Category Archives: महान जननायक

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के 90वें शहादत दिवस (23 मार्च) के अवसर पर

‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ क्रान्तिकारियों के लिए महज़ एक भावनात्मक रणघोष नहीं था बल्कि एक उदात्त आदर्श था जिसकी व्याख्या हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) ने इस रूप में की:
“क्रान्ति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। …उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा।”

चिंगारी से भड़केंगी ज्वालाएँ (लेनिन के कुछ रोचक संस्मरण)

रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन के कुछ रोचक संस्मरण, मज़दूर संघर्षों को एक सूत्र में पिरोने वाले इन्क़लाबी अख़बार ‘ईस्क्रा’ की तैयारी के सम्बन्ध में

एक महान क्रान्तिकारी की आख़ि‍री लड़ाई और उसकी याद के आईने में हमारा समय

13 सितम्बर को यतीन्द्रनाथ दास की शहादत को 91 बरस हो गये। उनकी लड़ाई अंग्रेज़ों की जेल में राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के लिए थी। मगर जिस आज़ाद हिन्दुस्तान के लिए तिल-तिलकर भूख से मरने का रास्ता जतिन ने चुना था, क्या वह हमें मिला?

काकोरी के शहीदों की क़ुर्बानी हमें आवाज़ दे रही है

काकोरी काण्ड के शहीदों और उनके द्वारा स्थापित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की विरासत को भगतसिंह-आज़ाद और उनके साथियों ने आगे बढ़ाया और आज़ादी के पौधे को उन्हीं की तरह अपने रक्त से सींचा। उन सभी क्रान्तिकारियों का सपना एक ऐसे आज़ाद देश का निर्माण करना था जहाँ ऊँच-नीच, जाति-धर्म, मालिक-मजूर, किसी तरह की ग़ैरबराबरी नहीं होगी।

कार्ल लीब्कनेख़्त और रोज़ा लग्ज़म्बर्ग : जीवन के अन्तिम घण्टे

हत्यारे काम में लगे हैं, उनके दुश्मन अब उनके क़ब्ज़े में हैं। उनकी नज़र में लीब्कनेख़्त है एक यहूदी, लीब्कनेख़्त, स्पार्टकस लीग वाला, लीब्कनेख़्त, आन्दोलनकर्ता और विद्रोही, वह शख्स जिसका कोई देश नहीं, वह शख्स जो सबकुछ बराबर कर देना चाहता है, वह व्यक्ति जो औरतों का राष्ट्रीकरण कर देना चाहता है, वह व्यक्ति जो पैसों को ख़त्म कर देना चाहता है। वहीं लीब्कनेख़्त अब उनके कब्ज़े में है।

वे हमारे नेताओं की हत्या कर सकते हैं पर उनके विचारों को कभी नहीं मिटा सकते!

महान कम्युनिस्ट नेत्री और सिद्धान्तकार रोज़ा ने दूसरे इण्टरनेशनल के काउत्स्कीपंथी संशोधनवादियों और अन्ध-राष्ट्रवादियों के विरुद्ध जमकर सैद्धान्तिक-राजनीतिक संघर्ष किया और मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु की हिफ़ाज़त की। साम्राज्यवाद की सैद्धान्तिक समझ बनाने में उनसे कुछ चूकें हुईं और बोल्शेविक पार्टी-सिद्धान्तों और सर्वहारा सत्ता की संरचना और कार्य-प्रणाली पर भी लेनिन से उनके कुछ मतभेद थे (जिनमें से अधिकांश बाद में सुलझ चुके थे और रोज़ा अपनी गलती समझ चुकी थीं), लेकिन रोज़ा अपनी सैद्धांतिक चूकों के बावजूद, अपने युग की एक महान कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेत्री थीं।

शहीद उधम सिंह के 78वें शहादत दिवस (31 जुलाई 1940) के अवसर पर! शहीद उधम सिंह उर्फ़ राम मोहम्मद सिंह आज़ाद अमर रहें !

उधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे, इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘राम मोहम्मद सिंह आज़ाद’ रख लिया था। वे इसी नाम से पत्र-व्यवहार किया करते थे और यही नाम उन्होंने अपने हाथ पर भी गुदवा लिया था। उन्होंने वसीयत की थी कि फाँसी के बाद उनकी अस्थियों को तीनों धर्मों के लोगों को सौंपा जाये। अंग्रेज़ों ने इस जाँबाज को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर लटका दिया। उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब प्रान्त के संगरूर जि़ले के सुनाम गाँव हुआ था। छोटी उम्र में ही माँ-बाप और बड़े भाई की मृत्यु की वजह से वह अनाथ हो गये। उनका लालन-पोषण अनाथालय में हुआ। इसके बावजूद भी जीवन के मुश्किल हालात उनके इरादों को डगमगा नही पाये। मैट्रिक की पढ़ाई कर उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर जंग-ए-आज़ादी के मैदान में कूद पड़े। 1924 में विदेशों में भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली क्रान्तिकारी गदर पार्टी में सक्रिय रहे और विदेशों में चन्दा जुटाने का काम किया। उधम सिंह ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए), इण्डियन वर्कर्स एसोसिएशन आदि क्रान्तिकारी संगठनों के साथ अलग-अलग समय पर काम भी किया।

आज़ाद ने मज़दूरों और ग़रीबों के जीवन को नज़दीक से देखा था और आज़ादी के बाद मज़दूरों के राज की स्थापना उनका सपना था

शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी-रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था। और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ पाये थे उतने को ही आज़ादी के ध्येय के साथ जीवन के सम्बल के रूप में उन्होंने पर्याप्त मान लिया था। वैज्ञानिक समाजवाद की बारीकियों को समझे बग़ैर भी वे अपने-आप को समाजवादी कहने में गौरव अनुभव करने लगे थे। यह बात आज़ाद ही नहीं, उस समय हम सब पर लागू थी। उस समय तक भगतसिंह और सुखदेव को छोड़कर और किसी ने न तो समाजवाद पर अधिक पढ़ा ही था और न मनन ही किया था। भगतसिंह और सुखदेव का ज्ञान भी हमारी तुलना में ही अधिक था। वैसे समाजवादी सिद्धान्त के हर पहलू को पूरे तौर पर वे भी नहीं समझ पाये थे। यह काम तो हमारे पकड़े जाने के बाद लाहौर जेल में सन 1929-30 में सम्पन्न हुआ। भगतसिंह की महानता इसमें थी कि वे अपने समय के दूसरे लोगों के मुक़ाबले राजनीतिक और सैद्धान्तिक सूझबूझ में काफ़ी आगे थे।

शहीद सुखदेव के जन्म स्थान नौघरा मोहल्ला में हुआ श्रद्धांजलि कार्यक्रम

15 मई को शहीद सुखदेव के जन्म स्थान नौघरा मोहल्ला, लुधियाना में बिगुल मज़दूर दस्ता, लोक मोर्चा पंजाब, इंक़लाबी केन्द्र पंजाब व इंक़लाबी लोक मोर्चा द्वारा संयुक्त तौर पर शहीद सुखदेव का जन्मदिन मनाया गया। घण्टाघर चौक के नज़दीक नगर निगम कार्यालय से लेकर नौघरा मोहल्ला तक पैदल मार्च किया गया। शहीद सुखदेव की यादगार पर लोगों ने श्रद्धांजलि फूल भेंट किये। इस अवसर पर बिगुल मज़दूर दस्ता के राजविन्दर, लोक मोर्चा पंजाब के कस्तूरी लाल, इंक़लाबी केन्द्र पंजाब के नेता कंवलजीत खन्ना व इंक़लाबी लोक मोर्चा के विजय नारायण ने सम्बोधित किया।

कविता : लेनिन की मृत्यु पर कैंटाटा / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट Poem : Cantata on the day of Lenin’s death / Bertolt Brecht

जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बताया: मैं
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्लाया: ‘इलिच
शोषक आ रहे हैं।’ वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।