Category Archives: महान जननायक

पहला पार्टी स्कूल

लेनिन का स्कूल, जो लोंजूमो की सड़क के दूसरे छोर पर था, एक निराले तरह का स्कूल था, देखने में भी वह और स्कूलों की तरह नहीं था। पहले यहाँ एक सराय हुआ करती थी। पेरिस जाते हुए डाकगाड़ियाँ यहाँ रुका करती थीं। गाड़ीवान आराम करते थे, घोड़ों को दाना-पानी देते थे। मगर यह बहुत पहले की बात थी…

सेण्ट पीटर्सबर्ग का वह कार्यकाल जिसने लेनिन को मेहनतकश जनता के नेता के रूप में ढाला

व्लादीमिर इलिच को उस हर छोटी बात में दिलचस्पी थी, जो मज़दूरों की जि़न्दगी और उनके हालात की तस्वीर को उभारने में मदद कर सके और जिसके सहारे वे क्रान्तिकारी प्रचार कार्य के लिए मज़दूरों से सम्पर्क क़ायम कर सकें। उस ज़माने के अधिकांश बुद्धिजीवी मज़दूरों को अच्छी तरह नहीं जानते थे। वे किसी अध्ययन मण्डल में आते और मज़दूरों के सामने एक तरह का व्याख्यान पढ़ देते। एंगेल्स की पुस्तक ”परिवार व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति” का हस्तलिखित अनुवाद बहुत दिनों तक गोष्ठियों में घूमता रहा। व्लादीमिर इलिच मज़दूरों को मार्क्स का ग्रन्थ पूँजी पढ़कर सुनाते और उसे समझाते। वे अपने पाठ का आधा समय मज़दूरों से उनके काम और मज़दूरी के हालात के विषय में पूछने पर लगाते। और इस प्रकार उन्हें दिखाते और बताते कि उनकी जि़न्दगी समाज के पूरे ढाँचे के लिए क्या महत्त्व रखती है तथा वर्तमान व्यवस्था को बदलने का उपाय क्या है? अध्ययन मण्डलों में सिद्धान्त को व्यवहार से इस प्रकार जोड़ना व्लादीमिर इलिच के कार्य की विशेषता थी। धीरे-धीरे हमारे अध्ययन मण्डलों के अन्य सदस्यों ने भी यह तरीक़ा अपना लिया।

ज्योतिराव फुले – स्त्री मुक्ति के पक्षधर व जाति उन्मूलन आन्दोलन के योद्धा

आज जब संघी फासीवादी जातिप्रथा व पितृसत्ता के आधार पर व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से दलितों, स्त्रियों व अल्पसंख्यकों पर हमले तीव्र कर रहे हैं, खाने-पीने-जीवनसाथी चुनने व प्रेम के अधिकार को भी छीनने की कोशिश कर रहे हैं, तब फुले को याद करने का विशेष औचित्य है। ब्राह्मणवाद व पूँजीवाद विरोधी संघर्ष तेज़ करके ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है व उनके सपनों का समाज बनाया जा सकता है।

यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर शक्तिशाली व्यक्तियों का एकाधिकार रहेगा…

एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों की इस बढ़ती समाजवादी चेतना के कारण वे विदेशी और देशी पूँजीवाद के रिश्तों को समझ सकते थे। वे विदेशी पूँजीपतियों के साथ भारतीय पूँजीपति वर्ग के समझौतावादी, दलाली के सम्बन्ध को साफ़ तौर पर देख रहे थे, जो दोनों मिलकर जनता से उसका हक़ छीन रहे थे। वे मानते थे कि हिन्दुस्तान को एक वर्ग ने गुलाम बनाया है – जिसमें भारतीय और विदेशी दोनों शोषक शामिल हैं। यह समझदारी अनेक नारों और पर्चों में झलकती है जिनमें कहा गया है कि आज़ादी और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे के बीच सीधा रिश्ता है। देशी शोषकों से भी उनका सामना हुआ और उन्होंने साफ़ कहा कि जनता के हितों के लिए वे भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने कि विदेशी पूँजीवादी शासक।

देश के मज़दूरों की दशा – गणेशशंकर विद्यार्थी

बम्बई और मद्रास के मज़दूरों ने तंगदस्ती से परेशान होकर हड़तालें कीं, और अपनी उजरतें कुछ-कुछ बढ़वा ली हैं। परन्तु अन्य स्थानों में मज़दूरों की उजरतें उतनी ही हैं जितनी कि युद्ध के पहले थीं। उनकी मानसिक और आर्थिक उन्नति के कोई साधन नहीं। बहुत से कारख़ानों में उनके साथ असभ्य व्यवहार होता है। छोटी-छोटी बातों पर उनका अपमान होता है। उन्हें ठोकरें लगाई जाती हैं। उन्हें मारा जाता है। कारख़ाने के मालिकों और बड़े नौकरों का यह क्रूर, शुष्क और हाकिमाना बर्ताव मज़दूरों की आत्माएँ दाब देता है, उनकी स्वाधीनता मार देता है, उनमें भय पैठ जाता है, और वे डरपोक, कायर, झूठे और आत्मसम्मान के भाव से शून्य हो जाते हैं।

सावित्रीबाई फुले की वि‍रासत को आगे बढ़ाओ। नई शिक्षाबन्दी के विरोध में नि:शुल्क शिक्षा के लिए एकजुट हों!

भारत में सावि‍त्रीबाई फुले सम्भवत: पहली महि‍ला थीं, जि‍न्होंने जाति‍ प्रथा के साथ ही स्त्रि‍यों की गुलामी के ि‍ख़लाफ़ आवाज़ उठायी। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। 1848 में अपने पति‍ ज्योति‍बा फुले के साथ मि‍लकर ब्राह्मणवादी ताक़तों से वैर मोल लेकर पुणे के भिडे वाडा में लड़कियों के लिए स्कूल खोला था। इस घटना का एक क्रान्तिकारी महत्व है। पीढ़ी दर पीढ़ी दलितों पर अनेक प्रतिबन्धों के साथ ही “शिक्षाबन्दी” के प्रतिबन्ध ने भी दलितों व स्त्रियों का बहुत नुक़सान किया था। ज्योतिबा व सावित्रीबाई ने इसी कारण वंचितों की शिक्षा के लिए गम्भीर प्रयास शुरू किये।

चन्द्रशेखर आज़ाद के 110वें जन्मदिवस (23 जुलाई) के अवसर पर ‘यश की धरोहर’ पुस्तिका से एक अंश

एकश्लोकी रामायण की तरह संक्षेप में आज़ाद का चरित्र इतना ही है, परन्तु उनके जीवन में इस भाँति अशिक्षित, कुसंस्कारग्रस्त, ग़रीबी में पड़ी हुई जनता के क्रान्ति के मार्ग पर बढ़ते जाने की एक संक्षिप्त उद्धरणी-सी हमें मिलती है। आज़ाद का जन्म हद दर्जे की ग़रीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास और धार्मिक कट्टरता में हुआ था, और फिर वे, पुस्तकों को पढ़कर नहीं, राजनीतिक संघर्ष और जीवन संघर्ष में अपने सक्रिय अनुभवों को सीखते हुए ही उस क्रान्तिकारी दल के नेता हुए जिसने अपना नाम रखा था: ‘’हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ और जिसका लक्ष्य था भारत में धर्म निरपेक्ष, वर्ग-विहीन समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना।

रोबर्ट ओवन : महान काल्पनिक समाजवादी

रोबर्ट ओवन का सबसे प्रसिद्ध और सफल प्रयोग न्यू लेनार्क के कॉटन मिल में किये गये उनके कामों को माना जाता है। सन 1800 से 1821 के बीच ओवन ने स्कॉटलैण्ड की न्यू लेनार्क नामक जगह में एक नयी आदर्श कॉलोनी बसायी। ओवन के अनुसार – “किसी भी क़िस्म का मानवीय चरित्र समुचित साधनों से किसी भी समाज को दिया जा सकता है चाहे वह समाज चेतस हो या भले ही अज्ञानी हो, बल्कि यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है” और इस बात को लागू करते हुए ही उन्होंने यह दिखाया कि कैसे जब नरक सरीखी ज़िन्दगी में जी रहे मज़दूरों को बेहतर परिस्थिति में जीने का मौक़ा मिला तो उनके जीवन में भारी बदलाव हुआ। मज़दूरों के बीच से शराबखोरी, ग़रीबी आदि ख़त्म हो गये। 500 मज़दूरों से शुरू हुई इस कॉलोनी की आबादी बढ़कर 2500 तक पहुँच गयी। उन्होंने अपनी फ़ैक्टरी में अनाथ बच्चों से काम करवाना बन्द करवा दिया और उनके लिए शिक्षा के बेहतर उपाय ढूँढ़े। न्यू लेमार्क कॉलोनी के लोगों के लिए ओवन ने कायदे और क़ानून भी बनाये जिससे लोग अपने घर और गलियों को साफ़-सुथरा और सुरक्षित रख सकें। इस नियम का पालन करवाने के लिए कॉलोनी के लोगों की समिति का गठन किया गया। कॉलोनी में दुकानें भी खोली गयी जहाँ ख़रीद दर पर सामान मिलता था। दो बड़े स्कूल खोले गये जहाँ सभी निवासियों के लिए दिन और शाम की क्लास मुहैया करायी जाती थी। बीमारों के इलाज के लिए एक फ़ण्ड बनाया गया जिससे सभी को डॉक्टर और दवाई मुहैया करायी जा सके।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कमाण्डर, देश के सच्चे क्रान्तिकारी सपूत, आज भी सच्ची आज़ादी और इंसाफ़ के लिए लड़ रहे हर नौजवान के प्रेरणास्रोत चन्द्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस (23 जुलाई) के अवसर पर

आज़ाद के बारे में अधिकांश लोगों ने या तो कल्पना के सहारे लिखा है या फिर दूसरों से सुनी-सुनायी बातों को एक जगह बटोरकर रख दिया है। कुछ लोगों ने उन्हें जासूसी उपन्यास का नायक बना उनके चारों ओर तिलिस्म खड़ा करने की कोशिश की है। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपने को ऊँचा दिखाने के ख़्याल से उन्हें निरा जाहिल साबित करने की कोशिश की है। फलस्वरूप उनके बारे में तरह-तरह की ऊलजुलूल धारणाएँ बन गयी हैं – उसमें मानव सुलभ कोमल भावनाओं का एकदम अभाव था, वे केवल अनुशासन का डण्डा चलाना जानते थे, वे क्रोधी एवं हठी थे, किसी को गोली से उड़ा देना उनके बायें हाथ का खेल था, उनके निकट न दूसरों के प्राणों का मूल्य था न अपने प्राणों का कोई मोह, उनमें राजनीतिक सूझ-बूझ नहीं के बराबर थी, उनका रुझान फासिस्टी था, पढ़ने-लिखे में उनकी पैदाइशी दुश्मनी थी आदि। कहना न होगा कि आज़ाद इनमें से कुछ भी न थे। और जाने-अनजाने उनके प्रति इस प्रकार की धारणाओं को प्रोत्साहन देकर लोगों ने उनके व्यक्तित्व के प्रति अन्याय ही किया है।

एक ऐसे मज़दूर की कहानी जिसने अपने साहस के दम पर पहाड़ को भी झुकने को मजबूर कर दिया

आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वो एक सच्ची घटना पर आधारित है। यह कहानी है दशरथ माँझी की, जिन्होंने अपनी मेहनत और साहस के दम पर यह साबित कर दिया कि अगर आदमी में हिम्मत है तो वह किसी भी तरह की कठिनाई पर विजय पा सकता है। दशरथ माँझी का जन्म बिहार में स्थित गया ज़िले के एक छोटे से गाँव गहलौर में एक भूमिहीन मज़दूर परिवार में हुआ था। दशरथ माँझी का बचपन भयंकर ग़रीबी और तंगहाली में बिता, जिस कारण बहुत छोटी उम्र से ही उन्हें अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए स्कूल जाने के बजाय काम करने को मजबूर होना पड़ा। जिस ज़मींदार के खेत में दशरथ काम करते थे वह पहाड़ के दूसरी ओर स्थित था, कोई सड़क न होने के कारण उन्हें हर दिन वहाँ पहुँचने के लिए कई किलोमीटर लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था।