Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

मालिकों के लिए हम सिर्फ मुनाफा पैदा करने की मशीन के पुर्जे हैं

एक दिन वह पावर प्रेस की मशीन चला रहा था। मशीन पुरानी थी, मिस्त्री उसे ठीक तो कर गया था, लेकिन चलने में उसमें कुछ दिक्कत आ रही थी। तो उस नौजवान ने सोचा चलो मालिक को बता दे कि यह मशीन अब ठीक होने लायक नहीं रह गयी है। जैसे ही वह उठा, खुली हुई मशीन की गरारी में उसका स्वेटर फँस गया और मशीन ने उसकी बाँह को खींच लिया। स्वेटर को फाड़ती हुई, माँस को नोचती हुई मशीन से उसकी हड्डी तक में काफी गहरी चोट आयी। अगर उसके बगल वाले कारीगर ने तुरन्त उठकर मशीन बन्द नहीं कर दी होती तो वह उसकी हड्डी को भी पीस देती! उसके ख़ून की धार बहने लगी, पूरी फैक्ट्ररी में निराशा छा गयी। चूँकि उसका ई.एस.आई. कार्ड नहीं बना था। इसलिए मालिक ने एक प्राइवेट अस्पताल में उसे चार-पाँच दिन के लिए भर्ती कराया और कोई भी पुलिस कार्रवाई नहीं हुई। कोई हाल-चाल पूछने जाये तो किसी को कुछ भी बताने से मना कर देता और कहता, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो!! शायद वह इसलिए नहीं बता रहा था कि कहीं मालिक को पता न लग जाये और वह जो कर रहा है, कहीं वह भी करना बन्द न कर दे।

टेक्सटाइल मजदूर प्रेमचन्द उर्फ पप्पू की मौत महज एक हादसा नहीं

न्यू शक्ति नगर के पावरलूम कारख़ानों के मजदूरों ने इस बात को समझ लिया है कि अगर अकेले-अकेले रहे तो मार खाते रहेंगे। मिलकर एकता बनाकर ही मालिकों, गुण्डों और पुलिस की गुण्डागर्दी का सामना कर सकते हैं। मजदूरों को अब अपना पक्ष चुनना ही होगा कि पप्पू की तरह ही किसी दिन किसी हादसे का शिकार होना है या अपनी और अपने बच्चों की बेहतर जिन्दगी और स्वाभिमान से जीने की एकजुट लड़ाई लड़नी है।

भोपाल हत्याकाण्ड : कटघरे में है पूरी पूँजीवादी व्यवस्था

भोपाल की घटना बार-बार यह याद दिलाती है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की अन्धी हवस में पागल पूँजीपतियों के लिए इंसान की जिन्दगी का कोई मोल नहीं होता। पूँजीवाद युद्ध के दिनों में हिरोशिमा और नागासाकी को जन्म देता है और शान्ति के दिनों में भोपाल जैसी त्रासदियों को। यह पर्यावरण को तबाह करके पूरी पृथ्वी को विनाश की ओर धकेल रहा है। इस नरभक्षी व्यवस्था का एक-एक दिन मनुष्यता पर भारी है। इसे जल्द से जल्द मिट्टी में मिलाकर ही धरती और इंसानियत को बचाया जा सकता है। और यह जिम्मेदारी इतिहास ने मजदूर वर्ग के कन्‍धों पर सौंपी है।

इस ठण्डी हत्या का जिम्मेदार कौन?

एक मालिक को अमीर बनाने में दिन-रात काम करने वाले मेहनती मजदूर पप्पू के परिवार को 20 हजार देकर उसकी जिन्दगी की कीमत अदा कर मालिक एक ठण्डी हत्या से बरी हो गया। चूँकि पप्पू पक्का वर्कर नहीं था, इसलिए मालिक कह सकता था कि उसके पास तो यह व्यक्ति काम ही नहीं करता था। अदालतों में अकसर ही इंसाफ की आस लगाये हजारों लोग रोजाना चक्कर मारते हैं, इसलिए कानून से भी परिवार को कोई उम्मीद नहीं। इस तरह रोजाना कितने ही पप्पू मर जाते हैं। ऐसे करोड़ों पप्पुओं की लाशों पर अमीरों के महल आखिर कब तक खड़े होते रहेंगे?

शान्ति काल में पूँजी के हाथों हुए सबसे बड़े हत्याकाण्ड का नाम है भोपाल

मुनाफे की हवस में भागती पूँजी की रक्तपिपासु राक्षसी की प्यास इंसानी ज़िन्दगियों को हड़पे बिना शान्त नहीं होती। पूँजीवाद का पूरा इतिहास बर्बर हत्याकाण्डों और नृशंस जनसंहारों से भरा हुआ है। मुनाफे के बँटवारे के लिए लड़े जाने वाले युद्धों के दौरान वह हिरोशिमा और नागासाकी जैसे हत्याकाण्ड रचता है और शान्ति के दिनों में भोपाल जैसे जनसंहारों को अंजाम देता है। कम से कम बीस हज़ार लोगों को मौत के घाट उतारने और करीब छह लाख लोगों को अन्धेपन से लेकर दमा जैसी बीमारियों का शिकार बनाने वाली इस घटना को दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना कहा जाता है, लेकिन वास्तव में यह दुर्घटना नहीं थी। इस हादसे ने एक बार फिर बस यही साबित किया कि पूँजीपतियों के लिए इंसानों की ज़िन्दगी मुनाफे से बढ़कर नहीं होती। एक ओर मुनाफे के लिए बेहद ज़हरीली गैसें तैयार की जाती हैं और दूसरी ओर पैसे बचाने के लिए सुरक्षा के सारे इंतज़ाम ताक पर धर दिये जाते हैं।

लुधियाना के कारख़ाना मालिकों का खूँखार चेहरा फिर उजागर

असल में लुधियाना के कारख़ानों में मालिकों का जंगलराज खुलेआम चल रहा है। कारख़ाना मालिकों द्वारा श्रम कानूनों की खुलकर धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। लुधियाना के लगभग सभी कारख़ानों के मज़दूरों के हक-अधिकारों पर कारख़ाना मालिकों द्वारा डाका डाला जा रहा है। न कहीं आठ घण्टे की दिहाड़ी का कानून लागू होता है, न न्यूनतम वेतन दिया जाता है, ज़बरदस्ती ओवरटाइम लगवाया जाता है। कारख़ानों में वहाँ काम कर रहे अधिकतर मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। कारख़ाने में काम करते हुए अगर किसी मज़दूर के साथ कोई हादसा हो जाये या उसकी जान ही चली जाये तो वह या उसका परिवार कोई मुआवज़ा माँगने के कानूनी तौर पर हकदार नहीं रह जाते।

मालिकों के मुनाफे की हवस का शिकार – एक और मजदूर

घटना वाले दिन रंजीत तथा तीन अन्य मज़दूरों को सुपरवाइज़र ने ज़बरदस्ती तार के बण्डलों के लोडिंग-अनलोडिंग के काम पर लगा दिया। उन चारों ने क्रेन की हालत देखकर सुपरवाइज़र को पहले ही चेताया था कि क्रेन की हुक व जंज़ीर बुरी तरह घिस चुके हैं जिससे कभी भी कोई अनहोनी घटना घट सकती है इसके बावजूद उन्हें काम करने के लिए मजबूर किया गया। ऐसे में वही हुआ जिसकी आशंका थी। चार टन का तारों का बण्डल रंजीत पर आ गिरा जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गयी। रंजीत की मौत कोई हादसा नहीं एक ठण्डी हत्या है।

कोरबा के मजदूरों की मौत हादसा नहीं, हत्या है!!

कोरबा की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है। मजदूर जिन अमानवीय नारकीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर होते हैं, उनमें आये दिन ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। साथ ही, मजदूरों को कई स्वास्थ्य सम्बन्धी बीमारियों का भी शिकार होना पड़ता है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में हर साल काम के दौरान होने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं में लगभग 24 लाख मजदूर मर जाते हैं। अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है दिल्ली मेट्रो रेल के जमरूदपुर स्थित निर्माण स्थल की घटना को जिसमें एक पिलर के गिर जाने से 6 मजदूरों को अपनी जान गँवानी पड़ी। राजधानी के बादली औद्योगिक क्षेत्र की फैक्ट्रियाँ तो मजदूरों के लिए मौत के कारख़ाने ही बन चुकी हैं। पिछले चन्द महीनों में इस क्षेत्र में दुर्घटना में हुई मौतों की संख्या ही 6 के आसपास है। क्या इन सभी दुर्घटनाओं को हादसा कहना सही होगा? क्या ये महज लापरवाही के कारण होने वाली मौतें हैं? नहीं! ये हादसे नहीं हत्याएँ हैं! यह सोचने वाली बात है कि हमेशा मजदूर जहाँ रहते और काम करते हैं, वहीं सब हादसे होते हैं! बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिकों और ठेकेदारों के आलीशान बंगले और एयर-कण्डीशण्ड चैम्बर तो कभी नहीं गिरते, कभी किसी हादसे का शिकार नहीं होते!

दिल्ली के समयपुर व बादली औद्योगिक क्षेत्र की ख़ूनी फ़ैक्ट्रियों के ख़िलाफ़ बिगुल मज़दूर दस्ता की मुहिम

बादली औद्योगिक क्षेत्र की फ़ैक्ट्रियाँ मज़दूरों के लिए मौत के कारख़ाने बन चुकी हैं! इन फ़ैक्ट्रियों को मज़दूरों के ख़ून का स्वाद लग चुका है। यही ख़ून मुनाफ़े में बदल कर मालिकों की तिजोरी में चला जाता है और इस ख़ून का निश्चित हिस्सा थाने-पुलिस- नेता-अफ़सरों तक भी नियमित रूप से पहुँचता रहता है। इसी वजह से लगातार हो रही मज़दूरों की मौतों पर कोई कार्रवाई नहीं होती है! ख़ूनी कारख़ाना चलता रहता है, हत्यारे मालिक का मुनाफ़ा पैदा होता रहता है, पूँजी की देवी के खप्पर में मज़दूरों की बलि चढ़ती रहती है!

कारख़ाना मालिकों की मुनाफ़े की हवस ने किया एक और शिकार

यह मसला एक नीलू की मौत का नहीं है। मसला है मालिकों द्वारा श्रम क़ानूनों और सुरक्षा मानदण्डों की धज्जियाँ उड़ाने का। मालिकों और श्रम विभाग के अधिकारियों के नापाक गठबन्धन के कारण मज़दूर आज पिस रहे हैं। लेकिन यह सोचना होगा कि कब तक मज़दूर नीलू की तरह मालिकों के मुनाफ़े की हवस की भेंट चढ़ते रहेंगे, कब तक अपनी हडि्डयाँ उनके महलों में ईंटों की जगह चिनते रहेंगे, कब तक खुद के घर के दिये बुझाकर उनके महलों को रोशन करते रहेंगे?