निर्माणाधीन मेट्रो स्टेशन पर गड्ढे में दबाकर एक और मज़दूर की मौत!
मेट्रो मज़दूर उमाशंकर – हादसे का शिकार या मुनाफ़े की हवस का
बिगुल संवाददाता
गत 16 सितम्बर को दिल्ली में जहाँगीरपुरी से समयपुर बादली तक विस्तारित लाइन पर कार्यरत उमाशंकर नामक मज़दूर की मौत हो गयी जबकि दो अन्य घायल हैं। रोहिणी के सेक्टर 19 इलाक़े में बन रहे स्टेशन के पास उमाशंकर 30 फुट गहरे गड्ढे में गैस पाइप लाइन का पता लगाने उतरा था जहाँ मिट्टी धँसने से दबकर उसकी मौत मौके पर ही हो गयी। मारे गये मज़दूर की मौत के लिए साफ तौर पर ठेका कम्पनी और मेट्रो प्रशासन जिम्मेदार है क्योंकि काम के वक्त न तो मज़दूर के पास कोई सेफ़्टी बेल्ट थी न ही गहरे गड्ढे में जाने से पहले उसके पास मास्क सहित ऑक्सीजन सिलेण्डर जैसी कोई व्यवस्था थी। उमाशंकर की लाश को ठिकाने लगाने में ठेका कम्पनी जैकुमार और मेट्रो अधिकारियों ने देरी नहीं की। अगले दिन साईट को बन्द कर दिया और वहाँ कार्यरत सभी मज़दूरों को दूसरी साईट पर भेज दिया गया ताकि मज़दूर अपने मारे गये मज़दूर भाई के साथ एकता न दिखा सकें और न ही खुलेआम श्रम क़ानूनों की अनदेखी के खि़लापफ़ आवाज उठायें।
मेट्रो रेल के निर्माण में होने वाली यह पहली दुर्घटना नहीं है बल्कि ऐसी दुर्घटनाएँ लगातार होती आयी हैं। पीयूडीआर की रिपोर्ट के अनुसार मेट्रो रेल के दस साल के निर्माण में ही 109 बेकसूर मज़दूरों की मौत हुई लेकिन इन मौतों के ज़िम्मेदार हत्यारों की न तो गिरफ्ऱतारी हुई, न ही किसी को सज़ा मिली और न ही मज़दूरों को इंसाफ़!
दरअसल इन दुर्घटनाओं को हादसा कहना ही ग़लत है। यह सीधे-सीधे उन बेकसूर मज़दूरों की हत्या है; जो इसमें मारे गये हैं क्योंकि डी.एम.आर.सी. और ठेका कम्पनियों के लिए श्रम क़ानून, सुरक्षा उपायों और सुरक्षा उपकरण मुहैया कराना असल में इनके मुनाफ़े की हवस का रोड़ा है। इसलिए सभी क़ानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों को कोल्हू के बैल की तरह खटाया जाता है ताकि जल्दी से जल्दी ‘वर्ल्ड क्लास सिटी’ में मेट्रो दौड़े।
ठेका कम्पनियों के प्रति डी.एम.आर.सी. की वफ़ादारी जगजाहिर है तभी इन कम्पनियों द्वारा खुलेआम श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के बावजूद इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। वैसे भी ठेका कम्पनियों का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है, सामाजिक ज़िम्मेदारी से इनका कोई सरोकार नहीं है। यही वजह है कि मेट्रो की कार्य संस्कृति भी सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर है। तभी तो मज़दूर के शरीर पर लांचर गिरे, पुल टूटकर मज़दूर को दफनाये या ज़िन्दा मजदूर मिट्टी में दफन हो जाये, लेकिन मेट्रो निर्माण में लगी कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
ऐसे में हम मज़दूर साथियों से पूछना चाहेंगे कि कब तक हमारे मज़दूर भाई उमाशंकर की तरह मेट्रो रेल की नींव में धंसकर मरते रहेंगे। कहीं मुनाफे़ की हवस के लिए हो रही मौतों के लिए हमारी चुप्पी भी तो जिम्मेदार नहीं? और अगर हम आज चुप्पी साधे रहे तो कल हमारी बारी में भी कोई आवाज नहीं उठयेगा।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2013
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