कारखाना (संशोधन) विधेयक 2016: ”अच्छे दिनों” में मज़दूरों को एक और सौगात !
मज़दूरों से किये वायदों को पूरा करने के बजाय एक बार फिर मोदी सरकार ने भोंका मज़दूरों की पीठ में छुरा !

सिमरन

11 अगस्त 2016 को मोदी सरकार ने 1948 के कारखाना अधिनियम में संशोधन हेतु प्रस्तावित किये कारखाना (संशोधन) विधेयक 2016 को लोक सभा में पारित कर दिया जिसके तहत अब कारखानेदार मज़दूरों से कानूनन दुगना ओवरटाइम करवा सकते हैं। इस संशोधन के मुताबिक पहले के तीन महीने में 50 घण्टे के ओवरटाइम के कानून के मुकाबले अब मज़दूरों से 100 घण्टे ओवरटाइम करवाया जा सकता है यानि की अब मालिक पूरे साल भर में मज़दूरों से 400 घण्टे का ओवरटाइम करवा सकता है। जहाँ अधिकतर फैक्टरियों में आज 8 घण्टे के कार्य दिवस के कानून को लागू नहीं किया जाता और मज़दूरों से ज़बरन नौकरी से निकाल देने की धमकी के ज़ोर पर बिना भुगतान ओवरटाइम करवाया जाता है वहाँ इस विधेयक के बाद जो थोड़ी बहुत जवाबदेही फैक्टरी मालिकों की कानूनी तौर पर बनती भी थी उससे भी उन्हें मुक्ति दे दी गयी है। ताकि अब वह जैसे चाहे मज़दूरों का ख़ून चूस सके। केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस विधेयक की पैरवी करते हुए कहा कि कारखाना अधिनियम में यह संशोधन मज़दूरों को अधिक काम करने और अधिक पैसा कमाने का अवसर देंगे। साथ ही उन्होंने कहा कि व्यापार करने की प्रक्रिया को और सुगम बना कर रोज़गार के नए अवसर पैदा होंगे और इसके साथ उन्होंने कहा कि किसी भी हाल में एक दिन के कार्य दिवस की अवधि 10 घण्टे से ज़्यादा नहीं होंगी। दत्तात्रेय ने यह भी कहा कि मोदी सरकार की ‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इन्डिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ जैसी योजनाओं को देखते हुए यह संशोधन बेहद ज़रूरी बन गया है क्योंकि आज हमें इन योजनाओं के लिए बड़ी संख्या में मज़दूरों की ज़रूरत हैं। इस संशोधन के नंगे तौर पर मज़दूर विरोधी चरित्र को ढकने की नाकामयाब कोशिश करते हुए दत्तात्रेय साहब ने कहा कि ओवरटाइम का कानून मज़दूरों के लिए अनिवार्य नहीं है यह तो उनके लिए दुगनी तनख़्वाह कमाने का मौका है। जिन मज़दूरों को अच्छे दिनों के सपने दिखा कर, महंगाई, बेरोज़गारी ख़त्म करने के वादें कर मोदी सरकार ने वोट बटोरे थे आज एक एक कर उनसे किये वादों से सरकार मुकर रही है और बस इतना ही नहीं बल्कि घोर मज़दूर विरोधी कानून और नितियां लागू कर उनकी ज़िन्दगी को नरक से बदतर बना रही है। श्रम मंत्री के इस अधिनियम के पक्ष में किये तर्कों से ही मोदी सरकार का मज़दूर विरोधी चरित्र बेनक़ाब हो जाता है। जिस बेशर्मी से जनता के चुने हुए नेता मंत्री संसद में बैठ कर यह कहते है कि एक दिन की कार्य दिवस की अवधि 10 घण्टे से अधिक नहीं होंगी उसी से मालूम पड़ जाता है कि इन्हें मज़दूर वर्ग की ज़िन्दगी के हालात के बारे में कितना कुछ या कहे कि कुछ भी मालूम है। दिल्ली के वज़ीरपुर की स्टील फैक्टरियों में ख़तरनाक परिस्तिथियों में 12-12 घंटे काम करने के बावजूद मज़दूरों को ओवरटाइम तो दूर न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता, गुडगाँव, बावल, दारूहेड़ा की ऑटोमोबाइल पट्टी में भी ठेके पर काम कर रहे कैजुअल मज़दूरों का भी यही हाल है, पीरागढ़ी की चपल बनाने वाली या पंजाब के लुधियाना की टेक्सटाइल फैक्टरियों की भी यही हालत है। इस बात को समझ पाना कितना मुश्किल है कि जिन फैक्टरियों में पहले से ही मज़दूरों से 12-12 घण्टे काम करवाया जाता है वहाँ ऐसे मज़दूर विरोधी संशोधन किस कदर ख़तरनाक साबित होंगे। 1948 के कारखाना अधिनियम के मुताबिक जिस कारखाने में बिजली का उपयोग करते हुए एक साल में 10 मज़दूर या बिना बिजली के 20 मज़दूर उत्पादन की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करते है उसे कारखाना माना जायेगा। जिसके मुताबिक ओवरटाइम का यह कानून आज अधिकतर छोटी-बड़ी फैक्टरियों पर लागू होता है। अभी इस विधेयक को राज्य सभा में पेश किया जाना बाकी है लेकिन राज्य सभा से भी कुछ उम्मीद लगाना बेकार है। 1948 के कारखाना अधिनियम में इस संशोधन को मिलकर कुल 8 बार बदलाव किये जा चुके है। इस कानून में आखरी बदलाव 1987 में 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी के बाद किया गया था जिसके तहत जिन फैक्टरियों में ख़तरनाक रसायनों या पदार्थों का उत्पादन में इस्तेमाल किया जाता है वहां मज़दूरों को सुरक्षा के इंतज़ाम मुहैया कराना फैक्टरी मालिकों की ज़िम्मेदारी है लेकिन यह भी सिर्फ कागज़ पर लिखा कानून ही बन कर रहा। आज अगर दिल्ली के वज़ीरपुर की फैक्टरियों में उत्पादन की प्रक्रिया पर नज़र डाली जाय तो साफ़ हो जायेगा कि किस तरह इस कानून का हर रोज़ मखौल उड़ाया जाता है। मोदी सरकार ने 16वे लोक सभा चुनाव में जीत हासिल करने के साथ ही अपने आकाओं अम्बानी और अडानी को अपनी वफ़ादारी का सबूत पेश करते हुए 7 अगस्त 2014 को कारखाना (संशोधन) विधेयक लोक सभा में पेश किया था लेकिन विधेयक के प्रस्तावों पर गौर करने के लिए उसे स्थायी समिति के पास भेजा गया था। तब पेश किये गए प्रस्तावों में कुछ प्रस्ताव मज़दूरों को लुभाने के लिए भी थे जैसे कि ख़तरनाक परिस्तिथियों में काम करने वाले मज़दूरों को सुरक्षा के उपकरण मुहैया करवाना, ज़ेहेरली गैसों और रसायनों के साथ काम करते समय ख़ास सुरक्षा इंतज़ाम लागू करवाना, महिलाओं का पहले के कानून के मुताबिक चलती मशीनों पर काम करने की मनाही को हटाने आदि। लेकिन ओवरटाइम को बढ़ाने के प्रावधान को पास करवाने के लिए स्थायी समिति की रिपोर्ट पर बहस होने का इंतज़ार मोदी सरकार नहीं कर पायी और इस साल 11 अगस्त को मूल संशोधनों में से केवल दो संशोधनों को एक बार नए सिरे से लोक सभा में आनन-फानन में पेश और पारित किया गया। मोदी सरकार का कहना है कि ओवरटाइम बढ़ा देने के कानून के पारित हो जाने से नए रोज़गार पैदा होंगे लेकिन यह नए रोज़गार पैदा कैसे होंगे इस पर वह चुप्पी साधे रहती है। जब मालिक एक मज़दूर से अब पहले के मुक़ाबले और भी ज़्यादा काम करवा कर मुनाफ़ा कमा सकता है तो वो क्यों और नए मज़दूरों की भर्ती करेगा। अगर वाकई में इस विधेयक को लाने के पीछे सरकार की कोई नेक नियति होती तो वो पहले यह सुनिश्चित करती कि देश के हर कारखाने में 8 घंटे के कार्य दिवस का कानून सख्ती से लागू करवाया जाय। सभी मज़दूरों को न्यूनतम वेतन दिया जाय, ई.एस.आई. व पी.एफ. की सुविधा मुहैया करवाई जाय। लेकिन यह सब करने की बजाये मोदी सरकार बेंगलुरु की कपडा उद्योग में काम कर रही महिलाओं से उनका पी.एफ. छीनने की कोशिश करती है जिसके बाद महिलाओं के गुस्सें से फूटे विरोध प्रदर्शन के बाद सरकार को होश आती हैं। श्रम कानूनों को सख़्ती से लागू करवाया जा सके इसके लिए श्रम विभाग को सशक्त करने के बजाय मोदी जी लेबर इंस्पेक्टर की पोस्ट को ख़त्म करने की बेतुकी बात करते है। विदेशों में ‘मेक इन इण्डिया’ यानि की ‘आओं भारत के मज़दूरों की सस्ती श्रम शक्ति को लूट के मुनाफ़ा कमाओं’ की योजना जिसे मोदी जी पिछले दो साल से प्रचारित कर रहे है उसके तहत विदेशी पूँजी को लुभाने की यह एक और कवायद है।

मोदी सरकार का मज़दूर विरोधी चेहरा अब जनता के सामने साफ़ हो चूका है लेकिन मज़दूरों के असंगठित होने और तमाम चुनावी पार्टियों से सम्बद्ध दलाल ट्रेड यूनियनों के कारण मज़दूर विरोधी कानून न सिर्फ संसद विधान सभाओं में पेश किये जाते है बल्कि बिना किसी असली विरोध के पारित भी कर दिए जाते है। आज के फ़ासीवाद के उभार के दौर में जहाँ धार्मिक कट्टरपंथी धर्म और जाति के नाम पर जनता को बाँट रहे है वहाँ इस सब उन्माद को पैदा करने वाले फ़ासीवादी पूँजीवाद को उसके संकट से बाहर निकालने के लिए ऐसे घोर मज़दूर विरोधी कानून पारित करवा रहे है। ताकि मज़दूरों के अति-शोषण से अर्जित मुनाफ़े से पूँजीवाद अपने संकट से उभर पाए। देश का विकास, अच्छे दिन यह सब बस जुमले है वास्तव में यह विकास मालिकों और पूँजीपतियों का विकास है और अच्छे दिन भी उन्ही के लिए आये हैं।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2016


 

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