Table of Contents
अक्टूबर क्रान्ति के शताब्दी वर्ष की शुरुआत के अवसर पर ‘लेनिन कथा’ से कुछ अंश
चिनगारी, जो ज्वाला बनेगी!
साइबेरिया की खानों में
मान औ’ धैर्य की ज़रूरत अपार,
व्यर्थ न जायेंगे दुखद संघर्ष
और आपके उदात्त विचार।
ये पंक्तियाँ कवि पुश्किन ने नेरचिन्स्क, साइबेरिया, में निर्वासित और खदानों में काम करने को मजबूर दिसम्बरवादी क्रान्तिकारियों को लिखी थीं। इसके उत्तर में कवि-दिसम्बरवादी ओदोयेव्स्की ने उन्हें लिखा :
न होगा व्यर्थ हमारा संघर्ष अथक,
चिनगारी से भड़केंगी ज्वालाएँ!
व्लादीमिर इल्यीच ने अख़बार का नाम ‘ईस्क्रा’ (चिनगारी) ही रखने का फ़ैसला किया। शूशेन्स्कोये में रहते हुए ही उन्होंने उसकी पूरी योजना तैयार कर ली थी। अब उसे कार्यरूप देना था। साइबेरिया से लौटकर व्लादीमिर इल्यीच प्स्कोव में रहने लगे। अकेले ही। नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना (लेनिन की जीवनसाथी) की निर्वासन अवधि अभी ख़त्म नहीं हुई थी, इसलिए वह बाक़ी समय के लिए उफ़ा में ही रुक गयीं। व्लादीमिर इल्यीच को प्स्कोव में रहने की इजाज़त थी। वहाँ उन्होंने ‘ईस्क्रा’ निकालने के लिए तैयारियाँ शुरू कीं। वह विभिन्न शहरों की यात्रा करते। ‘ईस्क्रा’ में काम करने के लिए साथियों को ढूँढ़ते। अख़बार के लिए लेख लिखने वालों को ढूँढ़ना था। फिर ऐसे आदमियों की तलाश भी ज़रूरी थी, जो अख़बार का गुप्त रूप से वितरण करते। ‘ईस्क्रा’ को आम तरीक़े से दूकानों और स्टॉलों पर बेचा नहीं जा सकता था। और अगर कोई ऐसा करता, तो उसे तुरन्त जेल हो सकती थी। अख़बार निकालने के लिए पैसों की भी ज़रूरत थी।
ज़मीन-आसमान एक करके चार महीने में व्लादीमिर इल्यीच ने ‘ईस्क्रा’ की तैयारी पूरी कर ही ली। पर एक सवाल अभी बाक़ी था। अख़बार को छापा कहाँ जाये? रूस में रहते हुए भला कोई ज़ार के ख़िलाफ़, ज़मींदारों और उद्योगपतियों के ख़िलाफ़, पुलिस के अफ़सरों के ख़िलाफ़ अख़बार छापने के लिए तैयार होता? व्लादीमिर इल्यीच को इस बारे में भी काफ़ी सोचना पड़ा।
उन्होंने साथियों से परामर्श किया। अन्त में यह तय हुआ कि उसे विदेश में छापा जाये। बेशक वहाँ भी ऐसा अख़बार पूर्णतया गुप्त रूप से ही निकाला जा सकता था। पर वहाँ रूसी पुलिस के भेदिये इतने अधिक नहीं थे।
व्लादीमिर इल्यीच ने जैसे-तैसे डॉक्टरी सर्टीफ़िकेट का इन्तज़ाम किया और इलाज के बहाने विदेश रवाना हो गये। इससे पहले वह नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना से भी मिल आये, जिनका निर्वासन नौ महीने बाद ख़त्म होना था। अब वह वतन से दूर जा रहे थे। क्या बहुत अरसे के लिए? जैसे कि बाद में पता चला, बहुत अरसे के लिए।
…तंग सड़कों, नुकीली छतों वाले मकानों और प्रोटेस्टेण्ट गिरजों वाले जर्मन शहर लाइप्ज़िग में बहुत अधिक कल-कारख़ाने और उनसे भी अधिक छापेख़ाने और हर तरह की किताबों की दूकानें थीं। वहाँ कोई पैंतीस साल की उम्र का गेर्मन राऊ नाम का एक जर्मन रहता था। शहर के बाहर एक छोटे-से गाँव में उसका छापाख़ाना था। उसमें मशीन के नाम पर सिर्फ़ एक ही – हालाँकि काफ़ी बड़ी – छपाई मशीन थी और वह भी बहुत पुरानी। उस पर मज़दूरों का खेलकूद अख़बार, तरह-तरह के पोस्टर और पैम्फ़लेट छापे जाते थे।
गेर्मन राऊ सामाजिक-जनवादी था। एक दिन लाइप्ज़िग के सामाजिक- जनवादियों ने उसे बताया कि रूस से एक मार्क्सवादी आया है। रूसी मार्क्सवादी अपना क्रान्तिकारी अख़बार निकालना चाहते हैं और यह तय किया गया है कि उसका पहला अंक लाइप्ज़िग में छपे।
”रूसी साथियों की मदद करनी चाहिए,” लाइप्ज़िग के सामाजिक-जनवादियों ने गेर्मन राऊ से कहा।
लाइप्ज़िग आने वाला रूसी मार्क्सवादी और कोई नहीं, व्लादीमिर इल्यीच ही थे। उन्होंने शहर के छोर पर एक कमरा किराये पर लिया। वह हमेशा मुँह अँधेरे ही उठ जाते थे, जब हर कहीं निस्स्तब्धता होती थी। यहाँ तक कि फ़ैक्टरियों के भोंपू भी नहीं बजते होते थे। कमरा बहुत ठण्डा था। दिसम्बर का महीना चल रहा था।
व्लादीमिर इल्यीच ने स्पिरिट के चूल्हे पर पानी उबाला, टिन के मग में चाय बनाकर गरम-गरम पी और हमेशा की तरह घर से निकल पड़े। जाना दूर था, गेर्मन राऊ के छापेख़ाने तक। यही कोई पाँच-छः किलोमीटर का रास्ता होगा। घोड़ाट्राम वहाँ नहीं जाती थी, इसलिए पैदल ही जाना होता था। रास्ते में पैदल या साइकिलों पर सवार मज़दूर और बाज़ार जाने वाले किसानों के ठेले मिलते थे। शहर की सीमा आ गयी। आगे बर्फ़ से ढँके खेत थे। दूर, क्षितिज के पास जंगल का काला साया दिखायी दे रहा था। शहर के छोर पर बसी बस्तियों की बत्तियाँ जल रही थीं। गेर्मन राऊ के छापेख़ाने की खिड़की से लालटेन का उजाला दिखायी दे रहा था।
सारा छापाख़ाना एक बड़े-से कमरे में समाया हुआ था, जिसके आधे हिस्से में पुरानी छपाई मशीन खड़ी थी। कमरे में दो कम्पोज़िग बॉक्स भी थे। लोहे की अँगीठी में लकड़ियाँ जलते हुए चटक रही थीं। लपटें कँपकँपाती थीं, तो उनके साथ ही दीवारों पर पड़ने वाले साये भी काँप जाते थे।
”आज महत्त्वपूर्ण दिन है,” गेर्मन राऊ ने जर्मन में व्लादीमिर इल्यीच से कहा।
व्लादीमिर इल्यीच ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की। सचमुच आज महत्त्वपूर्ण दिन था। अब तक तो तैयारियाँ ही होती रही थीं, पर आज…
कम्पोज़िटर ने भारी ब्लॉक उठाकर मशीन पर चढ़ाया। गेर्मन राऊ ने हत्था घुमाया। मशीन घड़घड़ायी। सिलेण्डर घूमने लगा और अख़बार के पन्ने मशीन से बाहर निकलने लगे। इस तरह ‘ईस्क्रा’ का पहला अंक छपकर तैयार हुआ।
व्लादीमिर इल्यीच ने एक अंक उठाया। इस घड़ी का वह कब से और कितनी उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रहे थे!
”अब हमारे पास अपना, मज़दूरों का क्रान्तिकारी अख़बार है! उड़ चलो, हमारे अख़बार, वतन की तरफ़! करो पैदा जागृति और उभारो लोगों को क्रान्ति के लिए!”
व्लादीमिर इल्यीच ने सबको सुनाते हुए अख़बार का नाम पढ़ा :
”ईस्क्रा”।
दायीं तरफ़ ऊपर कोने में छपा था :
”चिनगारी से भड़केंगी ज्वालाएँ!”
लेनिन
मुसाफ़िर गाड़ी केनिग्सबर्ग जा रही थी। तीसरे दर्जे के डिब्बे में एक कोने में खिड़की के पास एक नौजवान बैठा था। वह म्यूनिख़ में सवार हुआ था और तब से सारे रास्तेभर ऊँघता रहा था। उसके पैरों के पास एक काफ़ी बड़ा सूटकेस रखा था।
गाड़ी केनिग्सबर्ग पहुँच गयी। यह पत्थर के वि़फले, गिरजाघरों और लाल खपरैल की छतों वाला पुराना शहर था। बाल्टिक सागर के तट पर होने के कारण यहाँ बन्दरगाह भी था, जिसमें दसियों जहाज़ खड़े थे। उनमें से एक का नाम था ‘सेण्ट मार्गरीता’। म्यूनिख़ से आये जर्मन ने इधर-उधर ताका-झाँका और फिर बन्दरगाह की ओर न जाकर पास ही के एक बीयरख़ाने में घुस गया। बीयरख़ाने में भीड़ बहुत थी। चारों तरफ़ तम्बाकू का भूरा, कड़वा धुआँ छाया हुआ था। जर्मन एक ख़ाली जगह पर बैठ गया और सूटकेस को उसने मेज़ के नीचे खिसका दिया। फिर बैरे से सॉसेज मँगाकर बीयर के साथ धीरे-धीरे खाने लगा। इतने धीरे-धीरे कि मानो उसके पास फालतू वक़्त बहुत हो। या हो सकता है कि वह किसी का इन्तज़ार कर रहा था? हाँ, उसे सचमुच ‘सेण्ट मार्गरीता’ के जहाज़ी का इन्तज़ार था। उससे मिलने के लिए ही वह म्यूनिख़ से आया था, हालाँकि उसे पहले कभी नहीं देखा था। जब भी कोई नया आदमी बीयरख़ाने में आता, म्यूनिख़ से आया हुआ जर्मन दायें हाथ से बालों को दायें कान की तरफ़ सहलाते हुए टकटकी लगाकर उसे देखता। इस तरफ़ किसी का ध्यान भी नहीं जा सकता था, क्योंकि बालों को सहलाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी। मगर यह एक इशारा था।
आख़िरकार जहाज़ी आ ही गया। समुद्री हवा और धूप से उसका चेहरा ताँबई हो गया था। दरवाज़े पर खड़े-खड़े उसने सभी लोगों पर नज़र डाली और बालों को सहलाते हुए आदमी को देखकर सीधे उसकी तरफ़ बढ़ चला। मेज़ के पास बैठकर उसने पैर से सूटकेस को टटोला और बोला :
”उफ़्फ़, कितनी भयंकर हवा है!”
”अगर अपने रास्ते की तरफ़ है, तो कोई बात नहीं,” म्यूनिख़ से आये जर्मन ने जवाब दिया।
”ठीक ही पहचाना, भैया, अपने ही रास्ते की तरफ़ है।”
यह पहचान-वाक्य था। तुरन्त ही दोनों के बीच आत्मीयता पैदा हो गयी। दोनों का एक ही ध्येय था, जिसकी ख़ातिर वे यहाँ बीयरख़ाने में इकट्ठा हुए थे।
बातचीत जल्दी ही ख़त्म हो गयी और दोनों बीयरख़ाने से बाहर निकल आये। अब सूटकेस जर्मन के हाथ में नहीं, बल्कि जहाज़ी के हाथ में था। किसी ने इस बदलाव पर ध्यान नहीं दिया। आख़िर किसी को इससे मतलब भी क्या था? दो साथी जा रहे हैं, बातें कर रहे हैं। चौराहे पर दोनों अलग हो गये। म्यूनिख़ से आया जर्मन स्टेशन की ओर चल पड़ा और सूटकेस ‘सेण्ट मार्गरीता’ पर बाल्टिक सागर से होते हुए स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम की ओर।
रात में हवा बहुत तेज़ हो गयी। लहरें आसमान छूने लगीं। तूफ़ान ‘सेण्ट मार्गरीता’ को कभी इधर तो कभी उधर फेंकने लगा। अँधेरा ऐसा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था।
जहाज़ छः घण्टे देर से स्टाकहोम पहुँचा। फ़िनिश जहाज़ ‘सुओमी’ शायद कभी का हेल्सिंगफ़ोर्स के लिए रवाना हो चुका होगा।
”समय पर नहीं पहुँच पाया,” जहाज़ी को अफ़सोस हो रहा था।
अचानक उसे ‘सुओमी’ दिखायी दिया। वह स्टाकहोम के बन्दरगाह में खड़ा भाप छोड़ रहा था। शायद तूफ़ान की वजह से उसे भी रुक जाना पड़ा था और अब लंगर उठाने की तैयारियाँ कर रहा था।
”आहिस्ता से आगे!” कप्तान ने आदेश दिया।
चक्कों के नीचे पानी खौलने लगा। जहाज़ चल पड़ा।
”वाइस-कप्तान साहब!” भारी सूटकेस को खींचते हुए जहाज़ी चिल्लाया, ”केनिग्सबर्ग से आपकी चाची ने पार्सल भेजा है!”
दौड़ने की वजह से जहाज़ी हाँफ रहा था। सूटकेस बहुत भारी था। उसे लगा कि उसकी सारी कोशिश बेकार हो गयी है, क्योंकि ‘सुओमी’ तट से हट चुका था।
लेकिन नहीं, कोशिश बेकार नहीं गयी। चमत्कार-सा हुआ। कप्तान ने उसका चिल्लाना सुन लिया और…
”आहिस्ता से पीछे!” ‘सुओमी’ पर आदेश सुनायी दिया। ”स्टॉप!”
”वाइस-कप्तान साहब!” जहाज़ी पूरे ज़ोर से चिल्लाया, ”आपकी चाची ने गरम स्वेटर भेजे हैं और नया सूट भी।”
घाट पर खड़े सभी लोग ठहाका लगाकर हँस पड़े। न जाने क्यों, सभी ख़ुश थे कि ‘सुओमी’ पार्सल लेने के लिए वापस लौट आया है। वाइस-कप्तान ने सूटकेस लिया, हाथ हिलाकर जहाज़ी को धन्यवाद दिया और ”पार्सल” को अपने केबिन में छिपा लिया
सूटकेस की यात्रा जारी रही।
जब जहाज़ हेल्सिंगफ़ोर्स पहुँचा, तो मूसलाधार बारिश हो रही थी। वाइस-कप्तान ने बरसाती पहनी और सूटकेस उठाकर तेज़ी से घोड़ाट्राम के स्टाप की ओर बढ़ चला। पानी इतना अधिक बरस रहा था कि जैसे बाढ़ ही आ गयी हो। ओह, कहीं बक्से में पानी न चला जाये! वाइस-कप्तान ने इधर-उधर झाँका, पर वह मज़दूर कहीं नहीं दिखायी दिया, जिससे उसे स्टाप पर मिलना था। जहाज़ कुछ घण्टे देर से पहुँचा था। ऊपर से यह मूसलाधार बारिश! सड़कें सुनसान थीं। कहीं वह पीटर्सबर्ग का मज़दूर इन्तज़ार करते-करते ऊब न गया हो! क्या किया जाये? तभी घोड़ाट्राम आती दिखायी दी…पर वह मज़दूर उसमें भी नहीं था। अचानक वाइस-कप्तान ने देखा कि सामने के घर के फाटक से एक आदमी बाहर निकल इधर-उधर देखते हुए उसकी ओर आ रहा है। यही वह मज़़दूर था, जिससे उसे मिलना था।
”कैसी बदकिस्मती है! खड़े-खड़े अकड़ गया हूँ,” मज़दूर बड़बड़ाया।
”तूफ़ान के कारण देर हो गयी। कब जायेंगे?”
”आज।”
”ठीक है। मैं अभी तार से सूचित कर दूँगा।”
मज़दूर ने सहमति में सिर हिलाया और सूटकेस उठाकर घोड़ाट्राम पर चढ़ गया।
कुछ घण्टे बाद सूटकेस रेलगाड़ी से पीटर्सबर्ग जा रहा था।
गाड़ी ख़ाली पड़े वसन्तकालीन खेतों, बारिश से भीगे गाँवों और निर्जन दाचों की बग़ल से गुज़र रही थी। पीटर्सबर्ग का मज़दूर इन जगहों को भली-भाँति जानता था, इसलिए चुपचाप बैठा अख़बार पढ़ रहा था और बेलोओस्त्रोव स्टेशन की प्रतीक्षा कर रहा था।
बेलोओस्त्रोव से रूस की सीमा शुरू होती थी। वहाँ हमेशा कस्टम चेकिंग होती थी।
कस्टम का आदमी कम्पार्टमेण्ट में आया।
”कृपया अपने सूटकेस दिखाइये।”
पीटर्सबर्ग के मज़दूर ने बिना कोई जल्दबाज़ी दिखाये अपना सूटकेस खोला।
एक जोड़ी कपड़े, पुराना चारख़ानेदार कम्बल और मिठाई का डिब्बा। बस। कस्टम वाले ने सूटकेस के किनारे ठकठकाये, पर सन्देहजनक कुछ भी न मिला।
उसी दिन मज़दूर पीटर्सबर्ग में था और वसील्येव्स्की द्वीप पर एक पत्थर के मकान की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। दूसरी मंज़िल पर दरवाज़े़ पर ताँबे की प्लेट लगी थी : ‘दाँतों का डॉक्टर’
आगन्तुक ने घण्टी बजायी। दो लम्बी और एक छोटी। इसका मतलब था कि डरने की कोई बात नहीं, अपना ही आदमी आया है।
दाँतों के डॉक्टर ने दरवाज़ा खोला।
”आइये, आपका ही इन्तज़ार था।”
क्रान्तिकारी गुप्त मुलाक़ातों के लिए यहीं एकत्र हुआ करते थे।
डॉक्टर के कमरे में एक लड़की मज़दूर का इन्तज़ार कर रही थी।
”लाइये,” उसने कहा और मज़दूर के हाथ से सूटकेस ले लिया। बेचारे ने रास्ते में क्या-क्या नहीं झेला था! तूफ़ान, बारिश, कस्टम चेकिंग…
लड़की ने सूटकेस से चारख़ानेदार कम्बल और दूसरी चीज़ें निकालीं। लेकिन यह क्या? आगन्तुक ने सफ़ाई से सूटकेस का तला दबाया और वह ढक्कन की तरह खुल गया। सूटकेस में दो तले थे। निचले तले में कसकर तह किये हुए अख़बार रखे हुए थे। लड़की ने एक अख़बार उठाया। ‘ईस्क्रा’!
अच्छा, तो यह है वह चीज़, जिसे केनिग्सबर्ग, स्टाकहोम, हेल्सिंगफ़ोर्स से होते हुए इतनी मेहनत और इतने गुप्त रूप से म्यूनिख़ से पीटर्सबर्ग पहुँचाया गया है!
लड़की सूटकेस से ‘ईस्क्रा’ निकालकर अपने टोप के डिब्बे में रखने लगी। जब सब अख़बार आ गये, तो उसने फ़ीते से डिब्बे को बाँध दिया और पीटर्सबर्ग के छोर पर सक्रिय मज़दूर मण्डलियों को बाँटने चल पड़ी।
वह ‘ईस्क्रा’ की एजेण्ट थी। ‘ईस्क्रा’ के गुप्त एजेण्ट रूस के सभी बड़े शहरों में थे।
‘ईस्क्रा’ को गुप्त रूप से जहाज़ों से, रेलगाड़ियों से लाया जाता, सीमा के इस पार पहुँचाया जाता।
‘ईस्क्रा’ मज़दूरों और किसानों की आँखें खोलता, उन्हें दिखाता कि उनका वास्तविक जीवन क्या है।
‘ईस्क्रा’ उन्हें सिखाता : ”ज़ारशाही के ख़िलाफ़ लड़ो! मालिकों के ख़िलाफ़ लड़ो!”
‘ईस्क्रा’ उन्हें पार्टी का निर्माण करने के लिए, क्रान्ति के लिए ललकारता।
शीघ्र ही रूस में ‘ईस्क्रा’ की प्रेरणा से एक शक्तिशाली मज़दूर आन्दोलन शुरू हो गया।
इस विराट आन्दोलन के नेता, मार्गदर्शक और ‘ईस्क्रा’ के मुख्य सम्पादक व्लादीमिर इल्यीच थे।
व्लादीमिर इल्यीच को रूस से मज़दूरों और ‘ईस्क्रा’ के एजेण्टों से बड़ी संख्या में पत्र, लेख, आदि मिलते थे और लगभग सब कूट भाषा में लिखे होते थे। वह उन्हें ‘ईस्क्रा’ में छापते, मज़दूरों के पत्रों के जवाब देते, ‘ईस्क्रा’ के लिए लेख तैयार करते और साथ ही राजनीति और क्रान्तिकारी संघर्ष के बारे में किताबें लिखते।
दिसम्बर, 1901 से व्लादीमिर इल्यीच अपने लेखों और किताबों को लेनिन नाम से छापने लगे।
यह महान नाम था, एक ऐसा नाम, जिससे शीघ्र ही सारी दुनिया परिचित होने वाली थी।
बोल्शेविक
पहाड़ों के देश स्विट्ज़रलैण्ड में नीली जेनेवा झील के तट पर एक ख़ूबसूरत शहर है – जेनेवा। उसके बाहर, झील से थोड़ी ही दूरी पर सेशेरोन नाम की मज़दूर बस्ती में एक छोटा-सा दोमंज़िला मकान था। और मकानों की तरह उसकी छत भी खपरैल की थी। खिड़कियाँ नीले रंग की थीं और मकान के साथ एक छोटा-सा हरा-भरा बग़ीचा भी था।
इस मकान में इल्यीच दम्पति, यानी व्लादीमिर इल्यीच और नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना रहते थे।
पहले वे म्यूनिख़ में रहते थे। मगर वहाँ की पुलिस को ‘ईस्क्रा’ की गन्ध लग जाने की वजह से उन्हें वह शहर छोड़ना पड़ा और वे इंग्लैण्ड की राजधानी लन्दन आ गये। सालभर तक ‘ईस्क्रा’ लन्दन से निकलता रहा। पर बाद में यहाँ रहना भी ख़तरनाक हो गया। ‘ईस्क्रा’ के लिए दूसरी जगह ढूँढ़ना ज़रूरी था। तब इल्यीच दम्पति जेनेवा की निकटवर्ती सेशेरोन बस्ती में पहुँचा।
”बहुत ख़ूब!” मिनटभर में सारे मकान का मुआयना करने के बाद व्लादीमिर इल्यीच ने कहा। ”बहुत ख़ूब। जगह शान्त है और यहाँ हम चैन से काम कर सकेंगे।”
मकान में नीचे काफ़ी बड़ी रसोई थी और ऊपर दो छोटे, मगर काफ़ी उजले कमरे थे।
व्लादीमिर इल्यीच के पास काम तो बहुत था, पर जिस शान्ति की उन्होंने कल्पना की थी, वह शीघ्र ही मिथ्या साबित हो गयी। बस्ती के निवासियों ने देखा कि रूसियों के यहाँ बहुत लोग आते हैं। जुलाई, 1903 में तो आने वालों का मानो ताँता ही लगा रहा। आगन्तुक कभी अकेले आते तो कभी दो या तीन के दल में। यह पहचानना मुश्किल नहीं था कि वे स्थानीय नहीं हैं – स्थानीय निवासियों से उनका पहनावा भी अलग था और भाषा-बोली भी। वे रूसी बोलते थे और रूसी जाति के थे। साफ़ लगता था कि वे जेनेवा पहली बार आये हैं और यहाँ की हर चीज़ उनके लिए नयी है। उन्हें यहाँ का धूपखिला आकाश, उजले रंग की खिड़कियाँ, और क्यारियों में खिले फूल, सब बेहद पसन्द थे।
हो सकता है कि सेशेरोन के निवासियों को 1903 की गर्मियों में जेनेवा में इतने अधिक रूसियों को देखकर आश्चर्य हुआ हो, मगर उनमें से कोई भी यह नहीं जानता था कि वे सब रूस के विभिन्न भागों से यहाँ पार्टी की दूसरी कांग्रेस में भाग लेने के लिए आये हैं।
कांग्रेस के लिए चुने गये लोग विभिन्न समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए लेनिन के पास आते, उनकी राय पूछते। वे जानते थे कि कांग्रेस की तैयारी में सबसे अधिक योग व्लादीमिर इल्यीच ने दिया है। कांग्रेस की तैयारी के तौर पर व्लादीमिर इल्यीच ने ‘ईस्क्रा’ में बहुत-से लेख लिखे थे, पार्टी का गठन किस तरह करना है, इसके बारे में ‘क्या करें?’ नामक एक शानदार किताब लिखी थी और पार्टी की नियमावली तथा जुझारू कार्यक्रम तैयार किया था। ”हम समाज का नया, बेहतर गठन चाहते हैं। इस नये, बेहतर समाज में न कोई अमीर होगा, न ग़रीब। सभी को समान रूप से काम करना होगा,” लेनिन ने साथियों को समझाया।
लेनिन ने इन सब बातों के बारे में बहुत सोचा था। वास्तव में पार्टी कार्यक्रम की रूपरेखा उन्होंने अपने निर्वासन काल में ही तैयार कर ली थी। अब वह चाहते थे कि कांग्रेस में सभी मिलकर तय कर लें कि नये समाज के लिए संघर्ष का सबसे सही और कारगर तरीक़ा क्या है।
जेनेवा से कांग्रेस में भाग लेने वाले ब्रसेल्स पहुँचे। वहाँ एक विशाल, अँधेरे और असुविधाजनक आटा-गोदाम में कांग्रेस का उद्घाटन हुआ। कांग्रेस के लिए गोदाम को साफ़ कर दिया गया था और खिड़कियाँ खोलकर ताज़ी हवा आने दी गयी थी। एक किनारे पर लकड़ियों के तख़्तों से मंच बनाया गया था। बड़ी खिड़की पर लाल कपड़ा टाँगा हुआ था। प्रतिनिधियों के बैठने के लिए बेंचें लगायी गयी थीं। प्रतिनिधि अपनी-अपनी जगह पर बैठ गये। प्लेख़ानोव मंच पर चढ़े। वह पहले रूसी मार्क्सवादी थे और बहुत बड़े विद्वान थे। लेनिन से पहले ही वह मार्क्स के क्रान्तिकारी विचारों के बारे में कई किताबें लिख चुके थे। समारोही वातावरण में प्लेख़ानोव ने कांग्रेस का उद्घाटन किया और अत्यन्त प्रभावशाली भाषण दिया।
सभी ने साँस रोककर उन्हें सुना। व्लादीमिर इल्यीच तो कितने भावाकुल हो उठे थे! उनकी आँखें उल्लास से चमक रही थीं। पार्टी की पुनर्स्थापना और पार्टी कांग्रेस का सपना वह कब से देखते आ रहे थे। आख़िरकार वह साकार हो ही गया।
कांग्रेस की कार्यवाही शुरू हुई, तो लगभग पहले ही दिन से संघर्ष भी छिड़ गया, क्योंकि कुछ प्रतिनिधि लेनिन द्वारा प्रस्तावित जुझारू कार्यक्रम से सहमत नहीं थे।
उन्हें वह बहुत नया और जोखिमपूर्ण लगता था। नवीनता उन्हें डराती थी। अतः वे लेनिन से बहस करने लगे। मगर लेनिन सही थे और अपने पक्ष में उन्होंने इतने जोश और उत्साह से तर्क दिये कि अधिकांश प्रतिनिधि उनकी तरफ़ हो गये। कांग्रेस में पार्टी के कार्यक्रम और नियमावली पर विचार किया गया, केन्द्रीय समिति और ‘ईस्क्रा’ का सम्पादकमण्डल चुना गया। संघर्ष लगभग सभी प्रश्नों पर छिड़ा। लेनिन ने कांग्रेस में एक रिपोर्ट पेश की, जो इतनी स्पष्ट और विश्वासोत्पादक थी कि सभी प्रतिनिधियों ने उसे असाधारण एकाग्रता के साथ सुना। कांग्रेस की सैंतीस बैठकें हुईं और लेनिन उनमें एक सौ बीस बार बोले। वह बोलते थे, तो जादू कर देते थे। अधिकांश प्रतिनिधि लेनिन के पीछे थे। इसलिए उन्हें बोल्शेविक (बहुमत वाले) कहा जाने लगा। जिन्होंने लेनिन का विरोध किया, वे मेन्शेविक (अल्पमत वाले) कहे गये। बोल्शेविकों के विपरीत, जो अधिकाधिक लेनिन के गिर्द एकजुट हुए, मेन्शेविक क्रान्तिकारी संघर्ष से दूर हटते गये।
कांग्रेस जारी थी, उसकी एक के बाद एक बैठक हो रही थी। मगर अब आटा-गोदाम के आसपास कुछ सन्देहजनक शक्लें भी प्रकट होने लग गयी थीं। वे ताक-झाँक करतीं, पता लगाना चाहतीं कि अन्दर क्या हो रहा है। असल में बेल्जियम पुलिस को सुराग़ लग गया था कि रूसी क्रान्तिकारियों की कांग्रेस हो रही है, इसलिए उसने उनके पीछे अपने भेदियों की पूरी पलटन लगा दी थी। ख़तरा पैदा हो रहा था। कांग्रेस को दूसरी जगह ले जाया गया। सभी लन्दन चले आये। यहाँ कांग्रेस की कार्यवाही जारी रही। जीत लेनिन की हुई। उनके निर्भीक और जोशीले साथी – बोल्शेविक – उनके साथ थे।
…लन्दन में प्रायः बारिश होती है। इस बार तो झिरझिरी इतनी देर तक जारी रही कि लन्दन की सड़कें मानो छतरियों का सागर ही बन गयीं। बीच-बीच में कभी इंग्लिश चैनल से आने वाली हवा घने बादलों को उड़ा ले जाती, थोड़ी देर के लिए नीला आकाश चमक उठता, धूप खिल जाती, मगर फिर वही बारिश।
ऐसे ही एक दिन कांग्रेस के बाद, जब सूरज थोड़ी-सी देर के लिए चमककर फिर बादलों के पीछे छिप गया था, लेनिन ने कहा :
”साथियो! बीस साल पहले यहाँ लन्दन में कार्ल मार्क्स का देहावसान हुआ था। आइये, हम भी महान मार्क्स की समाधि पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने चलें।”
और सब साथ-साथ क़़ब्रगाह की ओर चल पड़े। क़ब्रगाह लन्दन के उत्तरी भाग में एक ऊँचे टीले पर बने पार्क में स्थित थी। टीले से लन्दन का विहंगम दृश्य दिखायी देता था : कालिख से काली पड़ी इमारतें, काली छतें और धुआँ उगलती फ़ैक्टरियों की चिमनियाँ।
मार्क्स की क़ब्र सफ़ेद संगमरमर से बनी थी और चारों तरफ़ हरी-हरी घास उगी हुई थी।
क़ब्र के शीर्ष पर गुलाब के फूल रखे थे। फूलों की पँखुड़ियाँ झुकी हुई थीं, मानो अपना शोक व्यक्त कर रही हों। हलकी-हलकी बारिश हो रही थी। सड़कों पर काली छतरियाँ लिये लोग आहिस्ता-आहिस्ता आ-जा रहे थे।
”साथियो,” लेनिन ने सिर से टोपी उतारते हुए कहा, ”महान मार्क्स हमारे शिक्षक थे। उनकी क़ब्र के पास खड़े होकर हम शपथ खा लेते हैं कि उनके विचारों के प्रति सदा निष्ठावान रहेंगे और कभी संघर्ष से मुँह नहीं मोड़ेंगे। आगे बढ़ो, साथियो! सिर्फ़ आगे!”
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन