अक्टूबर क्रान्ति की विरासत और इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों की चुनौतियाँ
(पिछले अंक के सम्पादकीय लेख की समापन कड़ीे)
अक्टूबर क्रान्ति की महान विरासत के प्रति आज हमारा नज़रिया क्या होना चाहिए? क्या हम अक्टूबर क्रान्ति का आँख बन्द करके अनुसरण कर सकते हैं जिस तरह हमारे देश में कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आँखें मूँदकर चीनी क्रान्ति की नक़ल करने का प्रयास कर रहे हैं? नहीं! क्रान्तियों का दुहराव नहीं होता और न ही उनकी कार्बन कॉपी की जा सकती है। मज़दूर वर्ग की हर नयी पीढ़ी अपने पुरखों द्वारा किये गये प्रयोगों का नीर-छीर-विवेक करती है और उनसे एक आलोचनात्मक रिश्ता क़ायम करती है। वह उनसे सकारात्मक और नकारात्मक शिक्षा लेती है और नये दौर में बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार नयी क्रान्तियों की रणनीति और आम रणकौशल निर्मित करती हैं। तो फिर आज हम अक्टूबर क्रान्ति की विरासत से किस प्रकार सीख सकते हैं? इसके लिए हम संक्षेप में इस बात की चर्चा करेंगे कि लेनिन और स्तालिन ने अक्टूबर क्रान्ति की विशिष्टता के बारे में क्या कहा था।
लेनिन ने उन विशिष्ट राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों का ज़िक्र किया था जिसमें कि अक्टूबर 1917 में रूसी समाजवादी क्रान्ति हो सकी। लेनिन का कहना था कि विशेष तौर पर दो परिस्थितियाँ उस समय अक्टूबर क्रान्ति के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार थीं। पहली परिस्थिति थी – प्रथम विश्व युद्ध द्वारा रूस में पैदा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट। दूसरी परिस्थिति थी – देश में स्वतःस्फूर्त रूप से मज़दूर सोवियतों का जाग उठना और साथ ही भूमि कमेटियों द्वारा ज़मीनों पर क़ब्ज़े और कारख़ाना समितियों द्वारा कारख़ाना क़ब्ज़े की मुहिम का शुरू होना। इन परिस्थितियों में बोल्शेविक पार्टी को एक ऐसे देश में मज़दूर वर्ग की अगुवाई करते हुए सत्ता अपने हाथों में लेनी पड़ी जिसमें मज़दूरों की आबादी कुल आबादी का मात्र 10-11 प्रतिशत था जबकि किसान आबादी कुल आबादी का क़रीब 85 फ़ीसदी थी। अभी भूमि सुधार व अन्य जनवादी कार्य भी अध्ूरे थे। अगर बोल्शेविक पार्टी उस समय ऐसा न करती तो फिर जनवादी क्रान्ति की हत्या कर दी जाती और साथ ही समाजवादी क्रान्ति की सम्भावना भी लम्बे समय के लिए समाप्त हो जाती। समझा जा सकता है कि ये दोनों परिस्थितियाँ अक्टूबर क्रान्ति को विशिष्ट बनाती हैं। इस विशिष्टता को समझना बेहद ज़रूरी है।
स्तालिन ने 1924 में ‘अक्टूबर क्रान्ति और रूसी कम्युनिस्टों की कार्यनीति’ नामक अपने लेख में रूसी क्रान्ति की विशिष्ट परिस्थितियों की विस्तार से चर्चा की। आज मज़दूर क्रान्तिकारियों को उसे अवश्य समझना चाहिए ताकि हम रूसी क्रान्ति के अन्धानुकरण के आधार पर इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों की रणनीति व आम रणकौशल न तैयार करें। स्तालिन एक प्रकार से आने वाली पीढ़ी के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को ऐसे ख़तरे के प्रति अप्रत्यक्ष रूप से आगाह करते हुए नज़र आते हैं। स्तालिन लिखते हैं कि जिन तीन बाह्य परिस्थितियों ने रूसी क्रान्ति की मदद की वे इस प्रकार हैंः (1) साम्राज्यवादी युद्ध (प्रथम विश्व युद्ध) जिसने दो प्रमुख साम्राज्यवादी गुटों (ब्रिटेन-फ़्रांस व जर्मनी-ऑस्ट्रिया) को रूस में सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन पर ध्यान देने का मौक़ा ही नहीं दिया; (2) साम्राज्यवादी युद्ध ने रूस में मेहनतकश अवाम के धैर्य की आखि़री सीमा का इम्तेहान ले लिया था और लोग युद्ध से बुरी तरह से थक चुके थे और उनकी समझ में आने लगा था कि युद्ध से निजात पाने का एक ही रास्ता है – समाजवादी क्रान्ति; (3) यूरोप में एक मज़बूत मज़दूर वर्ग का आन्दोलन मौजूद था और जर्मनी समेत कई देशों में क्रान्तिकारी परिस्थिति निर्मित हो रही थी (जो रूस के अतिरिक्त नेतृत्वकारी पार्टियों की ग़लतियों के कारण क्रान्ति में तब्दील नहीं हो सकीं) जिनके कारण रूसी क्रान्ति को कई देशों में अपने शक्तिशाली मित्र मिल गये थे।
इन तीन बाह्य परिस्थितियों के अतिरिक्त छह आन्तरिक कारक थे जिन्होंने बोल्शेविक क्रान्ति को सम्भव बनाया जो इस प्रकार थेः (1) बोल्शेविकों को मज़दूर वर्ग का भारी समर्थन प्राप्त था; (2) भूमि और शान्ति के प्रश्न पर क्रान्तिकारी अवस्थिति के कारण पार्टी को किसानों और सैनिकों का समर्थन हासिल था; (3) अक्टूबर क्रान्ति में मज़दूर वर्ग को नेतृत्व देने के लिए एक तपी-तपायी, अनुभवी, अनुशासित और मँझी हुई कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद थी; (4) अक्टूबर क्रान्ति का सामना एक कमज़ोर पड़ चुके शत्रु से था – रूस का पूँजीपति वर्ग अभी नया-नया सत्ता में आया था और अभी पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने आपको सुदृढ़ नहीं कर पायी थी; वह कुछ शहरों और औद्योगिक केन्द्रों में ही प्रभावशाली थी; किसान बग़ावतों के कारण पूँजीवादी भूस्वामियों की सत्ता में भी दरारें पड़ चुकी थीं और जो बुर्जुआ व निम्न-बुर्जुआ पार्टियाँ आरज़ी सरकार में थीं, वे भूमि और शान्ति के प्रश्न पर समझौतापरस्ती और ग़द्दारी कर रही थीं; (5) रूसी साम्राज्य विशालकाय था और उसके कोनों-अन्तरों तक एक युवा बुर्जुआ राज्यसत्ता की पहुँच नहीं थी जिसके कारण क्रान्तिकारियों को मुक्त रूप दाँव-पेच करने, ज़रूरत पड़ने पर पीछे हटने और सुस्ताने और फिर नये आक्रमण की तैयारी का ज़्यादा मौक़ा मिला; (6) प्रतिक्रान्तिकारियों के ख़िलाफ़ और साम्राज्यवादियों द्वारा घेरेबन्दी के ख़िलाफ़ टिक पाने के लिए बुरे हालात होते हुए भी सोवियत रूस के पास काम चलाने योग्य खाद्यान्न आपूर्ति व अन्य संसाधन मौजूद थे।
आगे स्तालिन दो प्रतिकूल परिस्थितियों का ज़िक्र करते हैं जो इस प्रकार थींः (1) अक्टूबर क्रान्ति ने सोवियत रूस के रूप में दुनिया की पहली समाजवादी सत्ता की स्थापना की और उस समय दुनिया में कोई अन्य समाजवादी राज्य मौजूद नहीं था जिस पर बोल्शेविक समाजवादी निर्माण के लिए निर्भर रह सकते थे। इसने सोवियत सत्ता को सापेक्षिक अलगाव में डाल रखा था; (2) रूसी जनता में सर्वहारा वर्ग एक छोटी-सी अल्पसंख्या था और विशिष्ट परिस्थितियों में रूस में समाजवादी क्रान्ति की स्थितियाँ निर्मित हो गयी थीं जिसके कारण उसे रैडिकल बुर्जुआ भूमि सुधार करने पड़े और खेती में समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना के लिए लम्बा इन्तज़ार करना पड़ा। उसके बाद भी बेहद कठिनाइयों और जटिलताओं का सामना करते हुए खेती में समाजवादी सम्बन्धों की स्थापना हो सकी; साथ ही, बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कई छूटे कार्यभारों को पूरा करने के कारण भी समाजवादी क्रान्ति और निर्माण को आगे बढ़ने में कई बाधओं का सामना करना पड़ा। इन्हीं विशिष्टताओं के कारण रूसी क्रान्ति की स्तालिन के अनुसार दो चारित्रिक आभिलाक्षणिकताएँ थींः पहली, यह कि यह क्रान्ति मज़बूत मज़दूर-किसान संश्रय के आधार पर ही सम्पन्न हो सकती थी जिसमें कि व्यापक किसान जनसमुदायों का नेतृत्व एक अल्पसंख्यक सर्वहारा वर्ग को करना था और दूसरी यह कि यह एक देश में समाजवाद के निर्माण और सर्वहारा अधिनायकत्व पर आधारित थी, जो कि किसान बहुसंख्या वाला एक पिछड़ा देश था जिसमें बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के भी कई कार्यभार अध्ूरे पड़े थे। यूरोप के अन्य देशों, विशेषकर जर्मनी में, क्रान्तियों के असफल हो जाने के कारण रूसी क्रान्ति और समाजवादी निर्माण का रास्ता बेहद जटिल और मुश्किल हो गया था।
स्तालिन द्वारा बतायी गयी इन विशिष्टताओं और आभिलाक्षणिकताओं के कारण ही लेनिन ने कहा था कि रूस में समाजवादी क्रान्ति को सम्पन्न करना तो आसान है, लेकिन उसे टिका पाना ज़्यादा मुश्किल और जटिल है। जबकि अपेक्षाकृत उन्नत और औद्योगीकृत देश जहाँ सर्वहारा वर्ग विशाल है, जैसे कि जर्मनी या फ़्रांस, वहाँ क्रान्तियों को अंजाम देना ज़्यादा मुश्किल होगा लेकिन एक बार यदि समाजवादी क्रान्ति हो गयी तो इन देशों समाजवादी निर्माण का रास्ता अपेक्षाकृत सुगम होगा। इसका कारण यह है कि इन देशों में सर्वहारा वर्ग आबादी में एक प्रमुख हिस्सा बन चुका था, खेती का पूँजीवादी रूपान्तरण मुख्यतः और मूलतः क्रान्तिकारी या ग़ैर-क्रान्तिकारी रूप से पूरा हो चुका था, देश में उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर ऊपर पहुँच चुका था और अन्य जनवादी कार्यभार भी मुख्यतः और मूलतः पूरे हो चुके थे; देश के सर्वहारा वर्ग के पास संगठन और संघर्ष का अपेक्षाकृत लम्बा अनुभव था और उसकी राजनीतिक चेतना का स्तर अपेक्षाकृत रूप से ऊपर था। इन उन्नत पूँजीवादी देशों में बुर्जुआ राज्यसत्ता के सामाजिक आधार अपेक्षाकृत ज़्यादा व्यापक थे, बुर्जुआ वर्ग के पास शासन चलाने का लम्बा अनुभव था और उसकी राज्यसत्ता की पहुँच समाज के भीतर ज़्यादा गहराई तक थी। यही कारण था कि इस ज़्यादा कुशल, ज़्यादा अनुभवी और ज़्यादा संगठित बुर्जुआ वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के विरुद्ध क्रान्ति को अंजाम देना रूस जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश के मुकाबले ज़्यादा मुश्किल था। लेकिन एक बार क्रान्ति को अंजाम देने पर ऊपर बताये कारणों के चलते उसे टिका पाना और समाजवादी निर्माण अपेक्षाकृत ज़्यादा सुगम होता। रूसी क्रान्ति के साथ एक त्रासदी यह घटित हुई कि यूरोप के अपेक्षाकृत उन्नत पूँजीवादी देशों में कई जगहों पर क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ निर्मित होने के बावजूद सर्वहारा वर्ग क्रान्ति संगठित नहीं कर सका। इसके कारण, रूस में मज़दूर सत्ता और समाजवाद को कोई मज़बूत मित्र नहीं मिल सका। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में एक देश में समाजवाद का निर्माण करना ही एक स्तालिन के नेतृत्व में एक चमत्कारिक सफलता के समान था। लेकिन रूसी क्रान्ति की इन विशिष्ट प्रतिकूल व अनुकूल दोनों ही प्रकार की ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण उसका इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है और इसी कारण से उसका अनुकरण करना सम्भव ही नहीं है।
लेनिन ने कहा था कि साम्राज्यवाद और इजारेदार पूँजीवाद के दौर में सर्वहारा क्रान्तियों का तूफ़ान केन्द्र यूरोप के उन्नत पूँजीवादी देशों से खिसककर एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिकी देशों की ओर आ रहा है। जब यह हो रहा था तो पूर्व और पश्चिम के सेतु पर, यानी रूस (जिसे कि यूरेशिया भी कहा जाता है) में, सर्वहारा वर्ग ने अन्तरविरोधों की एक गाँठ बनने की विशिष्ट स्थिति सर्वहारा क्रान्ति कर डाली और पहली समाजवादी सत्ता की स्थापना की। इस प्रयोग की ऐतिहासिक महत्ता, उसकी विशिष्टता और साथ ही उसकी ऐतिहासिक सीमाओं के विषय में हम बात कर चुके हैं। आज के दौर में क्रान्तियों का तूफ़ान केन्द्र पूरी तरह से उन देशों में आ चुका है जिन देशों का ग़ुलामी का इतिहास है। लेनिन ने बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कहा था कि इन देशों में (जो कि उस समय गुलाम या आधे गुलाम थे) दो चरणों में क्रान्ति सम्पन्न होगीः पहले सर्वहारा वर्ग समूचे किसान वर्ग को साथ लेकर साम्राज्यवाद और सामन्तवाद-विरोधी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति करेगा और फिर ग़रीब किसान आबादी को साथ लेकर पूँजीवाद-विरोधी समाजवादी क्रान्ति करेगा। 1970 के दशक के अन्त तक एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के अधिकांश देश राजनीतिक तौर पर स्वतन्त्र हो चुके थे हालाँकि आर्थिक तौर पर उनकी साम्राज्यवाद पर निर्भरता बनी हुई थी। आज के भूमण्डलीकरण के दौर में यह आर्थिक निर्भरता एक नये रूप में सामने है, लेकिन राजनीतिक तौर पर भारत, मिस्र, टर्की, इण्डोनेशिया, ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, आदि जैसे देशों में पूँजीपति शासक वर्ग ने अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को कायम रखा है। किन्हीं विशिष्ट दौरों में इसकी साम्राज्यवाद पर आर्थिक निर्भरता इसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता पर हावी होते हुए दिखती है, लेकिन मूलतः और मुख्यतः वह राजनीतिक तौर पर स्वतन्त्र ही है। इन देशों का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का (किसी एक साम्राज्यवादी देश का नहीं, बल्कि अलग-अलग साम्राज्यवादी गुटों से मोलभाव करते हुए समूचे साम्राज्यवाद का) ‘जूनियर पार्टनर’ है। यह साम्राज्यवादी देशों पर तकनोलॉजी और पूँजी के लिए निर्भर है ताकि अपने देश के मज़दूर वर्ग का ज़्यादा कुशलता से शोषण कर सके और बदले में वह साम्राज्यवादी देशों के लिए अपने बाज़ारों के दरवाज़े खोलता है। साम्राज्यवादी देश भी बाज़ारों और प्रत्यक्ष निवेश के अवसरों के लिए इन देशों पर निर्भर हैं क्योंकि इनके पास एक विशाल उपभोक्ता मध्यवर्ग है।
इन तमाम अपेक्षाकृत रूप से पिछड़े हुए पूँजीवादी देशों में सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध के ज़्यादा से ज़्यादा कुछ अवशेष बचे हैं। क्रान्तिकारी तरीक़े से (राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति व रैडिकल भूमि सुधार) या फिर ग़ैर-क्रान्तिकारी तरीक़े से (सामन्ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी कुलक व फ़ार्मर बनने का मौक़ा देने वाला प्रशियाई पथ वाला भूमि सुधार) इन देशों में सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध मुख्यतः और मूलतः समाप्त हो चुके हैं। जिन देशों में यह प्रक्रिया ग़ैर-क्रान्तिकारी ढंग से हुई है उनमें सामन्ती अवशेष देर तक मौजूद रहे और जब वे ख़त्म भी हो गये तो खेती में पिछड़ापन बना रहा, जो कि कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों में सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध की मौजूदगी का भ्रम पैदा करता रहा। मगर आज तो कोई अन्धा और पैर को जूते के नाप से काटने पर आमादा कठमुल्लावादी कम्युनिस्ट ही कह सकता है कि भारत में खेती में सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध हैं। स्पष्ट है कि इन सभी भूतपूर्व ग़ुलाम देशों में एक विशिष्ट प्रकार का अपेक्षाकृत रूप से पिछड़ा हुआ पूँजीवाद विकसित हुआ है। इन देशों में उद्योगों का अच्छा-ख़ासा विकास हुआ है, अवसंरचनागत ढाँचा भी ठीक-ठाक विकसित हुआ है, मज़दूर आबादी कुल आबादी के क़रीब 40 से 50 प्रतिशत तक पहुँच रही है, शहरीकरण की रफ़्तार तेज़ है और 2020 तक इनमें से अधिकांश देशों में आबादी का बहुलांश शहरी हो जायेगा। ऐसे में, स्पष्ट है कि इन देशों में अब मुख्य अन्तरविरोध खेती से लेकर उद्योग तक में श्रम और पूँजी के बीच है। ऐसे में, इन देशों में पूँजीवाद-विरोधी समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल आ चुकी है।
लेकिन साथ ही यह भी सच है कि इन देशों की स्थिति रूस से काफ़ी भिन्न है। रूस की स्थिति स्वयं एक दूसरी क़तार के साम्राज्यवादी देश की थी। वह ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी और अमेरिका से पीछे होते हुए भी पूर्वी यूरोप व बाल्कन देशों के लिए एक साम्राज्यवादी देश ही था। लेकिन भारत, मिस्र, इण्डोनेशिया, टर्की, ब्राज़ील जैसे देश अभी साम्राज्यवादी नहीं कहे जा सकते हैं। निश्चित तौर पर, इन उभरती अर्थव्यवस्थाओं की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ हैं और अपने कुछ पड़ोसियों के बीच इनकी स्थिति एक उभरती साम्राज्यवादी शक्ति जैसी बनती है। लेकिन फिर भी विश्व पैमाने पर इन्हें अभी साम्राज्यवादी नहीं कहा जा सकता है। दूसरी बात यह है कि इन देशों पर अभी स्वयं अमेरिकी, जापानी और यूरोपीय संघ के साम्राज्यवाद की लूट का दबाव है। ऐसे में, इन देशों की एक जटिल स्थिति बनती है। मुख्य तौर पर, इन देशों की जनता अभी भी यानी कि आज़ादी के बाद भी साम्राज्यवाद के आर्थिक शोषण और उत्पीड़न का शिकार है और ये साम्राज्यवादी शोषण अब देशी पूँजी के साथ मिलकर, अक्सर नत्थी होकर होता है। ऐसे में, साम्राज्यवाद के साथ इन देशों की जनता का अन्तरविरोध कोई सुदूर अतीत की बात नहीं है, बल्कि एक तात्कालिक महत्व की बात है। यह कहा जा सकता है कि इन देशों में जो समाजवादी क्रान्तियाँ अपेक्षित हैं, वे महज़ पूँजीवाद-विरोधी नहीं बल्कि पूँजीवाद-विरोधी साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्तियाँ होंगी। इस तौर पर ये गुणात्मक रूप से एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्तियाँ होंगी और इस नयी विशिष्टता के कारण क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल में कुछ अहम बदलाव अपेक्षित हैं।
एक अन्य बड़ा परिवर्तन भी आज हमारे सामने है। जैसा कि हमने लेनिन और स्तालिन के लेखन के ज़रिये देखा, रूस में पूँजीवादी राज्यसत्ता अभी बेहद कमज़ोर थी, बुर्जुआ वर्ग का शासन अभी सुदृढ़ीकृत नहीं हो पाया था और युद्ध ने उसे और भी ज़्यादा कमज़ोर और खोखला बना दिया था, और तभी सर्वहारा वर्ग ने अपनी हिरावल पार्टी के नेतृत्व चोट की और बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस कर अपनी राज्यसत्ता की स्थापना कर दी थी। यह राज्यसत्ता कुछ शहरों में सीमित थी और रूस जैसे विशाल देश के सुदूर अंचलों में इसकी पकड़ अभी तक मज़बूत नहीं हुई थी। समूची रूसी आबादी में इस राज्यसत्ता का सामाजिक आधार बेहद सीमित था। आबादी में पाँच-छह प्रतिशत से ज़्यादा लोग इस नवजात बुर्जुआ सत्ता के समर्थक नहीं थे। आज ऐसी स्थिति नहीं है। मिसाल के तौर पर हमारे ही देश में आज बुर्जुआ राज्यसत्ता के सामाजिक अवलम्ब की भूमिका निभाने वाले वर्गों की आबादी कुल आबादी का क़रीब 15 से 20 प्रतिशत है। बड़े पूँजीपति वर्ग, छोटे पूँजीपति वर्ग, नौकरशाह वर्ग, शेयर बाज़ार के दलालों से लेकर प्रापर्टी डीलरों जैसे बिचौलियों के वर्ग, छोटे व बड़े व्यापारियों के टटपुंजिया वर्ग और साथ ही खाते-पीते मँझोले किसानों और धनी किसानों के समूचे वर्ग की जनसंख्या को जोड़ दिया जाये तो वह आबादी का पन्द्रह से बीस फ़ीसदी बैठता है। नतीजतन, आज की पूँजीवादी राज्यसत्ता की सामाजिक जड़ें ज़्यादा गहरी हैं। इसकी राजनीतिक और प्रशासनिक जड़ें भी ज़्यादा गहरी हैं। आज की पूँजीवादी राज्यसत्ता कुछ प्रमुख शहरों या औद्योगिक केन्द्रों तक सीमित नहीं है बल्कि गाँव पंचायत के प्रधान से लेकर, लेखपाल, तहसीलदार, ब्लॉक डेवलपमेण्ट ऑफि़सर, पार्षद, विधायक से लेकर सांसद तक इसकी नसें और शिराएँ गाँव, मुहल्लों और बस्तियों तक फैली हुई हैं। इसकी सैन्य ताक़त की पहुँच कुछ मिनटों के भीतर देश के हर कोने तक है। संक्षेप में, यह राज्यसत्ता समाज और राजनीतिक ताने-बाने से अलग-थलग ऊपर से थोपी हुई चीज़ नहीं है, बल्कि देश के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ताने-बाने में गुँथी हुई है। इसलिए यहाँ पर उस सुगमता के साथ क्रान्ति सम्पन्न नहीं हो सकती जिस सुगमता के साथ रूस में समाजवादी क्रान्ति हुई थी और यहाँ क्रान्ति को काफ़ी अलग रास्तों से होकर गुज़रना होगा।
लेकिन इससे परेशान होने की बात नहीं है क्योंकि रूसी क्रान्ति की तुलना में एक बहुत बड़ा सकारात्मक भी आज की नयी समाजवादी क्रान्ति के पक्ष में खड़ा है। रूस में समाजवादी क्रान्ति के समय कुल आबादी में मज़दूर वर्ग का हिस्सा मुश्किल से 10 से 12 प्रतिशत था। यानी क्रान्ति का मुखर और निस्सन्देह समर्थन करने वाला हिस्सा आबादी का कुल 10 से 12 प्रतिशत ही था। किसानों की व्यापक आबादी को अपने साथ लेने के लिए बोल्शेविक पार्टी को रैडिकल बुर्जुआ भूमि सुधार के कार्यक्रम को अपनाना पड़ा था। यह इच्छा का प्रश्न नहीं था। यह उस समय इतिहास द्वारा उपस्थित अनिवार्यता थी। किसानों की व्यापक आबादी इसके बिना क्रान्ति के पक्ष में नहीं खड़ी होती। रैडिकल बुर्जुआ भूमि सुधारों ने दूरगामी तौर पर रूस में समाजवादी निर्माण के समक्ष एक चुनौती और जटिलता भी खड़ी कर दी थी। क्योंकि क्रान्ति के बाद समाजवादी मज़दूर सत्ता के लिए खेती में समाजवादी साझी खेती के उत्पादन सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए बेहद कठिन परिस्थितियों और जटिलताओं का सामना करना पड़ा था। आज की नयी समाजवादी क्रान्ति के समक्ष यह चुनौती नहीं है। देश में ज़मीन के मालिक किसानों की कुल संख्या आबादी का मात्र 27 प्रतिशत है। इस 27 प्रतिशत का भी दो-तिहाई से ज़्यादा हिस्सा अर्द्धसर्वहारा की स्थिति में है क्योंकि उसके पास इतनी छोटी या ग़ैर-कमाऊ जोत है कि उसके परिवार के सदस्यों को दूसरे के खेतों में या फिर औद्योगिक केन्द्रों में जाकर मज़दूरी करनी पड़ती है। वास्तव में उनकी घर की अर्थव्यवस्था मुख्यतः अब खेती से नहीं चलती बल्कि उजरती श्रम यानी मज़दूरी से चलती है। वे मुख्यतः मज़दूर बन चुके हैं और एक छोटी-सी जोत का मालिकाना महज़ उन्हें औपचारिक तौर पर ग़रीब किसान के रूप में बनाये हुए है। निश्चित तौर पर, इससे उसकी सर्वहारा चेतना कुन्द होती है। मगर फिर भी एक बात तय है कि उसके धनी किसानों, कुलकों व खाते-पीते मँझोले किसानों से वर्ग अन्तरविरोध स्पष्ट और तीखे होते जा रहे हैं और मज़दूर वर्ग से उसी मात्रा में उनकी निकटता भी बढ़ती जा रही है। अगर मज़दूर आबादी पर निगाह डालें तो वह क़रीब 55 करोड़ के आस-पास है। इसमें से क़रीब 33 करोड़ ग्रामीण मज़दूर हैं, जबकि क़रीब 20 से 22 करोड़ शहरी व औद्योगिक मज़दूर हैं। यह वह आबादी है जो शुद्ध रूप से सर्वहारा वर्ग की आबादी कही जा सकती है। अगर हम इस ग्रामीण और शहरी सर्वहारा वर्ग को ग़रीब किसान, ग्रामीण व शहरी अर्द्धसर्वहारा आबादी, और निम्न मध्यवर्गीय आबादी के साथ जोड़ दें तो आज उनकी आबादी 80 करोड़ से ऊपर बैठती है। संक्षेप में, आज भारत और भारत जैसे अन्य देशों की स्थिति 1917 के रूस से काफ़ी भिन्न है। यदि राज्यसत्ता के सामाजिक अवलम्बों का विस्तार हुआ है, तो उससे भी तेज़ गति से समाजवादी क्रान्ति के मित्र वर्गों का विस्तार हुआ है। इन बदली हुई परिस्थितियों के कारण यह कहा जा सकता है कि आज के दौर की नयी समाजवादी क्रान्तियाँ ज़्यादा कठिन रास्तों से गुज़रेगी मगर सफल होने के बाद उनके टिकने और अपेक्षाकृत सुगम समाजवादी निर्माण की सम्भावना ज़्यादा है। हमारे देश में जनवादी क्रान्ति के छूटे-फटेक कार्यभार 1917 के रूस के मुकाबले कहीं कम हैं। आज की नयी समाजवादी क्रान्ति के समक्ष व्यापक किसान आबादी को साथ लेने के लिए रैडिकल भूमि सुधार के कार्यक्रम को अपनाने की कोई विवशता नहीं है। अव्वलन को ख़ुदकाश्त किसानों की आबादी ही पूरी जनसंख्या में काफ़ी कम हो गयी है और उनमें भी परिधिगत किसान या अर्द्धसर्वहारा आबादी का हिस्सा दो-तिहाई से भी ज़्यादा है। नतीजतन, ग्रामीण व खेतिहर आबादी के बड़े हिस्से को साझी खेती पर सहमत करना अपेक्षाकृत रूप से आसान काम होगा। यह ज़रूर है कि अगर कोई कम्युनिस्ट ताक़त आज भी उनमें ज़मीन की भूख पैदा करने में आमादा हो जाये, तो यह भूख पैदा की जा सकती है। ज़मीन का मालिकाना निजी सम्पत्ति का सबसे आदिम रूप है और इसके प्रति अपील पैदा करना पिछड़ी किसान आबादी में समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में सम्भव है। दूसरे शब्दों में, यदि आज देश में आर्थिक तौर पर खेतिहर आबादी के समक्ष समाजवादी खेती का कार्यक्रम उचित कार्यक्रम है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि समूची खेतिहर आबादी स्वतःस्फूर्त तौर पर राजनीतिक रूप से इसके लिए तैयार बैठी हुई है और कम्युनिस्टों का इन्तज़ार कर रही है! इसका यह अर्थ भी नहीं है कि समाजवादी खेती के कार्यक्रम को पेश किये जाने पर वह उसका विरोध करेगी! इसका यह अर्थ है कि उन्हें आज समाजवादी भूमि कार्यक्रम पर ज़्यादा आसानी के साथ राजी किया जा सकता है क्योंकि छोटी-सी जोत उन्हें क्या दे सकती है, ये वे देख चुके हैं। वे समझ सकते हैं कि साझी खेती की व्यवस्था के ज़रिये ही उन्हें ग़रीबी, बेरोज़गारी और भूख से निजात मिल सकती है। लेनिन इस बात को अच्छी तरह समझते थे आर्थिक तौर पर किसान आबादी के विभेदीकरण और साझी खेती के लिए आर्थिक तौर पर उनके तैयार होने का यह अर्थ नहीं होता कि वह स्वतःस्फूर्त तौर पर राजनीतिक रूप से समाजवादी साझी खेती के लिए तैयार बैठी है। आर्थिक तौर पर विभेदीकरण के बाद भी किसान आबादी को कम्युनिस्ट पार्टी साझी समाजवादी खेती के लिए तैयार करती है और वे इसी रूप में तैयार हो सकते हैं। भारत में आज ऐसी स्थिति है कि किसानों की व्यापक बहुसंख्या, यानी ग़रीब किसानों को, इसके लिए तैयार किया जा सकता है। इस रूप में भी इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियाँ जिन देशों में सम्भावित हैं, वहाँ की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थितियाँ 1917 के रूस से काफ़ी भिन्न हैं। इनके कारण भी इन समाजवादी क्रान्तियों का चरित्र, स्वरूप और पथ रूसी समाजवादी क्रान्ति से काफ़ी भिन्न होगा।
हम यहाँ पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों की विस्तार में चर्चा नहीं कर सकते और आगे हम अलग से ‘मज़दूर बिगुल’ में लिखेंगे। लेकिन अभी इतना कहना पर्याप्त होगा कि 1945 के बाद से विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के काम करने के तरीक़े में कुछ अहम बदलाव आये हैं जिनके कारण समाजवादी क्रान्तियों की कार्यनीतियों में भी कुछ बदलाव आने लाज़िमी हैं। इन परिवर्तनों में प्रमुख इस प्रकार हैं – उत्तर-फोर्डवाद (यानी एकीकृत कारख़ाने को छोटी-छोटी इकाइयों में तोड़कर मज़दूर आबादी को कार्यस्थल पर बिखरा देना; आज यह वैश्विक पैमाने पर हो रहा है), मज़दूर आबादी का पहले बड़े पैमाने पर औपचारिकीकरण (1945 से 1970) और फिर उससे भी बड़े पैमाने पर अनौपचारिकीकरण, वित्तीय और विशेष तौर पर सट्टेबाज़ पूँजी के अधिपत्य और कार्यप्रणाली में लेनिन के समय के मुकाबले अभूतपूर्व बदलाव, सूचना तकनोलॉजी, परिवहन व संचार के क्षेत्रा में हुई क्रान्ति के चलते पूँजी के चलने के तरीक़े और गति में भारी परिवर्तन, आज के साम्राज्यवाद और पूँजीवाद द्वारा मीडिया व प्रचार तन्त्रा का व्यापकतम, सूक्ष्मतम और कुशलतम उपयोग और संस्कृति के क्षेत्रा का वर्ग संघर्ष के पहले से ज़्यादा प्रमुख क्षेत्र के रूप में सामने आना, आदि। अभी हम इन परिवर्तनों पर चर्चा नहीं करेंगे और आगे के अंकों में हम अक्टूबर क्रान्ति के शताब्दी वर्ष के दौरान इन मुद्दों पर विस्तार से लिखेंगे। अभी बस इतना कहा जा सकता है कि आज की विश्व पूँजीवादी व्यवस्था आज से सौ या सत्तर साल पुरानी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था से काफ़ी अलग है। इसे अगर गुणात्मक नहीं तो महत्वपूर्ण परिमाणात्मक परिवर्तन तो अवश्य ही कहा जा सकता है। ऐसे में, क्रान्तियों की भी वे रणनीतियाँ और आम रणकौशल तथा पथ पुराने पड़ गये हैं, जिन पर बीसवीं सदी की क्रान्तियों ने अमल किया था। उपरोक्त परिवर्तनों का अध्ययन करते हुए और उन्हें समझते हुए आज मज़दूर वर्ग को नयी रणनीतियाँ, रणकौशल व पथ ईजाद करने होंगे, यहाँ तक कि क्रान्ति से पहले भी उसे अपने आर्थिक व राजनीतिक संघर्षों के नये रूपों को ईजाद करना ही होगा।
बहरहाल, इन सभी परिवर्तनों के मद्देनज़र हम मानते हैं कि बीसवीं सदी की समाजवादी क्रान्तियों विशेषकर अक्टूबर क्रान्ति की तुलना में इक्कीसवीं सदी की समाजवादी क्रान्तियों में परिवर्तन का पहलू प्रधान है और इसीलिए इस परिवर्तन के पहलू को रेखांकित करने और उसे दृष्टिओझल होने से बचाने के लिए हम इसे नयी समाजवादी क्रान्ति कहते हैं। इनमें भी किसी भी समाजवादी क्रान्ति के समान मूलतः तीन वर्गों (मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न मँझोला किसान वर्ग तथा निम्न मध्यवर्ग) का मोर्चा ही बनेगा। लेकिन इसका स्वरूप और इसकी प्रक्रिया अक्टूबर क्रान्ति से काफ़ी भिन्न होगी, जिसके कारणों की हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं।
आज अक्टूबर क्रान्ति की महान विरासत को याद करने की शिद्दत से ज़रूरत है क्योंकि मज़दूर वर्ग का बड़ा हिस्सा आज पस्तहिम्मत है और निराशा में भी है। वह जानता भी नहीं है कि उसके पुरखों ने मज़दूरों का राज कायम किया था और ऐसे चमत्कारी प्रयोग किये थे जिनके बारे में पढ़कर आज भी आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है। अन्त में उन प्रयोगों की असफलता और उसके कारणों को भी समझने की ज़रूरत है। लेकिन इस महान क्रान्ति से प्रेरणा और ताक़त लेते हुए, इससे सकारात्मक और नकारात्मक शिक्षा लेते हुए यह ध्यान रखना होगा कि इस क्रान्ति की विरासत भी मानो हमसे यही कह रही हैः ”मुझसे सीखो! मेरी उपलब्धियाँ और मेरी ग़लतियों, दोनों से सीखो! लेकिन मेरी नक़ल मत करो! मेरा अन्धानुकरण मत करो! अपने देश-काल की विशिष्टताओं को समझो और उसके मुताबिक़ मेरे नये संस्करणों को रचने की तैयारी करो! मेरी विराट छाया में नयी जनक्रान्ति के अंकुरों और कोंपलों को कुम्हलाने मत दो! मुझसे सबक लो और इस सबक के लिए समय और स्थान दोनों ही पैमानों पर मुझसे दूरी ज़रूरी है। तभी अक्टूबर के नये संस्करण रचे जा सकेंगे।” आज हमें इस सन्देश को समझना होगा और भावी नयी समाजवादी क्रान्ति की तैयारी में जुट जाना होगा। अभी बहुत काम बाक़ी है, बहुत लम्बा रास्ता तय करना है। इसलिए एक पल की भी देरी एक गम्भीर भूल होगी।
सजेंगे फिर नये लश्कर
मचेगा रणमहाभीषण
उठो संग्रामियो जागो! नयी शुरुआत करने का समय फिर आज रहा है
कि जीवन को चटख़ गुलनार करने का समय फिर आ रहा है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन