भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के 86वें शहादत दिवस (23 मार्च) के अवसर पर
”यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर शक्तिशाली व्यक्तियों का एकाधिकार रहेगा…”
एस. इरफ़ान हबीब
(‘बहरों को सुनाने के लिए’ पुस्तक से कुछ अंश)
‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ क्रान्तिकारियों के लिए महज़ एक भावनात्मक रणघोष नहीं था बल्कि एक उदात्त आदर्श था जिसकी व्याख्या एच.एस.आर.ए. ने इस रूप में की :
”क्रान्ति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। …उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा।”
एच.एस.आर.ए. के एक और घोषणापत्र में कहा गया कि ”क्रान्ति हताशा का दर्शन या हताश लोगों का पन्थ नहीं है”। इसका अन्त इन शब्दों से हुआ :
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की हिफ़ाज़त की जायेगी। सर्वहारा की सम्प्रभुता को मान्यता दी जायेगी। हम ऐसी क्रान्ति की उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं।
भगतसिंह ने 6 जून, 1929 को अदालत में अपने बयान में और भी साफ़ शब्दों में कहा :
क्रान्ति बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है। क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है – अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।
भगतसिंह कार्ल मार्क्स की इस बात से सहमत थे कि आमूल क्रान्ति काल्पनिक नहीं होती। ”यूटोपियाई तो एक आंशिक, एक विशुद्ध राजनीतिक क्रान्ति की धारणा होती है, जो (पूँजीवादी व्यवस्था की – सं.) इमारत के खम्भों को खड़ा छोड़ देगी।” एच.एस.आर.ए. का लक्ष्य ऐसी क्रान्ति करना था जो भारतीय समाज के वर्तमान सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ढाँचे को ध्वस्त करके एक नये युग की शुरुआत करेगी। उनकी क्रान्ति अराजकता या अव्यस्था के लिए नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के लिए थी।
जब तक क्रान्तिकारियों का तीसरा उद्देश्य, यानी समाजवाद हासिल न हो जाये तब तक क्रान्ति की स्पिरिट को जगाये रखना होगा। यह लक्ष्य अस्पष्ट या धुँधली धारणाओं या नौजवानी के अधैर्य पर आधारित नहीं था। उनकी विचारधारा गहन अध्ययन और सघन विचार-विमर्श के बाद निर्मित हुई थी। भगतसिंह ने द्वारकादास लाइब्रेरी को रूस, आयरलैण्ड और इटली की क्रान्तियों के बारे में साहित्य का दुर्लभ संग्रह हासिल करने में मदद की थी। उन्होंने सुखदेव और दूसरे लोगों की मदद से बहुत-से अध्ययन मण्डल संगठित किये थे और सघन राजनीतिक चर्चाएँ संचालित की थीं। ये अध्ययन मण्डल रूस के सामाजिक क्रान्तिकारी क्रोपोटकिन की तर्ज पर चलाये जाते थे। …पंजाब और संयुक्त प्रान्त दोनों में युवा क्रान्तिकारी समाजवाद में गहरी दिलचस्पी ले रहे थे।5 लाहौर षड्यन्त्र केस में उनके साथ जेल में रहे जितेन्द्रनाथ सान्याल ने 1931 में बौद्धिक व्यक्ति के तौर पर भगतसिंह का यह मूल्यांकन रखा था :
भगतसिंह बेहद पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और उनके अध्ययन का विशेष दायरा था समाजवाद… हालाँकि समाजवाद उनका विशेष विषय था, पर उन्होंने 19वीं सदी की शुरुआत से लेकर 1917 की अक्टूबर क्रान्ति तक रूस के क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास का गहन अध्ययन किया था। आम तौर पर माना जाता है कि इस विशेष विषय की जानकारी में हिन्दुस्तान में कुछ ही लोगों की उनसे तुलना की जा सकती है। बोल्शेविक शासन में रूस में किये गये आर्थिक प्रयोगों में भी उनकी बहुत दिलचस्पी थी।
जेल में रहने के दौरान उनकी बौद्धिक क्षमता दिन दूनी-रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ी और उन्होंने कई किताबें लिखीं जिनमें से चार अहम थीं : आत्मकथा, मृत्यु का द्वार, समाजवाद का आदर्श और भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन। दुर्भाग्यवश, इन सबकी पाण्डुलिपियाँ गुम हो चुकी हैं। उनकी जेल नोटबुक से उनकी पढ़ने की आदत का पता चलता है और यह भी पता चलता है कि कितने विविध प्रकार के लेखकों की कृतियाँ वे गहरी दिलचस्पी से पढ़ते थे। इनमें मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, रसेल, टॉम पेन, अप्टन सिंक्लेयर, वर्ड्सवर्थ, टेनीसन, टैगोर, बुखारिन, त्रॉत्स्की और बहुत-से अन्य शामिल थे। भगवतीचरण और सुखदेव ने भी समाजवादी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया था। सुखदेव भी बहुत अधिक बौद्धिक क्षमतासम्पन्न व्यक्ति थे और उनके भाई ने तो उन्हें एच.एस.आर.ए. का चाणक्य कहा है। यशपाल ने लिखा है कि 1924-25 में भगवतीचरण क्रान्तिकारी भावनाओं से प्रेरित होकर कम्युनिस्ट समूहों के क़रीब आ गये थे और यूरोप से सभी अख़बार उनके पते पर मँगाये जाते थे। वह कार्ल मार्क्स और लेनिन को अपना ‘राजनीतिक गुरु और गाइड’ मानते थे। समाजवाद में उनकी अडिग आस्था थी।…
एक और इतनी ही महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भगतसिंह और उनके साथी पार्टी के दूसरे सदस्यों को भी समाजवाद के आदर्शों और उसूलों को समझने में मदद करने के लिए कड़ी मेहनत करते थे। नौजवान भारत सभा का गठन मुख्यतः समाजवाद के आदर्शों का प्रचार करने, मज़दूरों और किसानों को संगठित करने और इस तरह क्रान्तिकारी उभार की रफ़्तार तेज़ करने के लिए किया गया था। भगतसिंह ने लाहौर की अदालत में दिये गये अपने इस बयान के ज़रिये विचारों के महत्त्व पर बल दिया था कि ”क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है”। भगवानदास माहौर ने भी लिखा है कि किस तरह भगतसिंह उनसे मार्क्स की ‘पूँजी’ और दूसरी किताबें पढ़ने के लिए आग्रह करते रहते थे।
बेहिचक यह कहा जा सकता है कि एच.एस.आर.ए. के सदस्यों ने समाजवाद और मार्क्सवाद की ख़ासी अच्छी समझ विकसित कर ली थी। उन्हें जितना थोड़ा समय मिला था उसमें बेशक वे बड़े विद्वान नहीं बने होंगे लेकिन वे महज़ नौसिखुए भी नहीं थे। उन्होंने कुछ दूरी तय की थी और अध्ययन करते और सोचते-विचारते हुए भारतीय क्रान्ति की समस्याओं की वैज्ञानिक समाजवादी समझ की ओर धीरे-धीरे क़दम बढ़ा रहे थे। भगतसिंह के अन्तिम सन्देश से लगता है कि उन्होंने यह समझ लिया था कि समाजवादी व्यवस्था किसी वांछित व्यवस्था के लिए महज़ आत्मगत चाहत से नहीं पैदा हो सकती बल्कि यह सामाजिक परिस्थितियों की अपरिहार्यता की वस्तुगत पैदावार होती है।… अपने साथ जेल में मृत्युदण्ड की प्रतीक्षा कर रहे सुखदेव के मन में लक्ष्य को लेकर सन्देह उठने पर उन्हें लिखे ख़त में भगतसिंह ने कहा था :
”यदि हम इस क्षेत्र में न उतरे होते, तो क्या कोई भी क्रान्तिकारी कार्य कदापि नहीं हुआ होता? यदि ऐसा है तो आप भूल कर रहे हैं। यद्यपि यह ठीक है कि हम भी वातावरण को बदलने में बड़ी सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं, तथापि हम तो केवल अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं। मैं तो यह भी कहूँगा कि साम्यवाद के जन्मदाता मार्क्स, वास्तव में इस विचार को जन्म देने वाले नहीं थे। असल में यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति ने ही एक विशेष प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति उत्पन्न किये थे। उनमें मार्क्स भी एक थे। हाँ, अपने स्थान पर मार्क्स भी निस्सन्देह कुछ सीमा तक समय के चक्र को एक विशेष प्रकार की गति देने में आवश्यक सहायक सिद्ध हुए हैं। मैंने (और आपने भी) इस देश में समाजवाद और साम्यवाद के विचारों को जन्म नहीं दिया, वरन यह तो हमारे ऊपर हमारे समय एवं परिस्थिति के प्रभाव का परिणाम है। निस्सन्देह हमने इन विचारों का प्रचार करने के लिए कुछ साधारण एवं तुच्छ कार्य अवश्य किया है।”
चन्द्रशेखर आज़ाद 1930 में नेहरू से मिले थे और उनकी बातचीत के दौरान नेहरू ने आज़ाद से पूछा था कि वह किस तरह के समाजवादी थे? आज़ाद ने जवाब दिया कि वह वैज्ञानिक समाजवाद में यक़ीन करते हैं और जो लोग कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों को मानते हैं वे उनके आन्दोलन में रह सकते हैं। एच.एस.आर.ए. का नेतृत्व स्पष्ट तौर पर यह समझता था कि समाजवाद ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है और इसलिए व्यवस्था के तौर पर वह पूँजीवाद का नकार है। इसलिए समाजवाद लाने की पूर्वशर्त है पूँजीवाद का ख़ात्मा।
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 6 जून, 1929 के अपने साझा बयान में इस मुद्दे को और साफ़ किया :
”समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मज़दूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुँहताज हैं। दुनियाभर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढँकनेभर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं। …देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्त्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें।”
… अपने एक पर्चे में एच.एस.आर.ए. ने कहा था :
अगर हम इस लुटेरी अंग्रेज़ सरकार को देश से खदेड़ दें, तो हम पूँजीवाद के अत्याचार का आसानी से ख़ात्मा कर सकते हैं, और अगर हम पूँजीवाद को मिटा देंगे, तो अंग्रेज़ सरकार इस देश में टिकी नहीं रह पायेगी।… एच.एस.आर.ए. का मानना है कि ब्रिटिश सरकार को यहाँ से भगाने का सबसे आसान और सबसे अच्छा तरीक़ा है समाजवाद क़ायम करना, जो क्रान्ति के बिना नहीं हो सकता।
आगे इसमें कहा गया :
हम मनुष्य द्वारा मनुष्य के या एक नस्ल द्वारा दूसरी नस्ल के साथ किये जाने वाले अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ हैं। हिंसा और अन्याय को ख़त्म करने के लिए, हम समाजवादी क्रान्तिकारी पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को पीछे धकेलने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं।
…वे जानते थे कि जब तक राज्य की मशीनरी शोषक वर्गों के हाथों में रहेगी तब तक समाजवाद दूर का सपना ही बना रहेगा। अक्टूबर 1930 में जेल से दिये एक सन्देश में भगतसिंह ने कहा था :
”क्रान्ति से हमारा अर्थ है – वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना। इसके लिए, राज्यसत्ता पर अधिकार करना ज़रूरी है। अभी राज्य मशीनरी एक विशेष सुविधा-प्राप्त वर्ग के हाथों में है। जनता के हितों की रक्षा और अपने आदर्श को यथार्थ में बदलना, यानी कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुसार समाज की नींव रखना – इन सबके लिए यह ज़रूरी है कि इस मशीनरी पर हमारा ही अधिकार हो।”
राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपने सन्देश में भगतसिंह ने क्रान्ति और समाजवाद के मुद्दे पर स्पष्ट तरीक़े से अपनी बात कही थी। फाँसी पर लटकाये जाने के क़रीब एक महीना पहले दिये गये इस सन्देश में उन्होंने नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं से कहा था :
”हम समाजवादी क्रान्ति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी ज़रूरत राजनीतिक क्रान्ति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रान्ति का अर्थ राज्यसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताक़त) का अंग्रेज़ी हाथों से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अन्तिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो – राज्यसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा।”
…एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों की इस बढ़ती समाजवादी चेतना के कारण वे विदेशी और देशी पूँजीवाद के रिश्तों को समझ सकते थे। वे विदेशी पूँजीपतियों के साथ भारतीय पूँजीपति वर्ग के समझौतावादी, दलाली के सम्बन्ध को साफ़ तौर पर देख रहे थे, जो दोनों मिलकर जनता से उसका हक़ छीन रहे थे। वे मानते थे कि हिन्दुस्तान को एक वर्ग ने गुलाम बनाया है – जिसमें भारतीय और विदेशी दोनों शोषक शामिल हैं। यह समझदारी अनेक नारों और पर्चों में झलकती है जिनमें कहा गया है कि आज़ादी और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे के बीच सीधा रिश्ता है। देशी शोषकों से भी उनका सामना हुआ और उन्होंने साफ़ कहा कि जनता के हितों के लिए वे भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने कि विदेशी पूँजीवादी शासक। एच.एस.आर.ए. के घोषणापत्र ने साफ़ तौर पर यह भी कहा :
”भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गम्भीर है। उसके सामने दोहरा ख़तरा है – विदेशी पूँजीवाद का एक तरफ़ से और भारतीय पूँजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ़ से। भारतीय पूँजीवाद विदेशी पूँजी के साथ हर रोज़ बहुत से गँठजोड़ कर रहा है। कुछ राजनीतिक नेताओं का डोमिनियन (प्रभुतासम्पन्न) का दर्जा स्वीकार करना भी हवा के इसी रुख़ को स्पष्ट करता है। …भारतीय पूँजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूँजीपति से विश्वासघात की क़ीमत के रूप में सरकार में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है।”
जेल से भेजे अपने सन्देश में भगतसिंह ने लिखा था कि, ”किसानों को सिर्फ़ विदेशी शासन के जुवे से ही नहीं बल्कि ज़मींदारों और पूँजीपतियों के जुवे से भी ख़ुद को आज़ाद कराना है”। 3 मार्च, 1931 के अपने सन्देश में उन्होंने और भी साफ़ तौर पर कहा :
”युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है – चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति हों या अंग्रेज़ और भारतीय पूँजीपतियों का गँठजोड़ हो, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।”
शोषण का ख़ात्मा और मज़दूरों-किसानों के समाजवादी राज्य की स्थापना सिर्फ़ उपरोक्त वर्गों को संगठित करके ही सम्भव थी। एच.एस.आर.ए. ने इस सवाल पर विचार किया : क्रान्ति के लिए कौन लड़ेगा या आन्दोलन का सामाजिक आधार क्या होगा? वे इस सच्चाई से वाकि़फ़ थे कि उनका आन्दोलन जनसाधारण – मज़दूरों, किसानों और रैडिकल बुद्धिजीवियों को संगठित करने पर आधारित होगा। वे मानते थे कि ”मज़दूर ही वास्तव में समाज को पालता है। जनता की सम्प्रभुता ही मज़दूरों की अन्तिम नियति है”। जनवरी 1930 में कानपुर में हुई एच.एस.आर.ए. की केन्द्रीय कमेटी की बैठक, जिसमें औरों के साथ चन्द्रशेखर आज़ाद, भगवतीचरण वोहरा, यशपाल और कैलाशपति ने हिस्सा लिया था, में विद्यार्थियों, किसानों और मज़दूरों के बीच काम तेज़ करने और इस मक़सद से पार्टी का एक अलग हिस्सा गठित करने का निर्णय लिया गया जिसके अध्यक्ष दामोदर स्वरूप और सचिव भगवतीचरण होंगे।
…क्रान्तिकारियों का मानना था कि ”अगर मज़दूर वर्ग या उत्पीड़ित किसान अपने आर्थिक हितों का ख़याल रखते हैं तो उनमें से कोई भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से समझौते के बारे में सोच भी नहीं सकता”। दूसरी ओर वे जानते थे कि भारतीय पूँजीपति कभी भी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में शामिल नहीं हो सकते क्योंकि उन्हें ख़ुद को बनाये रखने के लिए साम्राज्यवाद के समर्थन की ज़रूरत है। इस तरह, एच.एस.आर.ए. और नौजवान भारत सभा का काम समाज के इन उत्पीड़ित तबक़ों की क्षमता और उनके बीच अपना सामाजिक आधार बढ़ाने की उत्सुकता को प्रतिबिम्बित करता है। नौजवान भारत सभा ने इस दिशा में कुछ काम किया और मज़दूरों-किसानों को गोलबन्द करने की कोशिशें कीं। इन दोनों तबक़ों को सभा की गतिविधियों में शामिल होने के लिए विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया। सभा ने स्पष्ट घोषणा की कि वह जनसभाएँ करने के मुक़ाबले मज़दूरों-किसानों को संगठित करने में ज़्यादा विश्वास करती है। नौजवान भारत सभा ने 1931 के दिल्ली समझौते की निन्दा की क्योंकि इससे मज़दूरों और किसानों को कुछ नहीं मिला था। सभा ने 1929 में कई किसान आन्दोलनों में हिस्सा लिया और देश के लाखों नौजवानों का आह्वान किया कि वे रूसी नौजवानों की तरह गाँवों में जीवन बितायें। उन्हें वहाँ भारत में आने वाली क्रान्ति के असली मायने समझाने थे। गाँववालों को यह समझाना और महसूस कराना था कि नयी क्रान्ति से महज़ शासन करने वालों की अदला-बदली नहीं होगी। वह पूरी तरह नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था क़ायम करने का काम करेगी।
…
एच.एस.आर.ए. भारतीय समाज में फैली हर कि़स्म की संकीर्णता, रूढ़िवाद और धार्मिक उन्माद के ख़िलाफ़ था। शुरुआती क्रान्तिकारी आन्दोलनों के विपरीत धर्म को इसके संगठनकर्ताओं के सेक्युलर और राष्ट्रीय दृष्टिकोण पर प्रधानता नहीं दी जाती थी जो देश के अलग-अलग धार्मिक समूहों से आते थे। रूढ़िवादी और सामाजिक भेदभाव पैदा करने वाली जातिवादी सोच को दूर करने और लोगों में स्वस्थ सेक्युलर राष्ट्रीय भावनाएँ विकसित करने के लिए नौजवान भारत सभा सामाजिक मेल-जोल के आयोजन करती थी और सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर व्याख्यान करवाती थी।
…
एच.एस.आर.ए. के ‘बम का दर्शन’ में भी कहा गया कि ”आज की तरुण पीढ़ी को जो मानसिक गुलामी तथा धार्मिक रूढ़िवादी बन्धन जकड़े हैं उनसे छुटकारा पाने के लिए तरुण समाज की जो बेचैनी है, क्रान्तिकारी उसी में आने वाली क्रान्ति के अंकुर देख रहा है।”
समय बीतने के साथ एच.एस.आर.ए. के नेताओं का यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण परिपक्व होता गया। उनकी बहुसंख्या कम्युनिज़्म के आदर्शों के क़रीब आ गयी, जो व्यक्तिगत आतंकवादी कार्रवाइयों के बजाय जनता की कार्रवाई में भरोसा करता था।15 चन्द्रशेखर आज़ाद भी यह महसूस करते थे कि ”इस सोच में कुछ तो गड़बड़ है कि मुट्ठीभर बहादुर और आत्म-बलिदानी नौजवानों का दल अपनी कार्रवाइयों से पूरे राष्ट्रीय आन्दोलन को क्रान्तिकारी दिशा दे सकता है।”16 वह व्यापक जनान्दोलन की आवश्यकता और गुप्त आतंकवादी गतिविधियों की निरर्थकता के कायल हो चुके थे।18 आज़ाद यह मानते थे कि ”हमारे काम में कहीं कुछ गड़बड़ी ज़रूर थी जिसकी वजह से उतना काम और बलिदान करने पर भी पूरे राष्ट्रीय आन्दोलन को हम क्रान्तिकारी दिशा नहीं दे सके थे।”19 सुखदेव ने भी साथियों को लिखे पत्र में ऐसा ही कहा है और यह साफ़ कर दिया है कि अब गुप्त गतिविधियाँ बन्द हो जानी चाहिए और खुला काम शुरू कर दिया जाना चाहिए क्योंकि अब जनता उनके आदर्शों को समझती है। अब बम धमाकों की ज़रूरत नहीं है। भगतसिंह ने जेल में कार्ल मार्क्स और लेनिन को पढ़ा था और रूस में बोल्शेविक क्रान्ति की कामयाबी का विस्तृत अध्ययन किया था। भारत में संघर्ष की सही राह क्या हो इसे लेकर बुनियादी सवाल उनके सामने उपस्थित थे। भविष्य के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ढाँचे का चरित्र और स्वरूप क्या होना चाहिए? क्या गोरे आक़ाओं को उखाड़ फेंकने के बाद सत्ता की चाभी राजे-रजवाड़ों, नवाबों, सामन्तों, पुरोहितों, पूँजीपतियों और सूदख़ोरों के हाथ में रहेगी? भगतसिंह सोचते थे कि ये तत्त्व भारत में ब्रिटिश सत्ता के सबसे बड़े पिछलग्गू और सामाजिक आधार थे और जनता का शोषण करने और उसे दबाने-कुचलने में उनका साथ देते थे। भगतसिंह ने अच्छी तरह यह समझ लिया था कि साम्राज्यवाद के इन चाकरों को दूर किये बिना भारत की आज़ादी सिर्फ़ अमीरों, सम्प्रदायवादियों, दलालों-ग़द्दारों और ऊँची जातियों के अमीर तबक़ों के लिए रह जायेगी, और 95 प्रतिशत ग़रीब और कमज़ोर लोगों को इससे कुछ नहीं मिलेगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2017
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