Category Archives: महान जननायक

अय्यंकालि के स्मृति दिवस पर – जाति-उन्मूलन आन्दोलन को अय्यंकालि से सीखना होगा

कई जाति-विरोधी व्यक्तित्वों को ख़ुद भारत की सरकार ने आज़ादी के बाद से ही प्रचारित-प्रसारित किया है लेकिन अय्यंकालि को नहीं। क्यों? क्योंकि अय्यंकालि आमूलगामी तरीक़े से और जुझारू तरीक़े से सड़क पर उतरकर संघर्ष का रास्ता अपनाते थे; क्योंकि अय्यंकालि सरकार की भलमनसाहत या समझदारी के भरोसे नहीं थे, बल्कि जनता की पहलक़दमी पर भरोसा करते थे। वह कोई सुधारवादी या व्यवहारवादी नहीं थे, बल्कि एक रैडिकल जाति-विरोधी योद्धा थे। यही कारण है कि सरकार अय्यंकालि के रास्ते और विचारों के इस पक्ष को हमसे बचाकर रखती है। क्योंकि यदि मेहनतकश दलित और दमित जनता उनके बारे में जानेगी, तो उनके रास्ते के बारे में भी जानेगी और यह मौजूदा पूँजीवादी व जातिवादी सत्ता ऐसा कभी नहीं चाहेगी कि उसके विरुद्ध रैडिकल संघर्ष के रास्ते को जनता जाने और अपनी पहलक़दमी में भरोसा पैदा करे। यही कारण है कि अय्यंकालि की विरासत को जनता की शक्तियों को याद करना चाहिए। उनकी स्मृतियों को, प्रगतिशील ताक़तों को जीवित रखना चाहिए। उनके आन्दोलन के रास्ते को व्यापक मेहनतकश और दलित जनता में हमें ले जाना होगा। केवल ऐसा करके ही हम अय्यंकालि को सच्ची आदरांजलि दे सकते हैं। उनको याद करने का यही सबसे बेहतर तरीक़ा हो सकता है।

सारी दुनिया के मज़दूरों के नेता और शिक्षक कार्ल मार्क्स के जन्मदिवस (5 मई) पर

मज़दूरी की दर अपेक्षाकृत ऊँची होने के बावजूद श्रम की उत्पादन-शक्ति के बढ़ने से पूँजी का संचय तेज़ हो जाता है। इससे एडम स्मिथ की तरह, जिसके ज़माने में आधुनिक उद्योग अपने बाल्य-काल में ही था, कोई यह नतीजा निकाल सकता है कि पूँजी का संचय तेज़ होने से मज़दूर का पलड़ा भारी हो जायेगा, क्योंकि उसके श्रम की माँग बढ़ेगी। इसी दृष्टिकोण से सोचते हुए बहुत-से तत्कालीन लेखकों ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया है कि यद्यपि पिछले बीस वर्षों में अंग्रेज़ पूँजी इंग्लैण्ड की आबादी के मुक़ाबले में बहुत तेज़ी से बढ़ी है, पर मज़दूरी बहुत नहीं बढ़ी।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत (23 मार्च) की 91वीं बरसी पर

इलाहाबाद में संगम के बग़ल में बसी हुई मज़दूरों-मेहनतकशों की बस्ती में विकास के सारे दावे हवा बनकर उड़ चुके हैं। आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर सरकार अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे के तहत जगह-जगह अन्धराष्ट्रवाद की ख़ुराक परोसने के लिए अमृत महोत्सव मना रही है वहीं दूसरी ओर इस बस्ती को बसे 50 साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें, जैसे पानी, सड़कें, शौचालय, बिजली, स्कूल आदि तक नहीं हैं।

तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के 75 साल उपलब्धियाँ और सबक़ (दूसरी व अन्तिम क़िस्त)

पिछली क़िस्त में हमने देखा कि किस प्रकार 1940 के दशक की शुरुआत में हैदराबाद के निज़ाम की सामन्ती रियासत में आने वाले तेलंगाना के जागीरदारों और भूस्वामियों द्वारा किसानों के ज़बर्दस्त शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध शुरू हुआ आन्दोलन 1946 की गर्मियों तक आते-आते सामन्तों के ख़िलाफ़ एक सशस्त्र विद्रोह में तब्दील हो गया। निज़ाम की सेना और रज़ाकारों द्वारा इस विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचलने की सारी कोशिशें विफल साबित हुईंं।

तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के 75 साल उपलब्धियाँ और सबक़ (पहली क़िस्त)

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चले तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष (तेलुगु में ‘तेलंगाना रैतुंगा सायुध पोराटम’) की शानदार विरासत को भारत के हुक्मरानों द्वारा साज़िशाना ढंग से छिपा देने की वजह से देश के अन्य हिस्सों में आमजन तेलंगाना के किसानों और मेहनतकशों की इस बहादुराना बग़ावत से अनजान हैं, हालाँकि तेलंगाना में यह शौर्यगाथा लोकसंस्कृति के तमाम रूपों में जनमानस के बीच आज भी ज़िन्दा है।

मेहनतकश जनता के सच्चे लेखक मक्सिम गोर्की के स्मृति दिवस पर एक साहित्यिक परिचय

दुनिया में ऐसे लेखकों की कमी नहीं, जिन्हें पढ़ाई-लिखाई का मौक़ा मिला, पुस्तकालय मिला, शान्त वातावरण मिला, जिसमें उन्होंने अपनी लेखनी की धार तेज़ की। लेकिन बिरले ही ऐसे लोग होंगे जो समाज के रसातल से उठकर आम-जन के सच्चे लेखक बने। मक्सिम गोर्की ऐसे ही लेखक थे।

जन्मदिवस (14 जून) के अवसर पर क्यूबा की क्रान्ति के नायक चे ग्वेरा को याद करते हुए कुछ कविताएँ

जन्मदिवस (14 जून) के अवसर पर क्यूबा की क्रान्ति के नायक चे ग्वेरा को याद करते हुए कुछ कविताएँ चे कमांडेंट – निकोलस गिएन (1902-1989), क्यूबा के राष्ट्रकवि यद्यपि बुझा…

मई दिवस की कहानी

मज़दूरों का त्योहार मई दिवस आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों के शानदार आन्दोलन से पैदा हुआ। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर 16-18 घण्टे तक खटते थे। कई देशों में काम के घण्टों का कोई नियम ही नहीं था। “सूरज उगने से लेकर रात होने तक” मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे। दुनियाभर में इस माँग को लेकर अलग-अलग आन्दोलन होते रहे थे। भारत में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस माँग पर कामबन्दी की थी। लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई।

अपने-अपने मार्क्स

हर साल की तरह इस साल भी कार्ल मार्क्स के 203वें जन्मदिवस के अवसर पर बहुत सारे बुर्जुआ लिबरल्स, सोशल डेमोक्रेट्स और संसदीय जड़वामन वामपन्थियों ने भी उन्हें बहुत याद किया और भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दीं। इन सबके अपने-अपने मार्क्स हैं जो वास्तविक मार्क्स से एकदम अलग हैं।

नाज़ी-विरोधी योद्धा सोफ़ी शोल की 100वीं जन्मतिथि के अवसर पर

हिटलर और उसके नाज़ी शासन ने लाखों यहूदियों को तो मौत के घाट उतारा ही था, उसके बर्बर शासन के विरुद्ध लड़ने वाले, किसी भी रूप में उसका विरोध करने वाले 77 हज़ार अन्य जर्मन नागरिकों की भी हत्या की थी। इन नाज़ी-विरोधी योद्धाओं को फ़ौजी अदालतों और तथाकथित ‘जन न्यायालयों’ में मुक़दमे के नाटक के बाद गोली से उड़ा दिया गया या मध्ययुगीन बर्बर गिलोतीन से गर्दन काटकर मौत की सज़ा दी गयी। इन्हीं में से एक नाम था सोफ़ी शोल का जिसे 22 साल की उम्र में गिलोतीन से मार दिया दिया। उसके साथ उसके भाई हान्स शोल और साथी क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट को भी गिलोतीन पर चढ़ा दिया गया।