लेनिन की कविता की कुछ पक्तियाँ
”पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल
आज नष्ट हो गये हैं
अँधेरे की दुनिया के स्वामी
रोशनी की दुनिया का खौफ़ देख ख़ुश हैं
मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है
”पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल
आज नष्ट हो गये हैं
अँधेरे की दुनिया के स्वामी
रोशनी की दुनिया का खौफ़ देख ख़ुश हैं
मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है
वर्तमान परिस्थिति पर हम कुछ हद तक विचार कर चुके हैं, लक्ष्य-सम्बन्धी भी कुछ चर्चा हुई है। हम समाजवादी क्रान्ति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी ज़रूरत राजनीतिक क्रान्ति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रान्ति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताक़त) का अंग्रेज़ी हाथों में से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अन्तिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो — राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा।
यह भयानक असमानता और ज़बरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिये जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक क़ायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं।
“लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं। हम अपने को विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं। मज़दूर-राज की जीत हो। सरमायादारी का नाश हो।
लाहौर के स्पेशल मजिस्ट्रेट की अदालत में “इंक़लाब ज़िन्दाबाद” नारा लगाने के जुर्म में छात्रों की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ गुजराँवाला में नौजवान भारत सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया। ‘मॉडर्न रिव्यू’ के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय ने इस ख़बर के आधार पर “इंक़लाब ज़िन्दाबाद” के नारे की आलोचना की। भगतसिंह और बी.के. दत्त ने जेल से ‘मॉडर्न रिव्यू’ के सम्पादक को उनके उस सम्पादकीय का निम्नलिखित उत्तर दिया था। – स.
दोस्तो! आज हमारा समाज एक बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। यही वो हालात होते हैं जब समाज के अन्दर से बिस्मिल, अशफ़ाक, आज़ाद, सराभा और भगतसिंह जैसे नायक पैदा होते हैं। निश्चित तौर पर हमारे वो महान शहीद भी अवतार और मसीहा नहीं बल्कि परिस्थितयों की ही पैदावार थे। जैसा कि भगतसिंह ने कहा है ‘बम और पिस्तौल इन्क़लाब नहीं लाते बल्कि इन्क़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।’ आज जनता को जगाने का काम, जातिवाद-साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहे लोगों को असल समस्याओं के प्रति शिक्षित, जागरूक और संगठित करने का काम ही सबसे महत्त्वपूर्ण काम है। जान की बाजी लगाकर जनता के प्रति अपनी सच्ची मोहब्बत सिद्ध कर देने वाले हमारे महान शहीदों को आज की युवा पीढ़ी की यही असल सलामी हो सकती है।
लेनिन का स्कूल, जो लोंजूमो की सड़क के दूसरे छोर पर था, एक निराले तरह का स्कूल था, देखने में भी वह और स्कूलों की तरह नहीं था। पहले यहाँ एक सराय हुआ करती थी। पेरिस जाते हुए डाकगाड़ियाँ यहाँ रुका करती थीं। गाड़ीवान आराम करते थे, घोड़ों को दाना-पानी देते थे। मगर यह बहुत पहले की बात थी…
व्लादीमिर इलिच को उस हर छोटी बात में दिलचस्पी थी, जो मज़दूरों की जि़न्दगी और उनके हालात की तस्वीर को उभारने में मदद कर सके और जिसके सहारे वे क्रान्तिकारी प्रचार कार्य के लिए मज़दूरों से सम्पर्क क़ायम कर सकें। उस ज़माने के अधिकांश बुद्धिजीवी मज़दूरों को अच्छी तरह नहीं जानते थे। वे किसी अध्ययन मण्डल में आते और मज़दूरों के सामने एक तरह का व्याख्यान पढ़ देते। एंगेल्स की पुस्तक ”परिवार व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति” का हस्तलिखित अनुवाद बहुत दिनों तक गोष्ठियों में घूमता रहा। व्लादीमिर इलिच मज़दूरों को मार्क्स का ग्रन्थ पूँजी पढ़कर सुनाते और उसे समझाते। वे अपने पाठ का आधा समय मज़दूरों से उनके काम और मज़दूरी के हालात के विषय में पूछने पर लगाते। और इस प्रकार उन्हें दिखाते और बताते कि उनकी जि़न्दगी समाज के पूरे ढाँचे के लिए क्या महत्त्व रखती है तथा वर्तमान व्यवस्था को बदलने का उपाय क्या है? अध्ययन मण्डलों में सिद्धान्त को व्यवहार से इस प्रकार जोड़ना व्लादीमिर इलिच के कार्य की विशेषता थी। धीरे-धीरे हमारे अध्ययन मण्डलों के अन्य सदस्यों ने भी यह तरीक़ा अपना लिया।
आज जब संघी फासीवादी जातिप्रथा व पितृसत्ता के आधार पर व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से दलितों, स्त्रियों व अल्पसंख्यकों पर हमले तीव्र कर रहे हैं, खाने-पीने-जीवनसाथी चुनने व प्रेम के अधिकार को भी छीनने की कोशिश कर रहे हैं, तब फुले को याद करने का विशेष औचित्य है। ब्राह्मणवाद व पूँजीवाद विरोधी संघर्ष तेज़ करके ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है व उनके सपनों का समाज बनाया जा सकता है।
एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों की इस बढ़ती समाजवादी चेतना के कारण वे विदेशी और देशी पूँजीवाद के रिश्तों को समझ सकते थे। वे विदेशी पूँजीपतियों के साथ भारतीय पूँजीपति वर्ग के समझौतावादी, दलाली के सम्बन्ध को साफ़ तौर पर देख रहे थे, जो दोनों मिलकर जनता से उसका हक़ छीन रहे थे। वे मानते थे कि हिन्दुस्तान को एक वर्ग ने गुलाम बनाया है – जिसमें भारतीय और विदेशी दोनों शोषक शामिल हैं। यह समझदारी अनेक नारों और पर्चों में झलकती है जिनमें कहा गया है कि आज़ादी और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे के बीच सीधा रिश्ता है। देशी शोषकों से भी उनका सामना हुआ और उन्होंने साफ़ कहा कि जनता के हितों के लिए वे भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने कि विदेशी पूँजीवादी शासक।