अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के अवसर पर
समाजवादी चीन ने स्त्रियों की गुलामी की बेड़ियों को कैसे तोड़ा

श्वेता

आम तौर पर Breaking All Traditions Chains-1यह माना जाता है कि स्त्रियों का मुख्य काम घर की देखभाल, बच्चों की परवरिश व चूल्हे-चौके को संभालने तक सीमित है। इसके समर्थन में परम्परा और रीति-रिवाज़ का हवाला देकर इसे कुछ यूँ पेश किया जाता है मानो यह कोई प्राकृतिक नियम हो। मज़ेदार बात तो यह है कि ये विचार सिर्फ़ पुरुषों तक ही नहीं सीमित हैं बल्कि महिलाओं में भी मौजूद हैं। इस तरह स्त्री-पुरुष असमानता और स्त्रियों की दासता को कभी न ख़त्म होने वाला एक सामाजिक नियम समझ लिया जाता है। लोग यह नहीं समझते कि कोई भी सामाजिक नियम ठोस भौतिक अवस्थाओं से जन्म लेता है और उन अवस्थाओं के बदलने के साथ ही वे नियम भी बदल जाते हैं। कम ही लोग यह जानते हैं कि समाजवादी मुल्कों जैसे रूस (1917-1953) और चीन (1949-1976) (जब तक वहाँ समाजवाद का झण्डा बुलंद था) ने स्त्री-पुरुष असमानता और स्त्रियों की दासता के ख़ात्मे की दिशा में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की थीं। पूँजीवाद इन उपलब्धियों पर पर्दा डालने की हरचन्द कोशिशें तो करता ही है पर साथ ही वह कुत्सा-प्रचार की घिनौनी राजनीति का सहारा लेकर इन उपलब्धियों को कलंकित भी करता है। परन्तु मज़दूर वर्ग के लिए तो समाजवादी प्रयोगों के दौरान हासिल तमाम उपलब्धियों का विशेष महत्व है।

आइये ज़रा देखें कि समाजवादी चीन (1949-1976) ने महिलाओं की गुलामी के ख़ात्मे की दिशा में क्या-क्या महत्वपूर्ण क़दम उठाये थे। यह समझने के लिए हमें क्रान्तिपूर्व चीन में महिलाओं की स्थिति पर एक सरसरी निगाह दौड़ानी होगी। वर्ष 1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हुई क्रान्ति से पहले चीन में महिलाओं को तमाम कुप्रथाओं और सड़ी-गली परम्पराओं का दंश झेलना पड़ता था। छोटी उम्र में ही लड़कियों का जबरन ब्याह कर दिया जाता था। महिलाओं की जिम्मेदारी केवल अपने पतियों की सेवा करने तक सीमित थी। माँ-बाप द्वारा नवजात लड़कियों को मार डालना या भूखा मरने के लिए सड़क के किनारे छोड़ देना आम बात थी। कर्ज़ अदा न कर पाने की सूरत में अक्सर ही किसान अपनी बेटियों को सामंतों को बेचने के लिए मज़बूर कर दिये जाते थे। शहरों में वेश्यावृत्ति के अड्डे बड़े पैमाने पर मौजूद थे। क्रान्तिपूर्व चीन में छोटी उम्र की लड़कियों के पैर बाँधने की एक बर्बर प्रथा प्रचलित थी जिसमें लड़कियों के पैरों को बचपन से ही कपड़ों से यूँ बाँध दिया जाता था जिससे कि दोनों पैरों के पंजे जुड़ सकें क्योंकि इसे सुंदरता का प्रतीक समझा जाता था। छोटी बच्चियों के लिए यह बहुत दर्दनाक होता था, अक्सर ही उन्हें दूसरों का सहारा लेकर चलना पड़ता था।

china-womenवर्ष 1949 की चीनी क्रान्ति ने महिलाओं को सड़ी-गली परम्पराओं की बेड़ियों से आज़ाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। क्रान्ति के एक वर्ष बाद 1950 में एक नया विवाह कानून पारित किया गया जिसके अन्तर्गत महिलाओं को तलाक़ लेने का अधिकार हासिल हुआ जो उससे पहले केवल पुरुषों को हासिल था। जबरिया कराये जाने वाले विवाह, बहुविवाह, बालविवाह की प्रथाओं पर रोक लगा दी गई। महिलाओं को अपना पति चुनने व बच्चा पैदा करने या न करने की पूरी आज़ादी मिली। छोटी बच्चियों के पैर बाँधे जाने जैसी बर्बर प्रथाओं को ख़त्म किया गया। वेश्यावृत्ति का ख़ात्मा करके इस मानवद्रोही व्यवसाय में लगी महिलाओं को नौकरियों के नये अवसर मुहैया कराये गए। महिलाओं को नुमाइश की वस्तुओं की तरह प्रस्तुत करने वाले विज्ञापन प्रतिबंधित किये गए।

चीनी क्रान्ति के बाद महिलाएँ पहली बार घर की चहारदीवारियों से निकलकर फैक्ट्रियों व सामूहिक फार्मों में पुरुषों के साथ मिलकर काम करने लगीं। लाखों की संख्या में महिलाएँ लाल सेना में भी शामिल हुईं। यही नहीं, नौजवान स्त्रियों ने खुद को छोटे-छोटे समूहों में संगठित करके निर्माण के ऐसे कामों को अंजाम दिया जिन्हें परम्परागत रूप से पुरुषों के लिए आरक्षित समझा जाता था। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में महिलाओं को चूल्हे-चौके और बच्चों की परवरिश की घरेलू दासता से मुक्त करने के लिए सामूहिक भोजनालयों और शिशुशालाओं का ताना-बाना रिहाइश के इलाकों एवं फैक्ट्रियों के निकटवर्ती क्षेत्रों में विकसित किया गया। अब महिलाओं को भी समाजवादी चीन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का पूरा समय मिलने लगा। इन शिशुशालाओं में बच्चों की देखभाल के लिए नियुक्त किए गए लोगों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था। इस तरह के उपक्रमों से महिलाएँ कितने बड़े पैमाने पर घर की चौहद्दियों से निकलकर सामाजिक उत्पादन की दुनिया में शिरकत करने लगीं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1971 तक 90 प्रतिशत चीनी महिलाएँ घरों से बाहर काम कर रही थीं। कामगार महिलाओं को मातृत्व लाभ की सुविधाएँ (जैसे मातृत्व अवकाश, नवजात शिशुओं को स्तनपान के लिए काम के दौरान 40-60 मिनट की छुट्टी) भी बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराई जा रही थीं।

यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि समाजवादी चीन (1949-1976) ने महिला मुक्ति के मोर्चे पर जो कुछ भी हासिल किया था उसके मूल में कानूनी परिवर्तन नहीं बल्कि वे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन थे जिन्हें क्रान्ति ने सम्पन्न किया था। यूँ तो पूँजीवादी समाजों में भी महिलाओं के लिए कानून बनाये जाते हैं, लेकिन इन कानूनों से मिलने वाले लाभ पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों की वजह से निष्प्रभावी हो जाते हैं और इस तरह पूँजीवाद में कानून होने के बावजूद स्त्रियों की दासता बनी रहती है और स्त्री-पुरुष समानता दूर की कड़ी नज़र आती है।

हालाँकि वर्ष 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में देड़ सियाओ पिड़. के नेतृत्व में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो गई। इसके साथ ही महिलाओं की गुलामी का सिलसिला फिर से शुरू हो गया। पूँजीवादी चीन में आज महिलाओं की स्थिति का अंदाज़ा कुछ आँकड़ों से ही लगाया जा सकता है। आज चीन में एक ही जैसे काम के लिए महिलओं को पुरुषों की अपेक्षा 31 प्रतिशत कम वेतन मिलता है। बेरोज़गारी की दर भी महिलाओं में अधिक है। महिलाओं को विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में काम तलाशने में खासा मुश्किलात का सामना करना पड़ता है। महिलाओं के लिए सेवानिवृत्ति की आयु पुरफ़षों के मुकाबले 5-10 वर्ष कम है जिससे उन्हें सामाजिक सुरक्षाओं का थोड़ा ही लाभ मिल पाता है। गर्भवती महिलाओं को अक्सर काम से निकाल दिया जाता है, मातृत्व अवकाश की उनकी अर्जियों को भी ख़ारिज कर दिया जाता है। कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए असुरक्षित माहौल का अंदाज़ा 2013 में किए गए एक अध्ययन से ही लगाया जा सकता है जिसके अनुसार दक्षिणी चीन के एक शहर ग्वांगजांग की एक फैक्ट्री में 70 प्रतिशत महिलाएँ यौन उत्पीड़न का शिकार पायी गईं।

समाजवादी चीन ने बहुविवाह व कन्या भ्रूण-हत्या जैसी जिन कुप्रथाओं का ख़ात्मा किया था आज वे पूँजीवादी चीन में फिर से सिर उठा चुकी हैं। चीन में तेज़ी से बढ़ रही लैंगिक असमानता का आलम यह है कि एक आकलन के मुताबिक वर्ष 2020 तक चीन में पुरुषों की संख्या महिलाओं की संख्या से 3 करोड़ अधिक होगी। महिलाएँ बड़े पैमाने पर घरेलू हिंसा व बलात्कार जैसे घृणित अपराधों का शिकार हैं। ग़ौरतलब है कि स्वास्थ्य सुविधाओं के निजीकरण से मँहगे होते दवा-इलाज की पहुँच आम मज़दूर आबादी से तो दूर हुई ही है परन्तु इसका सबसे अधिक कहर तो ग़रीब महिलाओं पर ही पड़ा है। चीन में कामगार महिलाओं का 70 प्रतिशत हिस्सा कपड़ों, खिलौनों एवं इलेक्ट्रॉनिक सामानों के उद्योगों में लगा हुआ है। आवास सुविधाएँ न उपलब्ध होने के कारण ये महिलाएँ डॉरमेट्रियों में रहने को मज़बूर होती हैं जहाँ की परिस्थितियाँ अस्वस्थकर होने की वजह से अक्सर ही उन्हें बीमारियों का कहर झेलना पड़ता है। वर्ष 2009 में इन डॉरमेट्रियों में रहने वाली 20,000 महिलाएँ बीमार पड़ीं जिनकी ज़रा भी सुध सरकार ने नहीं ली।

आज अगर चीन में महिलाओं की गैर-बराबरी की स्थिति फिर से पैदा हुई है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में समाजवाद के ख़ात्मे के साथ ही पूँजीवादी सामाजिक व आर्थिक सम्बन्ध पुनः स्थापित हो गए। निजी स्वामित्व पर टिके पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में स्त्रियों की गुलामी अन्तर्निहित है। चीनी क्रान्ति ने एक छोटे से कालखण्ड में निजी स्वामित्व की व्यवस्था का नाश करके महिलाओं को गुलामी की बेड़ियों से बाहर निकालकर साबित कर दिया कि स्त्रियों की सच्ची मुक्ति तो केवल समाजवादी समाज में ही संभव है।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2015


 

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