मज़दूरों के ख़ून से तर है पूँजीवादी मुनाफ़े का एक-एक सिक्का
बंगलादेश में इमारत ढहने से 1100 से भी ज़्यादा मज़दूरों की मौत
बंगलादेश हो या भारत, मौत के साये में काम करते हैं मज़दूर
सुरक्षित कार्यस्थितियों के लिए एकजुट होकर लड़ना ही होगा!
सम्पादकीय
पिछले 24 अप्रैल की सुबह हमारे पड़ोसी मुल्क बंगलादेश की राजधानी ढाका के एक औद्योगिक इलाक़े सावर में एक आठ मंज़िला विशाल इमारत ढह गयी। दो ही मिनट में, राना प्लाज़ा नाम का यह ढाँचा मलबे, मुड़ी-तुड़ी लोहे की छड़ों, मशीनों और कुचले हुए तथा मलबे में दबे शरीरों के एक पहाड़ में बदल गया। इस इमारत के निचले तले पर एक शॉपिंग सेण्टर था जो सुबह के वक़्त ख़रीदारों से खाली था। इसकी तीसरी से लेकर आठवीं मंज़िल तक पाँच गारमेण्ट फैक्टरियाँ चलती थीं जिनमें काम करने वाले हज़ारों मज़दूर सुबह 8 बजे की पाली में आकर काम शुरू कर चुके थे। इनमें से ज़्यादातर स्त्री मज़दूर थीं। जिस वक़्त इमारत गिरी उसमें पाँचों फैक्टरियों के कम से कम 3120 मज़दूर थे। 19 दिनों तक मलबे में दबे क्षत-विक्षत शवों की तलाश के बाद 13 मई को सरकार ने बताया कि मरने वालों की कुल तादाद 1127 है! सैकड़ों अन्य मज़दूर अब भी अस्पतालों में हैं, कितने ही ज़िन्दगी भर के लिए अपंग हो चुके हैं।
बंगलादेश के इतिहास में यह सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है। कुछ लोग इसकी तुलना भोपाल गैस काण्ड से भी कर रहे हैं। लेकिन यह कोई अनहोनी नहीं है। बंगलादेश, भारत और पाकिस्तान में शायद ही कोई महीना ऐसा जाता हो जब कहीं कोई भयानक हादसा बड़ी संख्या में मज़दूरों को मौत के घाट न उतारता हो। अभी कुछ ही महीने पहले बंगलादेश में गारमेण्ट फैक्ट्री में आग से 150 मज़दूर मारे गये थे। उसके बाद पाकिस्तान के दो कारख़ानों में एक ही दिन लगी आग 300 से ज़्यादा मज़दूरों को लील गयी। बंगलादेश में इस घटना से पहले पिछले 3 वर्ष में आग लगने या इमारत गिरने से 1800 से ज़्यादा गारमेण्ट मज़दूरों की मौत हो चुकी है। इस मामले में भी भारत अपने इन दोनों पड़ोसियों से आगे है। शिवकाशी में आग से 250 मज़दूरों की मौत, जालन्धर में फैक्ट्री इमारत गिरने से 25 मज़दूरों की मौत, कोरबा में टावर गिरने से 80 मज़दूर मरे, दिल्ली में रिहायशी इमारत ढहने में 100 से अधिक मज़दूर मरे, पीरागढ़ी में चप्पल कारख़ाने में आग, लुधियाना और वाराणसी में ब्वायलर फटने की घटना – अभी हाल में हुई दुर्घटनाओं की फेहरिस्त ही इतनी लम्बी है कि पूरा अख़बार इसी से भर जायेगा। किसी भी औद्योगिक इलाके से परिचित व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ आये दिन होती ही रहती हैं।
नयी उभरती पूँजीवादी शक्तियों के तौर पर पेश किये जा रहे भारत, चीन, ब्राज़ील, इण्डोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की आर्थिक ताक़त का राज़ मज़दूरों का भयंकर शोषण है। हर जगह अन्धाधुन्ध मुनाफ़ा बटोरने की हवस में न्यूनतम सुरक्षा उपायों को भी ताक पर रखकर काम लिया जाता है। विकास के मॉडल के तौर पर पेश किये जा रहे चीन में हर साल केवल खदान दुर्घटनाओं में 5000 से अधिक मज़दूर मारे जाते हैं।
सरकारी आँकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल दो लाख लोग औद्योगिक दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। मगर असलियत इससे कई गुना अधिक है। अधिकांश कारख़ानों में मज़दूरों का कोई रिकार्ड ही नहीं रखा जाता, दुर्घटनाएँ होती हैं और दबा दी जाती हैं। ‘बिगुल’ की ओर से दिल्ली के कुछ औद्योगिक इलाक़ों में होने वाली दुर्घटनाओं के बारे में राज्य सरकार और श्रम विभाग से आरटीआई के ज़रिये माँगी गयी जानकारियों के जवाब में दिल्ली सरकार और श्रम विभाग ने स्वीकार किया कि उनके पास राजधानी के कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों का कोई ब्योरा ही नहीं हैं। पुलिस और श्रम विभाग ने दुर्घटनाओं में मौतों के जो आँकड़े दिये उनसे दोगुने से ज़्यादा घटनाओं को उसी इलाक़े में ‘बिगुल’ के सर्वेक्षण में दर्ज किया जा चुका था। यह तो महज़ एक बानगी है। दिल्ली के पीरागढ़ी में पीवीसी चप्पल फैक्ट्री में लगी आग हो या तुगलकाबाद के एक कारख़ाने में हुआ हादसा, मालिकों और प्रशासन की मिली-भगत से मौतों को छिपाने के स्पष्ट साक्ष्य मौजूद हैं।
दुर्घटना नहीं, मुनाफ़े के लिए हत्याएँ
राना प्लाज़ा जैसे हादसों में मज़दूरों के क़त्लेआम के कारण इतने साफ़ हैं कि सोचकर सिहरन होती है। पूँजीपतियों के लिए सिर्फ़ एक चीज़ मायने रखती है – मुनाफ़ा और इसके नाम पर उनके लिए सबकुछ जायज़ है। काम की जगहों को सुरक्षित और स्वास्थ्यकर बनाने पर होने वाले खर्चे और बीच-बीच में मज़दूरों की जान गँवाने की तुलना की जाये तो दूसरा विकल्प हर तरह से कम खर्चीला है क्योंकि मज़दूर की ज़िन्दगी से सस्ती आज कोई चीज़ नहीं है। कारख़ाना मालिकों से लेकर उनके माल के अन्तरराष्ट्रीय ख़रीदारों तक के लिए इसमें सोचने की कोई बात ही नहीं है।
राना प्लाज़ा की इमारत तमाम सरकारी नियमों को धता बताकर जैसे-तैसे खड़ी कर दी गयी थी। बचे हुए मज़दूर बताते हैं कि भारी मशीनों के चलने पर उसकी दीवारें काँपती थीं। 23 अप्रैल को खम्भों, फर्श और दीवारों में दरारें पड़ जाने के बाद मज़दूरों ने काम करने से इंकार कर दिया था और बाहर निकल गये थे। लेकिन बाद में बिल्डिंग के मालिक सुहैल राना ने कहा कि एक इंजीनियर ने जाँच करके बताया है कि बिल्डिंग को कुछ नहीं होगा और मज़दूरों को अगले दिन से काम पर आने का आदेश दिया गया। अगले दिन सुबह 8 बजे मज़दूर पहुँचे और एक घण्टे बाद ही पूरी इमारत लाशों के ढेर में बदल गयी। मज़दूरों के हालात से अनजान लोग मासूमियत से पूछ सकते हैं कि जब उन्हें पता था कि इमारत कमज़ोर है तो वे वापस काम पर गये ही क्यों? इसका कारण यह है कि बंगलादेश में गारमेण्ट उद्योग में दुनिया में शायद सबसे कम मज़दूरी मिलती है। ज़्यादातर मज़दूरों की कई सप्ताह की मज़दूरी बकाया थी और उन्हें धमकाया गया था कि अगर काम पर नहीं गये तो निकाल दिया जायेगा। निकाले जाने के बाद बकाया मज़दूरी मिलने की बहुत कम उम्मीद रहती है। एक दिन काम पर न आने के लिए तीन दिन की मज़दूरी काट लेना आम बात है।
चीन और इटली के बाद बंगलादेश रेडीमेड कपड़ों का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। देश में 5,000 से भी अधिक गारमेण्ट फैक्टरियाँ हैं जिनमें करीब 36 लाख मज़दूर काम करते हैं। लेकिन 20 अरब डॉलर के इस उद्योग में काम करने के हालात बेहद ख़राब हैं। सरकारी भ्रष्टाचार, भयंकर बेरोज़गारी और लुटेरों की मददगार सरकारी नीतियों के कारण गारमेण्ट मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी सिर्फ 3000 टका (करीब 2100 रुपये) है। कहने की ज़रूरत नहीं, कि कई जगह यह भी नहीं मिलती। दुनियाभर में सस्ते श्रम की तलाश करने वाली मल्टीनेशनल कम्पनियों के लिए तो यह सोने की खान के समान है। बेनेटॉन, वाल्मार्ट, प्रीमार्क, गैप, रीबॉक, नाइकी, पियरे कार्डिन जैसी कम्पनियाँ यहीं अपने कपड़े बनवाती हैं जिन्हें दुनियाभर के फैशनेबल बाज़ारों में बेहद ऊँचे दामों पर बेचा जाता है। दुनियाभर के बड़े शहरों में इतराते फिरने वाले अमीरों के ‘हाई फैशन’ महँगे कपड़ों पर ग़रीब मज़दूरों के ख़ून के छींटे उन्हें भले न दिखते हों लेकिन गारमेण्ट मज़दूर जानते हैं कि उनका ख़ून निचोड़कर ही इन कपड़ों के रंग खिलते हैं। बार-बार होने वाली दुर्घटनाओं के बावजूद सुरक्षा मानकों और काम की स्थितियों में सुधार के बजाय दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ आपस में गलाकाटू होड़ में उलझी हुई हैं। लगातार गहराते विश्व आर्थिक संकट के बीच उनमें लागत कम करने की होड़ मची हुई है। ऐसे में मज़दूरों की सुरक्षा पर कौन खर्चा करेगा? मुनाफे की अन्धी होड़ केवल एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के ही मज़दूरों की ज़िन्दगी को ख़तरे में नहीं डाल रही है, इसका असर अब अमेरिका और यूरोप के विकसित पूँजीवादी देशों के मज़दूरों पर भी होने लगा है। वहाँ भी लागत कम करने के नाम पर सुरक्षा पर खर्च कम किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप दुर्घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है।
कुछ समय पहले दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल में काम के दौरान सुरक्षा और स्वास्थ्य विषय पर 18वीं विश्व कांग्रेस सम्पन्न हुई। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनियाभर में काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं और बीमारियों के कारण 24 लाख कामगारों की हर वर्ष मौत हो जाती है। काम से सम्बन्धित मौतों की संख्या सड़क दुर्घटनाओं, युद्ध, एच.आई.वी.-एड्स और हिंसा जैसे किसी भी अन्य कारण से होने वाली मौतों से बहुत अधिक है। लेकिन ये आँकड़े स्थिति का पूरा चित्र नहीं प्रस्तुत करते। भारत में आज मज़दूरों की भारी आबादी असंगठित क्षेत्र में काम कर रही है और उनके बारे में ठीक-ठीक आँकड़े किसी के पास नहीं हैं। ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूरों का नाम किसी रजिस्टर में दर्ज ही नहीं होता है। वे एक प्रकार की अदृश्य आबादी हैं। जैसेकि निर्माण परियोजनाओं में काम करने वाले मज़दूर। कई जगह तो उनकी हालत बँधुआ मज़दूरों जैसी होती है क्योंकि महीनों तक उन्हें निर्माणस्थल की चारदीवारी से बाहर ही नहीं निकलने दिया जाता। मज़दूरों की पहचान उनके ठेकेदार से होती है और वही उनका सबकुछ होता है। ऐसी स्थिति में कितनी घटनाएँ दर्ज होती हैं और कितने मामलों में किसी भी तरह का कोई मुआवज़ा मिल पाता है यह कहना बेहद कठिन है।
मज़दूरों की सुरक्षा से सम्बन्धित क़ानून बेहद लचर, अपर्याप्त और पुराने हैं। सरकार ख़ुद अपने बनाये क़ानूनों का भी पालन नहीं करती। अव्वलन तो बड़ी से बड़ी दुर्घटना पर भी मालिक और प्रबन्धन के ख़िलाफ़ कोई मामला नहीं बनता और अगर बनता भी है तो सज़ा इतनी मामूली होती है कि मालिक को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आये दिन ब्वायलर फटने से मज़दूर मरते और घायल होते हैं। मगर क़ानून में इसकी सज़ा सिर्फ 100 रुपये का जुर्माना है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कानपुर के चमड़ा उद्योग में काम करने वाले लगभग आधे से अधिक मज़दूर और अलीगढ़ के ताला उद्योग में काम करने वाले 75 प्रतिशत मज़दूर काम की ख़राब स्थितियों के कारण थोड़े समय के अन्दर बीमार पड़ जाते हैं। एस्बेस्टस का काम करने वाली फ़ैक्टरियों के मज़दूर, खदानों में काम करने वाले मज़दूर, चूना-भट्ठी और निर्माण उद्योग के मज़दूर लगातार मौत के साये में काम करते हैं। कुछ वर्ष पहले के एक आँकड़े के अनुसार सिर्फ़ उत्तर भारत में ही कृषि क्षेत्र में एक वर्ष में लगभग 170 लाख दुर्घटनाएँ हुई थीं और उनमें 53,000 लोगों की जान गयी थी। इसके अलावा मज़दूरों की एक भारी आबादी साँस की तक़लीफ़, चर्म रोग, आँख और कान के रोगों तथा हृदय के रोगों से पीड़ित रहती है। नींद पूरी न होने और आर्थिक तथा मानसिक उत्पीड़न के कारण ज़्यादातर मज़दूर जवानी में ही बूढ़े हो जाते हैं। सबसे बुरी और ख़तरनाक स्थितियों वाले काम बच्चों से करवाये जाते हैं और ये बच्चे जिन्हें बचपन का सुख नसीब नहीं होता जवान होने तक अनेक लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त हो चुके होते हैं।
कारख़ानों में सुरक्षा उपायों आदि की जाँच के रहे-सहे इन्तज़ामों को भी ख़त्म किया जा रहा है। वर्ष 2005 में जापान जैसे छोटे से देश में जहाँ 3,000 फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर थे वहीं पूरे भारत में मात्र 300 फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर थे। और इनके भी होने का कोई ख़ास मतलब नहीं है। दिहाड़ी करके किसी तरह दो वक़्त की रोटी कमा लेने वाले मज़दूर मुआवज़े आदि के लिए थाना-कोर्ट-कचहरी के चक्कर नहीं लगा सकते और वैसे भी वहाँ से कुछ हासिल होने की उम्मीद नहीं होती। ज़्यादातर ट्रेड यूनियनों के नेता लड़कर मज़दूर का हक़ दिलाने के बजाय दलाली का काम करते हैं और कुछ ले-देकर मामले को रफ़ा-दफ़ा कर देते हैं।
पूँजीपतियों की निगाह में मज़दूरों की जान की कोई कीमत नहीं है, लेकिन मज़दूर अपनी ज़िन्दगी को ऐसे ही गँवाने के लिए तैयार नहीं हैं। काम पर सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त हमारे जीने के बुनियादी अधिकार से जुड़ा है। हमें इसके लिए संगठित होकर लड़ना होगा और साथ ही इस आदमख़ेर पूँजीवादी ढाँचे को भी नेस्तनाबूद करने की तैयारी करनी होगी।
- अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार दुनियाभर में हर साल लगभग 24 लाख मज़दूर दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं
- भारत जैसे देशों में दुर्घटनाओं में मरने वालों की वास्तविक संख्या सरकारी आँकड़ों से कई गुना ज़्यादा
- हाथ-पैर कटने, घायल होने वालों की संख्या लाखों में
- आधा प्रतिशत से भी कम को मिल पाता है मुआवज़ा
- दुर्घटनाओं और बीमारियों से देश में हर मिनट में एक कामगार की मौत
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