Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

लुधियाना के कारख़ाना मालिकों का खूँखार चेहरा फिर उजागर

असल में लुधियाना के कारख़ानों में मालिकों का जंगलराज खुलेआम चल रहा है। कारख़ाना मालिकों द्वारा श्रम कानूनों की खुलकर धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। लुधियाना के लगभग सभी कारख़ानों के मज़दूरों के हक-अधिकारों पर कारख़ाना मालिकों द्वारा डाका डाला जा रहा है। न कहीं आठ घण्टे की दिहाड़ी का कानून लागू होता है, न न्यूनतम वेतन दिया जाता है, ज़बरदस्ती ओवरटाइम लगवाया जाता है। कारख़ानों में वहाँ काम कर रहे अधिकतर मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। कारख़ाने में काम करते हुए अगर किसी मज़दूर के साथ कोई हादसा हो जाये या उसकी जान ही चली जाये तो वह या उसका परिवार कोई मुआवज़ा माँगने के कानूनी तौर पर हकदार नहीं रह जाते।

मालिकों के मुनाफे की हवस का शिकार – एक और मजदूर

घटना वाले दिन रंजीत तथा तीन अन्य मज़दूरों को सुपरवाइज़र ने ज़बरदस्ती तार के बण्डलों के लोडिंग-अनलोडिंग के काम पर लगा दिया। उन चारों ने क्रेन की हालत देखकर सुपरवाइज़र को पहले ही चेताया था कि क्रेन की हुक व जंज़ीर बुरी तरह घिस चुके हैं जिससे कभी भी कोई अनहोनी घटना घट सकती है इसके बावजूद उन्हें काम करने के लिए मजबूर किया गया। ऐसे में वही हुआ जिसकी आशंका थी। चार टन का तारों का बण्डल रंजीत पर आ गिरा जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गयी। रंजीत की मौत कोई हादसा नहीं एक ठण्डी हत्या है।

कोरबा के मजदूरों की मौत हादसा नहीं, हत्या है!!

कोरबा की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है। मजदूर जिन अमानवीय नारकीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर होते हैं, उनमें आये दिन ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। साथ ही, मजदूरों को कई स्वास्थ्य सम्बन्धी बीमारियों का भी शिकार होना पड़ता है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में हर साल काम के दौरान होने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं में लगभग 24 लाख मजदूर मर जाते हैं। अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है दिल्ली मेट्रो रेल के जमरूदपुर स्थित निर्माण स्थल की घटना को जिसमें एक पिलर के गिर जाने से 6 मजदूरों को अपनी जान गँवानी पड़ी। राजधानी के बादली औद्योगिक क्षेत्र की फैक्ट्रियाँ तो मजदूरों के लिए मौत के कारख़ाने ही बन चुकी हैं। पिछले चन्द महीनों में इस क्षेत्र में दुर्घटना में हुई मौतों की संख्या ही 6 के आसपास है। क्या इन सभी दुर्घटनाओं को हादसा कहना सही होगा? क्या ये महज लापरवाही के कारण होने वाली मौतें हैं? नहीं! ये हादसे नहीं हत्याएँ हैं! यह सोचने वाली बात है कि हमेशा मजदूर जहाँ रहते और काम करते हैं, वहीं सब हादसे होते हैं! बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिकों और ठेकेदारों के आलीशान बंगले और एयर-कण्डीशण्ड चैम्बर तो कभी नहीं गिरते, कभी किसी हादसे का शिकार नहीं होते!

दिल्ली के समयपुर व बादली औद्योगिक क्षेत्र की ख़ूनी फ़ैक्ट्रियों के ख़िलाफ़ बिगुल मज़दूर दस्ता की मुहिम

बादली औद्योगिक क्षेत्र की फ़ैक्ट्रियाँ मज़दूरों के लिए मौत के कारख़ाने बन चुकी हैं! इन फ़ैक्ट्रियों को मज़दूरों के ख़ून का स्वाद लग चुका है। यही ख़ून मुनाफ़े में बदल कर मालिकों की तिजोरी में चला जाता है और इस ख़ून का निश्चित हिस्सा थाने-पुलिस- नेता-अफ़सरों तक भी नियमित रूप से पहुँचता रहता है। इसी वजह से लगातार हो रही मज़दूरों की मौतों पर कोई कार्रवाई नहीं होती है! ख़ूनी कारख़ाना चलता रहता है, हत्यारे मालिक का मुनाफ़ा पैदा होता रहता है, पूँजी की देवी के खप्पर में मज़दूरों की बलि चढ़ती रहती है!

कारख़ाना मालिकों की मुनाफ़े की हवस ने किया एक और शिकार

यह मसला एक नीलू की मौत का नहीं है। मसला है मालिकों द्वारा श्रम क़ानूनों और सुरक्षा मानदण्डों की धज्जियाँ उड़ाने का। मालिकों और श्रम विभाग के अधिकारियों के नापाक गठबन्धन के कारण मज़दूर आज पिस रहे हैं। लेकिन यह सोचना होगा कि कब तक मज़दूर नीलू की तरह मालिकों के मुनाफ़े की हवस की भेंट चढ़ते रहेंगे, कब तक अपनी हडि्डयाँ उनके महलों में ईंटों की जगह चिनते रहेंगे, कब तक खुद के घर के दिये बुझाकर उनके महलों को रोशन करते रहेंगे?

दिल्ली मेट्रो की दुर्घटना में मज़दूरों की मौत का जिम्मेदार कौन?

दरअसल इस दुर्घटना को हादसा कहना ही ग़लत है। यह सीधे-सीधे उन बेगुनाह मजदूरों की हत्या है जो इसमें मारे गये हैं। इन मजदूरों को मेट्रो प्रशासन अपना कर्मचारी मानने से इंकार करके गैमन कम्पनी का कर्मचारी बताता है ताकि उनकी मौत की जिम्मेदारी से हाथ झाड़ सके। निर्माण मजदूरों को कहीं भी मेट्रो प्रशासन ने कोई कर्मचारी पहचान कार्ड तक नहीं मुहैया कराया है। श्रम कानूनों को ताक पर रखकर इन मजदूरों से 12 से 15 घण्टे तक काम कराया जाता है। इन्हें न तो न्यूनतम मजदूरी दी जाती है और कई बार साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं दी जाती। सरकार और मेट्रो प्रशासन ने दिल्ली का चेहरा चमकाने और कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले निर्माण कार्य को पूरा करने के लिए ठेका कम्पनियों को मजदूरों से जानवरों की तरह काम लेने की पूरी छूट दे दी है। मजदूरों से अमानवीय स्थितियों में काम कराया जाता है। उनके काम की स्थितियों और सुरक्षा उपायों पर कोई ध्‍यान नहीं दिया जाता है।

बादली औद्योगिक क्षेत्र की हत्यारी फैक्टरियाँ

अब सवाल यह है कि किया क्या जाये? क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कोई रास्ता निकल सकता है। यहाँ राजा विहार, सूरज पार्क-जे.जे.कोलोनी, समयपुर, संजय कालोनी में मज़दूरों की एक बहुत बड़ी आबादी रहती है। ज्यादातर मज़दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के रहने वाले हैं। पुराने मज़दूरों की आबादी ठीक-ठाक है तथा नये मज़दूर भी आ रहे हैं। इस इलाके में मज़दूरों के बीच सीपीएम की यूनियन सीटू के लोग अपनी दुकानदारी चलाते हैं तथा कुछ छोटे-छोटे दलाल ‘मालिक सताये तो हमें बतायें’ का बोर्ड लगाकर बैठे हुए हैं, जिनकी गिद्ध दृष्टि मज़दूरों पर लगी रहती है। जैसे ही कोई परेशान मज़दूर उनके पास पहुँचता है ये गिद्ध उस पर टूट पड़ते हैं तथा उसकी बची-खुची बोटी नोचकर अपना पेट भरते हैं। इस इलाके में मज़दूरों को जागृत, गोलबन्द तथा संगठित करने का काम चुनौतियों से भरा हुआ है। लगातार प्रचार के माध्‍यम से मज़दूरों की चेतना को जागृत करते हुए उन्हें मज़दूरों के जुझारू इतिहास से परिचित कराना होगा, उन्हें उनके हक के बारे में लगातार बताते रहना होगा तथा उनके बीच के अगुआ लोगों को लेकर ऐसी एक-एक घटना के ख़िलाफ लगातार प्रचार करके पुलिस-प्रशासन-नेताशाही पर दबाव बनाना होगा, तभी जाकर इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने पर फैक्टरी मालिकों को मजबूर किया जा सकता है। इसी प्रक्रिया में मज़दूरों को लगातार बताना होगा कि यह पूरी व्यवस्था मालिकों की हिफाज़त के लिए है तथा बिना इस पूरी व्यवस्था को जड़ से बदले मज़दूरों का इन्सानों की ज़िन्दगी जी पाना असम्भव है।

कब तक ऐसे मरते रहेंगे

लुधियाना में ताजपुर रोड पर सेण्ट्रल जेल के सामने महावीर जैन कालोनी में ज़्यादातर कपड़ा रँगाई और पावरलूम की फ़ैक्ट्रियाँ चलती हैं। यहाँ ग्रोवर टैक्सटाइल नाम की फ़ैक्ट्री में भी पावरलूम चलता है। यहाँ पर लगभग 60 कारीगर काम करते हैं। पिछले 5-6 महीने से यह फ़ैक्ट्री यहाँ चल रही है। दूसरी पावरलूम फ़ैक्ट्रियों की तरह ही इसमें भी काम पीस रेट पर होता है। ताना बनाने से लेकर चैकिंग-पैकिंग तक का काम ठेके पर होता है। दिवाली के कुछ दिन बाद इस फ़ैक्ट्री में एक ताना मास्टर ताना बनाने वाली मशीन में लिपट गया और उसके शरीर की कई हड्डियाँ टूट गयीं। कुछ देर बाद जब उसको ताने में से निकाला गया तो उसकी हालत बहुत ख़राब थी। मालिक ने जल्दी से उसे श्रृंगार सिनेमा के पास ‘रतन’ बच्चों के अस्पताल में दाख़िल करवा दिया। हफ्ता भर वह ताना मास्टर मौत से लड़ता रहा लेकिन सही इलाज की कमी से आख़िरकार उसकी मौत हो गयी।

कम्पनी के लिए एक मज़दूर की जान की क़ीमत महज़ 50,000 रुपये

पैसे की हवस फिर एक मज़दूर की ज़िन्दगी को लील गयी। जिस उम्र में एक नौजवान को स्कूल कॉलेज में होना चाहिये था उस उम्र में वह नौजवान फ़ैक्ट्री में मालिकों के मुनाफ़े के लिए हाड़-माँस गलाते हुए असमय मौत का शिकार बन गया। मालिकों ने मज़दूर की एक ज़िन्दगी को 50,000 रुपये में तौल दिया। रात को जब चारों ओर सन्नाटा था तो सोनू की माँ की चीख-चीख कर रोने की आवाज़ अन्तरात्मा पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ रही थी। और सवाल कर रही थी कि हमारे मज़दूर साथी कब तक इस तरह मरते रहेंगे। कुछ लोगों के लिए हर घटना की तरह यह भी एक घटना थी उसके बाद वे अपने कमरे में जाकर सो गये। क्या वाकई 10-12 घण्टे के काम ने हमारी मानवीय भावनाओं को इस तरह कुचल दिया है कि ऐसी घटनाओं को सुनकर भी इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की आग नहीं सुलग उठती। एक बार अपनी आत्मा में झाँककर हमें ये सवाल ज़रूर पूछना चाहिए।

पंजाबी कहानी – नहीं, हमें कोई तकलीफ नहीं – अजीत कौर, अनुवाद – सुभाष नीरव

एक सुखद आश्चर्य का अहसास कराती पंजाबी लेखिका अजीत कौर की यह कहानी ‘कथादेश’ के मई 2004 के अंक में पढ़ने को मिली। कहानी में भारतीय समाज के जिस यथार्थ को उकेरा गया है वह कोई अपवाद नहीं वरन एक प्रतिनिधि यथार्थ है। भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में आज देश के तमाम औद्योगिक महानगरों में करोड़ों मजदूर जिस बर्बर पूँजीवादी शोषण–उत्पीड़न के शिकार हैं, यह कहानी उसकी एक प्रातिनिधिक तस्वीर पेश करती है। इसे एक विडम्बना के सिवा क्या कहा जाये कि तमाम दावेदारियों के बावजूद हिन्दी की प्रगतिशील कहानी के मानचित्र में भारतीय समाज का यह यथार्थ लगभग अनुपस्थित है, जबकि हिन्दी के कई कहानीकार औद्योगिक महानगरों में रहते हुए रचनारत हैं। हिन्दी की प्रगतिशील कहानी के मर्मज्ञ कहानी के इकहरेपन या सपाटबयानी के बारे में बड़ी विद्वतापूर्ण बातें बघार सकते हैं लेकिन इससे यह सवाल दब नहीं सकता कि आखिर हिन्दी कहानी इस प्रतिनिधि यथार्थ से अब तक क्यों नजरें चुराये हुए है? बहरहाल ‘बिगुल’ के पाठकों के लिये यह कहानी प्रस्तुत है। पाठक स्वयं कहानी में मौजूद यथार्थ के ताप को महसूस कर सकते हैं। – सम्पादक