मिलाकर एक आँगनवाड़ी कर दिया जाये, जिसका मतलब यह हुआ कि आठ में से छह वर्करों और हेल्परों को काम से बाहर निकालने का रास्ता साफ़ हो जायेगा। सोचने वाली बात यह है कि कोई भी मज़दूरों की हमदर्द यूनियन यह माँग क्यों उठायेगी। केजरीवाल को उसकी यह चाल भी बेहद उलटी पड़ी, और इससे महिलाओं का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया और महिलाओं ने प्रण लिया कि केजरीवाल से इसका बदला लेकर रहेंगी। अपनी इस चाल को भी नाकामयाब होते देख केजरीवाल ने फिर नया पासा फेंका। इस बार यह जि़म्मेदारी उसने अपने विधायकों, सुपरवाइज़रों और सीडीपीओ को दी। उनका काम था कि अपने-अपने इलाक़ों से कुछ आँगनवाड़ी की महिलाओं को पकड़ कर लाना और केजरीवाल से मीटिंग करवाना और मीडिया में समझौता हो जाने और हड़ताल ख़त्म होने की अफ़वाह उड़ाना। हम सभी जानते हैं कि सफल से सफल हड़ताल में भी इक्का-दुक्का ग़द्दार होते ही हैं जो सरकार या प्रशासन का साथ देते हैं। लेकिन बहुत कोशिश कर पाने के बाद भी पाँच-छह महिलाएँ ही इन मीटिंगों में आती थीं, जबकि बाहर हड़ताल पर छ-सात हज़ार महिलाएँ बैठी रहती थीं। मतलब यह चाल भी नाकाम रही।
अब थक-हारकर केजरीवाल ने ट्विटर पर मानदेय बढ़ाने की घोषणा कर दी, लेकिन कोई सरकारी नोटिस या राजपत्र नहीं निकाला। यह हमारी जीत की शुरुआत थी, लेकिन हड़ताल अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी, क्योंकि हमें केजरीवाल सरकार पर कोई भरोसा नहीं रह गया था और उसका इतिहास बतलाता है कि वह कभी भी पलट सकता था। इसलिए यूनियन का कहना था कि जब तक सरकार राजपत्र निकाल कर हमारी माँगों को पूरा नहीं कर देती या फिर यूनियन से बात कर समझौता नहीं कर लेती, तब तक हमारी हड़ताल जारी रहेगी। आिख़रकार हारकर सरकार को हमारी माँगें माननी ही पड़ी और पिछले महीने की 23 तारीख़ को उसे राजपत्र निकालकर मानदेय बढ़ाने की घोषणा करनी पड़ी।
यह हड़ताल महज़ वेतन-भत्ते के लिए संघर्ष नहीं था, बल्कि राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण का केन्द्र भी था।
लेनिन के बताया है कि हड़तालें मज़दूरों की प्राथमिक पाठशाला होती हैं जहाँ सिर्फ़ आर्थिक लड़ाई नहीं लड़ी जाती, बल्कि वे मज़दूरों के राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण का केन्द्र भी होती हैं। आँगनवाड़ी की इस हड़ताल में भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ। आमतौर पर संशोधनवादी यूनियनें मज़दूरों को सिर्फ़ वेतन-भत्ते तक उलझाकर ही रखती हैं, उनका राजनीतिकरण बिल्कुल नहीं करती, लेकिन एक क्रान्तिकारी यूनियन आर्थिक संघर्ष के क्षेत्र को भी राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण का केन्द्र बना देती है।
आँगनवाड़ी की हड़ताल ने महिलाओं को यह सिखाया कि हम भी हैं इंसान, हम भी अपने हक़ों के लिए संघर्ष करेंगी, एकजुट होंगी और घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सड़कों पर उतरेंगी और सरकार को झुकाकर ही दम लेंगी। उन्होंने अपनी एकता की ताक़त को समझना सीखा, यूनियन की ज़रुरत को समझा और सरकार के साथ-साथ पितृसत्ता को भी चुनौती दी। ये वही महिलाएँ थीं, जो चुपचाप मुँह बन्द कर सुपरवाइज़र और सीडीपीओ की गुलामी झेलती थीं और घर आकर पति और पितृसत्ता के संस्थान यानी परिवार की गुलामी भी झेलती थीं। लेकिन अब ये महिलाएँ ही अपनी यूनियन के नेतृत्व में सड़कों पर उतरकर सरकार से लोहा ले रही थीं, ख़ुद यूनियन को चलाने का काम कर रही थीं, यूनियन जनवाद की समझ को लागू कर रही थीं, पिकेटिंग टीमें और हड़ताली दस्ते बनाकर आँगनवाड़ी-केन्द्रों को बन्द करवा रही थीं, नये-नये गीत-संगीत रच रही थीं और इसके अलावा आम आदमी पार्टी का बहिष्कार भी कर रही थीं। वे संशोधनवादी और ग़द्दार यूनियनों की पहचान करना सीख रही थीं, जाति और धर्म के नाम पर लोगों का हक़ छीनने वाली फासीवादी सरकार की चालों को भी समझ रही थीं, अपने बीच जातिगत और धार्मिक पूर्वाग्रहों से भी शुरुआती संघर्ष कर रही थीं और कुल मिलाकर कहा जाये तो अपने को एक वर्ग के रूप में पहचान रही थीं।
हड़ताल की पूरी समयावधि के दौरान यूनियन अपने फ़ैसले किसी नौकरशाहाना तरीक़े से नहीं करती थी बल्कि अपने बीच से चुनी हुई कमेटी के जरिये ही फ़ैसले लेने और उस पर अमल करने का काम करती थी। कमेटी जो भी फ़ैसले लेती थी, उसको आमसभा में पारित कराया जाता था। महिलाओं के लिए यह अनुभव एक सुखद आश्चर्य जैसा था, क्योंकि संशोधनवादी यूनियनों में नौकरशाही चलती है और वहाँ जनवाद के लिए कोई जगह नहीं होती है। यूनियन-कार्य के इन जनवादी तरीक़ों से महिलाओं का ख़ुद पर और यूनियन पर विश्वास ठोस होता गया और उनकी पहलक़दमी खुलने लगी। यूनियन की आय का स्रोत महिलाओं द्वारा दिया जाने वाला सहयोग था। सहयोग पेटी के ज़रिये महिलाएँ यूनियन के ख़र्चे के लिए बढ़-चढ़कर सहयोग करती थीं। पिछले कई महीने से मानदेय नहीं मिलने और घर की स्थिति जर्जर होने के बावजूद वे यह सहयोग कर रही थीं, इसी बात से उनकी राजनीतिक चेतना में हुई वृद्धि का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।
यूनियन के जनवादी होने की एक शर्त यह भी है कि उसका आय-व्यय का ब्यौरा कितना पारदर्शी है। संशोधनवादी यूनियनें रसीद कटवाती हैं लेकिन कभी भी ख़र्च का कोई ब्यौरा नहीं देती हैं, जोकि उनके भ्रष्ट हो जाने का एक बड़ा कारण भी है। यूनियन का आय-व्यय बिल्कुल पारदर्शी था। हर तीन-चार दिन पर कुल आय-व्यय का ब्यौरा पेश किया जाता था। इससे यूनियन पर महिलाओं का विश्वास और गहरा होता चला गया। हड़ताल के दौरान ही एक महिला की मृत्यु हो गयी तो यूनियन ने उनकी मदद के लिए एक विशेष सहयोग की अपील की और महिलाओं ने बढ़-चढ़कर सहयोग किया।
सरकार ने हड़ताल को कमजोर करने के लिए सुपरवाइज़र और सीडीपीओ पर दबाव डालकर महिलाओं को डरा-धमकाकर आँगनवाड़ी खुलवाने की कोशिशें कीं। कुछेक महिलाओं ने इनके डर से आँगनवाड़ी खोली भी। इससे निपटने के लिए यूनियन ने भी अपनी कार्रवाई की। महिलाओं की पिकेटिंग टीम बनायी गयी और जगह-जगह सेण्टरों पर जाकर डरी हुई अपनी बहनों को हौसला दिया गया और समझाया गया कि सुपरवाइ़जर और सीडीपीओ की गीदड़ भभकियों से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, वे आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, आपके साथ आपकी यूनियन है। इस पिकेटिंग का ज़बरदस्त असर हुआ और जो भी महिलाएँ डर रही थी, उनमें साहस और हिम्मत आयी और वे भी हड़ताल में शामिल हो गयीं। इससे बौखलाकर सुपरवाइज़र, सीडीपीओ और आम आदमी पार्टी के गुण्डों ने महिलाओं पर हमला करना शुरू कर दिया। यह उनकी हताशा को ही ज़ाहिर कर रहा था। इन हमलों का जवाब महिलाओं ने भी बख़ूबी दिया। महिलाओं ने यह साबित कर दिया कि वे न सिर्फ़ सड़कों पर उतरकर अपने हक़ के लिए संघर्ष कर सकती हैं बल्कि ज़रूरत पड़ने पर वे आत्म-सुरक्षा में जवाबी कार्रवाई भी कर सकती हैं। यह उनकी पहलक़दमी खुलने का ही एक उदाहरण था।
केजरीवाल सरकार की धोखाधड़ी का पर्दाफ़ाश करने के लिए बवाना में हुए उप-चुनाव में ‘आम आदमी पार्टी’ का बहिष्कार किया गया। हालाँकि जनता के समक्ष विकल्पहीनता की वजह से ‘आम आदमी पार्टी’ का उम्मीदवार चुनाव जीत गया, लेकिन मुख्यतः हमारे बहिष्कार की वजह से बवाना में पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार बेहद कम मतदान प्रतिशत था। साफ़ है कि लोग साँपनाथ और नागनाथ में से एक को चुनने को विवश हैं। दरअसल यह पूँजीवादी चुनाव व्यवस्था जनता को कोई सार्थक विकल्प दे ही नहीं सकती और अभी किसी क्रान्तिकारी विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी की वज़ह से इस या उस चुनावबाज़ पार्टी का जीतना तय है, वह आम आदमी पार्टी हो या कांग्रेस या भाजपा या फिर कोई और।
आमतौर पर इस समाज में यह कहा जाता है कि इन ग़रीब महिलाओं का काम सिर्फ़ सेवा करना है, ये कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्य नहीं कर सकती, जबकि इन्हें कभी भी ऐसे कार्य करने का मौक़ा दिया ही नहीं जाता। आँगनवाड़ी की हड़ताल ने इस बात को भी ग़लत साबित कर दिया। महिलाओं ने ख़ुद अपने गीत-संगीत, कविताएँ, नज़्में रचीं। संघर्ष के नये-नये गीत बहुत ही दिलचस्प तरीक़े से रचे गये और पेश किये गये। जो महिलाएँ सुपरवाइज़रों के सामने कुछ बोल भी नहीं पाती थीं, वे अच्छे भाषण देना सीख गयीं। इसके अलावा यूनियन की सभी तकनीकी कामों को भी वे ख़ुद ही करने लगीं।
जीत के बाद जीत का जश्न!
23 अगस्त को राजपत्र जारी होने के बाद अगले दिन (24 अगस्त) महिलाएँ एक बार फिर मुख्यमन्त्री आवास पर इकट्ठा हुईं और उन्होंने एक-दूसरे को जीत की बधाई दी और खुलकर जश्न मनाया। फिर ढोल-नगाड़े के साथ पूरे सिविल लाइन्स विधानसभा इलाक़े में एक विशाल रैली का आयोजन किया गया। क़रीब 10 हज़ार महिलाओं ने इस विजय रैली में हिस्सेदारी की। इसके बाद यूनियन ने यह तय किया कि इस जीत के जश्न को और अच्छे से मनाना होगा और इसके लिए विजय भोज का आयोजन किया गया। 3 सितम्बर को दिल्ली के अम्बेडकर भवन में जात-पात तोड़क भोज तथा यूनियन पदाधिकारियों के चुनाव का आयोजन किया गया। इस भोज का मक़सद न सिर्फ़ अपनी जीत का जश्न मनाना था, बल्कि एकताबद्ध होकर जाति और धर्म आधारित भेदभाव को ख़त्म करने के लिए संघर्ष की शुरुआत करना भी था। अपने संघर्ष के दौरान महिलाओं ने यह भी देखा कि जाति और धर्म शोषक वर्गों के हाथ में मेहनतकशों को आपस में बाँटने का एक हथियार रहा है और इसका जवाब वर्ग लामबन्दी ही हो सकता है। उसी दिन यह फ़ैसला भी लिया गया कि यह हमारे संघर्ष का समापन नहीं है, बल्कि एक अर्द्धविराम है ताकि हम आने वाली संघर्षों की तैयारी कर सकें। अभी तो बस हमने अपना मानदेय ही बढ़वाया है, लेकिन अभी भी हमारा मुख्य लक्ष्य न्यूनतम वेतन प्राप्त करना और सरकारी कर्मचारी का दर्जा पाना है। और इसके लिए सिर्फ़ केजरीवाल सरकार को ही नहीं बल्कि केन्द्र की मोदी सरकार को भी घेरना होगा, क्योंकि समेकित बाल विकास योजना मुख्य तौर पर केन्द्र सरकार की है और वह अपनी जि़म्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती है और कर्मचारी का दर्जा देने का अधिकार भी केन्द्र सरकार के पास ही है। वैसे मज़दूर-विरोधी, फासीवादी मोदी सरकार ने अपने तीन साल के कार्यकाल में मज़दूर विरोधी नीतियाँ ही बनायी हैं और आँगनवाड़ी का बजट भी पहले से आधा कर दिया है। ऐसे में संघर्ष कर इनको झुकाने के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आता, लेकिन इसके लिए अपनी ताक़त को फिर प्राप्त करने के लिए थोडा विश्राम करना सही रहेगा।
यूनियन ने जनवाद के सिद्धान्त को लागू करते हुए इसी दिन चुनाव भी कराया और एक पच्चीस सदस्य कार्यकारिणी का चयन किया गया। यूनियन की साथी शिवानी को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया।
हमारी हड़ताल की जीत को सुनकर कुछ सुपरवाइज़रों ने भी यूनियन से सम्पर्क किया है, क्योंकि बहुत सारे सुपरवाइज़र भी ठेके पर काम करते हैं और उनका अनुबन्ध सरकार ख़त्म करने जा रही है। हड़ताल के दौरान ही हमने ऐसे सभी सुपरवाइज़रों से अपील की थी कि आप भी संघर्ष में शामिल हो जाओ वरना कल सड़क पर आप भी आ सकते हो, लेकिन उस समय उन्होंने हमारी अपील नहीं सुनी और अब, जब यूनियन ने जीत हासिल कर ली है, वे भी हमारे साथ आने को तैयार हैं। यह हमारी यूनियन के लिए एक बड़ी जीत है।
हड़ताल के बाद अब हर पखवाड़े पर यूनियन पाठशाला का आयोजन करने का तय किया गया है, ताकि क्रान्ति के विज्ञान को समझा जा सके, देश-दुनिया में हुए महिलाओं के संघर्षों से अवगत हुआ जा सके, मज़दूर क्रान्तियों के इतिहास से परिचित हुआ जा सके तथा रूस और चीन के मज़दूरों से सीखते हुए हम आने वाले समय में एक अन्याय-मुक्त, शोषण-मुक्त समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकें।
महिलाओं ने आम सभा में यह भी तय किया कि देश-विदेश में होने वाले मज़दूरों, उत्पीड़ितों के संघर्षों को समर्थन दिया जायेगा और यथासम्भव उसमें भागीदारी की जायेगी।
आँगनवाड़ी की महिलाओं का संघर्ष इस अँधेरे समय में ज़बरदस्त हौसला देने का काम करेगा। आज जहाँ चारों ओर श्रम की ताक़त पर पूँजी की ताक़त हावी है और फासीवादी राक्षस हैवानियत फैला रहे हैं, ऐसे में आँगनवाड़ी स्त्री कामगारों की यह जीत इस अँधेरे को चीरने के लिए एक मशाल की भूमिका निभा सकती है।
मज़दूर बिगुल,सितम्बर 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन