पहला पार्टी स्कूल

(मरीया प्रिलेज़ायेवा
की पुस्तक ‘लेनिन कथा’
का एक अंश)

1911 का साल चल रहा था। उन दिनों फ़्रांस में हज़ारों रूसी क्रान्तिकारी प्रवासी रहते थे। व्लादीमिर इल्यीच भी पेरिस में रहते थे। वसन्त के अन्त में वह और नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना पेरिस से कोई पन्द्रह-एक किलोमीटर की दूरी पर बसे लोंजूमो गाँव चले आये। इरादा यह था कि सारी गर्मि‍याँ यहीं बितायी जायें।
गाँव के साथ-साथ एक सड़क थी और रातों को उस पर किसानों की गाड़ियों के खड़खड़ाने का शोर मचा रहता था – किसान अपना माल बेचने के लिए पेरिस ले जा रहे होते थे।
लोंजूमो में लगभग सभी मकान पत्थर के बने हुए और धुएँ से बुरी तरह काले पड़े हुए थे। गाँव के पास ही स्थित छोटी-सी चमड़ा-फ़ैक्टरी की चिमनी दिन-रात धुआँ उगलती रहती थी, जिससे यहाँ तक कि घास और पेड़ भी काले लगने लगे थे। मगर खेतों में फिर भी हरियाली दिख जाती थी। व्लादीमिर इच्यीच और नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना यहाँ आराम के लिए नहीं, बल्कि काम के लिए आये थे।
अभी झुटपुटा ही था कि व्लादीमिर इल्यीच जाग गये। गर्मियों की उजली सुबह के बावजूद कमरे में अँधेरा और ठण्डक थी।
तब तक नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना ने नाश्ता तैयार कर दिया था।
”श्रीमान, आज देर तक सोये रहे! इसके लिए आपको एक अंक मिलेगा,” झटपट बिस्तर से उठते हुए व्लादीमिर इल्यीच ने अपनेआप से कहा और हाथ-मुँह धोकर नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना की मदद को लपके।
अचानक व्लादीमिर इल्यीच के हाथ से शक्करदानी फि‍सल गयी। मगर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उसे ज़मीन पर गिरने से पहले ही पकड़ लिया।
”क्यों, हूँ न असली बाज़ीगर?”
”हाँ, तीन अंक तो मिल ही सकते हैं,” नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना ने जवाब दिया।
उस साल फ़्रांस में भयंकर गरमी पड़ रही थी। सूरज सुबह से ही आग बरसा रहा था। दोगला झबरैला कुत्ता जीभ निकाले हाँफता गली में चहारदीवारी की छाँह में लेटा हुआ था।
”क्यों तुझे भी गरमी लग रही है?” व्लादीमिर इल्यीच ने कुत्ते को सहलाया और फिर चमड़ा-फ़ैक्टरी के मज़दूर को नमस्ते की।
रविवार का दिन था। मज़दूर अपने नसदार हाथों को घुटनों पर रखे चहारदीवारी की छाँह में बैठा था। उसका चेहरा लम्बा, दुबला और बेहद थका हुआ था।
सड़क से एक जगमगाती, स्प्रिं‍गदार बग्घी गुज़री। उसमें जालीदार छतरी के नीचे एक महिला और बच्चे बैठे हुए थे। मज़दूर ने हड़बड़ाकर खड़े होते हुए सलाम किया। महिला ने भी हलके से सिर झुकाया।
”हमारे मालिक की बीवी है,” चमड़ा मज़दूर ने आदरपूर्ण स्वर में कहा।
”जीभर कर आराम ये ही लोग कर सकते हैं,” व्लादीमिर इल्यीच ने व्यंग्य किया।
मज़दूर कुछ क्षण चुप रहा, फिर विनम्रता से बोला :
”भगवान ने अगर अमीर और ग़रीब बनाये हैं, तो इसका मतलब है कि ऐसा ही होना भी चाहिए।”
सड़क के पार गिरजाघर की घण्टियाँ बजने लगीं। रविवार की प्रार्थना का समय हो गया था। मज़दूर ने अपनी छाती पर सलीब का चिह्न बनाया और यह बुदबुदाता हुआ गिरजाघर की ओर चल पड़ा कि दुनिया भगवान ने बनायी है, हम इसमें कोई दख़ल नहीं दे सकते।
”श्रीमान,” पड़ोसी के लड़के ने व्लादीमिर इल्यीच से पूछा, ”आप अपने स्कूल जा रहे हैं? आप क्या छुट्टी के दिन भी पढ़ाते हैं?”
लेनिन का स्कूल, जो लोंजूमो की सड़क के दूसरे छोर पर था, एक निराले तरह का स्कूल था, देखने में भी वह और स्कूलों की तरह नहीं था। पहले यहाँ एक सराय हुआ करती थी। पेरिस जाते हुए डाकगाड़ियाँ यहाँ रुका करती थीं। गाड़ीवान आराम करते थे, घोड़ों को दाना-पानी देते थे। मगर यह बहुत पहले की बात थी…
1911 की वसन्त में व्लादीमिर इल्यीच ने स्कूल के लिए इस भूतपूर्व सराय को किराये पर ले लिया। विद्यार्थि‍यों ने ख़ुद सारा कूड़ा-करकट साफ़ किया, तख़्ते ठोंककर मेज़ बनायी और पड़ोसियों से माँगकर कुछ पुरानी तिपाइयाँ और कुर्सि‍याँ भी इकट्ठा कीं। इस तरह लेनिन का स्कूल काम करने लगा।
विद्यार्थी और कोई नहीं, बल्कि रूसी मज़दूर थे। ज़ारशाही पुलिस से छिपकर वे रूस के विभिन्न नगरों से यहाँ आये थे। और उनके अध्यापक थे व्लादीमिर इल्यीच, नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना और कुछ दूसरे साथी।
जब व्लादीमिर इल्यीच स्कूल में पहुँचे, तो सभी विद्यार्थी अपनी-अपनी जगह पर बैठे थे। अध्यापक के कमरे में प्रवेश करते ही सब खड़े हो गये। मगर हँसी की बात यह थी कि सब नंगे पैर थे। लोंजूमो में गरमी इतनी असह्य थी कि जूता भी नहीं पहना जा सकता था।
ये सब जिज्ञासु और योग्य नौजवान थे। व्लादीमिर इल्यीच के व्याख्यान उन्हें बेहद पसन्द थे।
”भगवान ने अगर अमीर और ग़रीब बनाये हैं, तो इसका मतलब है कि ऐसा ही होना भी चाहिए,” व्लादीमिर इल्यीच ने अप्रत्याशित ढंग से पाठ शुरू किया।
उनके होंठों पर व्यंग्य भरी मुस्कान थी और आँखें हँस रही थीं। विद्यार्थी आश्चर्य से मुँहबाये बैठे थे।
”ऐसा मुझसे आज एक फ़्रांसीसी चमड़ा-मज़दूर ने कहा,” कुछ देर रुककर व्लादीमिर इल्यीच ने स्पष्टीकरण दिया।
विद्यार्थि‍यों में उत्तेजना फैल गयी।
”अच्छा, तो यह बात है! ज़रूर कोई काहिल होगा।”
”व्लादीमिर इल्यीच, आपका यह फ़्रांसीसी दकियानूस है। उसे यहाँ ले आइये, हम उसका दिमाग़ सुधार देंगे।”
और एक विद्यार्थी ने खड़े होकर कहा :
”मैं भी चमड़ा-मज़दूर हूँ। पर मैं सोचता हूँ कि भगवान के क़ानून हमारे किसी काम के नहीं। ज़रूरत है अमीरों को गरदनियाँ देने और नये समाज का निर्माण करने की।”
”सही कहा,” आसपास सभी चिल्लाये।
विद्यार्थियों की ऐसी प्रतिक्रिया व्लादीमिर इल्यीच को अच्छी ही लगी।
”तो इसका मतलब है कि अमीरों और ग़रीबों का होना ज़रूरी नहीं है,” उन्होंने विद्यार्थियों की बात दोहरायी और फिर बड़ी सहजता के साथ राजनीतिक अर्थशास्त्र के विषय पर आ गये। राजनीतिक अर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो सामाजिक उत्पादन के नियमों का अध्ययन करता है।
व्लादीमिर इल्यीच मज़दूरों को मार्क्सवाद की शिक्षा दे रहे थे। वह कह रहे थे कि मज़दूर को शिक्षित, समझदार और जानकार होना चाहिए। उसे राजनीति की अच्छी पकड़ होनी चाहिए।
क्या उस फ़्रांसीसी चमड़ा-मज़दूर जैसा आदमी क्रान्ति के लिए लड़ सकता है, जो क़दम-क़दम पर भगवान की दुहाई देता हो और आगे कुछ न जानता हो? हमारे यहाँ रूस में भी ऐसे दकियानूस मज़दूरों की कमी नहीं है। पिछड़ेपन से क्रान्तिकारी संघर्ष में कोई मदद नहीं मिल सकती।
”मज़दूरों के लिए शिक्षा बहुत ज़रूरी है,” व्लादीमिर इल्यीच कहा करते थे।
इसीलिए उन्होंने लोंजूमो में पार्टी स्कूल खोला था। मज़दूरों ने उसमें चार महीने पढ़ाई की और रूसी मज़दूर वर्ग के लिए क्रान्ति में निष्ठा और ज्ञान का सन्देश लेकर स्वदेश लौटे।
फ़्रांस के उस साधारण और नगण्य-से गाँव, लोंजूमो, को आज सारी दुनिया जानती है। और यह इसलिए कि वहाँ लेनिन ने पहला पार्टी स्कूल खोला था।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2017


 

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