दमनचक्र – ‘लेनिन कथा’ से एक अंश
पीटर्सबर्ग में पुतीलोव कारख़ाने के मालिकों ने बेवजह तीन मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया। सिर्फ़ इसलिए कि फोरमैन उन्हें पसन्द नहीं करता था। इस पर कारख़ाने में असन्तोष की ज़बरदस्त लहर दौड़ गयी।
”हमें कोई अधिकार नहीं हैं। हमें अधिकार दो। हमारा ख़ून चूसने वाले फोरमैन मुर्दाबाद!” मज़दूरों ने माँग की।
कारख़ाने में हड़ताल हो गयी। सभी मज़दूरों ने काम करने से इन्कार कर दिया। कारख़ाना निष्क्रिय हो गया। दो और कारख़ाने भी ठप्प हो गये। अगले दिन और 360 कारख़ानों और फैक्टरियों के मज़दूर हड़ताल पर चले गये। मशीनें रुक गयीं। सारा पीटर्सबर्ग जड़ हो गया। सब इन्तज़ार कर रहे थे कि आगे क्या होगा।
रविवार, 9 जनवरी, 1905 को हज़ारों मज़दूर सड़कों पर निकल पड़े।
”चलो, ज़ार से न्याय माँगें,” मज़दूर कह रहे थे। ”ज़ार हमारे पिता की तरह है। वह हमें भूखा नहीं मरने देगा।”
बोल्शेविकों ने समझाया : वहाँ मत जाओ, ज़ार तुम्हारी नहीं सुनेगा।
मज़दूर बढ़ते रहे। यह सोचकर कि ज़ार नहीं जानता कि जनता की कैसी दुर्दशा है और ज्यों ही जान जायेगा, त्यों ही हमारा पक्ष लेने लगेगा, इन बदमाश मालिकों और फोरमैनों को सज़ा देगा। नहीं तो हमारा जीवन ही दूभर हो गया है।
मज़दूर ज़ार के पास दरख़्वास्त लेकर जा रहे थे। रविवार की सुबह को पीटर्सबर्ग के कोने-कोने से मज़दूरों के जुलूस शीत प्रासाद की ओर बढ़ने लगे। सड़कों और स्क्वायरों पर लोगों का ताँता लगा हुआ था। भीड़ हाथों में देवप्रतिमाएँ और गिरजाघरों के झण्डे लिये हुए थी, जिन पर सुनहरी कशीदाकारी चमक रही थी। जुलूसों में औरतें और बच्चे भी थे। सभी के मन में विश्वास था, आँखो में अनुरोध था।
लेकिन यह क्या? चौराहों पर बन्दूक़ें हाथ में लिये सिपाहियों की टुकड़ियाँ खड़ी थीं। उनके आगे सफे़द दस्ताने पहने अफ़सर खड़े थे।
यह वह समय था, जब सुदूर पूर्व में घमासान लड़ाई छिड़ी हुई थी। लगभग सालभर पहले जापान ने रूस पर आक्रमण किया था। रूसी जनरल इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। पफलतः रूसी सेना दिन-प्रतिदिन हारती जा रही थी। हज़ारों सिपाही दूर, कहीं दूर मारे जा रहे थे…
और यहाँ, पीटर्सबर्ग में, ज़ारशाही अधिकारियों ने अपने ही निहत्थे मज़दूरों के विरुद्ध सारी राजधानी में फौज खड़ी कर दी थी। क्यों? किसलिए?
”व्यवस्था बनाये रखने के लिए,” माता मरियम की प्रतिमा हाथ में लिये एक मज़दूर ने समझाया। ”शायद भीड़ से डर गये हैं।”
चौक के पार पत्थर का बना विशाल शीत प्रासाद खड़ा था। उसकी सैकड़ों खिड़कियाँ मूकवत देख रही थीं। प्रासाद के सामने मैदान में सफ़ेद, अनरौंदी बर्फ़ पड़ी थी। भयावह चेहरों वाले सिपाहियों की घनी पंक्ति प्रासाद की रक्षा कर रही थी। भीड़ को देखकर अफ़सर ने हाथ उठाया। सभी संगीनें तन गयीं।
”भाइयो, सिपाहियो, डराओ नहीं!” मज़दूर चिल्लाये। ”हम अपने ही हैं। ज़ार से सिर्फ़ दरख़्वास्त करने जा रहे हैं।”
”ठहरो! आगे बढ़ना मना है!” अफ़सर ने चिल्लाते हुए हुक्म दिया।
मज़दूर क्षणभर के लिए असमंजस में पड़ गये। मगर पीछे की कतारों ने, जिन्होंने सिपाहियों को नहीं देखा था, आगे को धक्का दिया।
”हे प्रभु, ज़ार चिरायु हो!” सारा स्क्वायर गूँज उठा।
आगे की कतारों के मज़दूर सफे़द रूमाल फहराने लगे।
”हम निहत्थे, शान्तिप्रिय हैं! हम ज़ार के सामने दरख़्वास्त पेश करना चाहते हैं!” मज़दूर चिल्लाये और धार्मिक झण्डे, देवप्रतिमाएँ और सफ़ेद रूमाल उठाये आगे बढ़ते रहे।
”फायर!” अफ़सर ने आदेश दिया।
गोलियाँ दनदनायीं। भीड़ में से कोई बीस मज़दूर धराशायी हो गये।
”फायर!” अफ़सर फिर चिल्लाया।
गोलियाँ फिर दनदाने लगीं।
”फायर! फायर! फायर!”
चौक में भगदड़ मच गयी। लोग घरों के दरवाज़ों में छिपने के लिए भागे अैर मुर्दा होकर गिर पड़े। शीत प्रसाद के सामने का मैदान लाशों से पट गया। तभी तलवारें भाँजते हुए घुड़सवार सैनिक भी आ गये।
”भाइयो! मारे गये!” भयाकुल भीड़ की चीख़-पुकार से स्क्वायर गूँज उठा।
”लानत है! लानत है!”
”देख लिया अपने ज़ार को?” गुस्से से एक युवा बोल्शेविक चिल्लाया। ”यह है तुम्हारा ज़ार, जिसमें तुम्हें इतना विश्वास था! किस निर्मम जानवर में तुमने विश्वास किया था!”
मज़दूर समझ गये। गोलियाँ ज़ार ने ही चलवायी थीं। ज़ार के ऊपर से जनता का विश्वास सदा-सदा के लिए उठ गया।
उस ख़ूनी रविवार को पीटर्सबर्ग में एक हज़ार से अधिक मज़दूर मारे गये और पाँच हज़ार घायल हुए।
शाम तक पीटर्सबर्ग की सड़कों पर लैम्पपोस्ट गिरा-गिराकर बैरिकेड खड़े हो गये। मज़दूरों ने ज़ारशाही के खि़लाफ़ जंग का ऐलान कर दिया।
….
जेनेवा के बाहरी छोर पर, आर्वा नदी के समीप कारूझ नाम की एक सड़क थी। रूसी प्रवासी उसे कारूझ्का सड़क कहते थे। इस इलाव़फे में अधिकांश आबादी उन्हीं की थी। यहाँ लेपेशीन्स्की दम्पति का एक भोजनालय था। दोनों पति-पत्नी साइबेरियाई निर्वासन के दौरान व्लादीमिर इल्यीच के साथी रह चुके थे। लेपेशीन्स्की भोजनालय को सभी रूसी प्रवासी जानते थे। पहली मंज़िल
पर बड़ा-सा कमरा और आम खिड़कियों की जगह पर दो प्रदर्शन-
खिड़कियाँ। तख़्तों की बनी लम्बी, साफ़-सुथरी मेजे़ं और एक कोने में पियानो। यह भोजनालय ही नहीं, एक तरह से बोल्शेविकों का क्लब भी था। यहाँ लोग व्याख्यान सुनते, शतरंज खेलते और राजनीतिक चर्चा करते…
पीटर्सबर्ग के ख़ूनी रविवार की ख़बर जेनेवा पहुँचते ही सभी प्रवासी बिना किसी के बुलाये स्वतः लेपेशीन्स्की भोजनालय में एकत्र हो गये। सब ख़ामोश थे, निस्स्तब्ध थे, गम्भीर थे। बोल्शेविक समझ गये कि रूस में व्यापक, अभूतपूर्व विद्रोह शुरू हो गया है।
”घर लौटना है, वतन लौटना है!” व्लादीमिर इल्यीच सोच रहे थे।
कोई शोकातुर स्वर में गाने लगा :
तुम चढ़े बलिवेदी पर संघर्ष की…
दूसरों ने खड़े होकर उसका साथ दिया :
निस्स्वार्थ प्रेम की, लोकस्नेह की।
तुमने किया सर्वस्व न्यौछावर
जनता के सुख, आज़ादी की ख़ातिर।
बहुतों की आँखों में आँसू थे।
”रूस में क्रान्ति हो रही है,” भावविह्नल स्वर में व्लादीमिर इल्यीच ने कहा।
क्रान्ति! कितना जोशीला, कितना प्रिय था यह शब्द! उसी शाम लेनिन ने ‘व्पेर्योद’ (आगे बढ़ो) अख़बार के लिए एक ललकार भरा लेख लिखा। यह बोल्शेविकों का नया अख़बार था। ‘ईस्क्रा’ पर मेन्शेविकों का कब्ज़ा हो गया था।
लेनिन ने लिखा : ”विद्रोह शुरू हो गया है। ताक़त का जवाब ताक़त देने लगी है। सड़कों पर लड़ाइयाँ हो रही हैं, बैरिकेड खड़े हो रहे हैं, गोलियाँ सनसना रही हैं, तोपें गड़गड़ा रही हैं। ख़ून की नदियाँ बह चली हैं, स्वाधीनता के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया है…
”क्रान्ति ज़िन्दाबाद!
”सर्वहारा विद्रोह ज़िन्दाबाद!”
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन