Category Archives: महान जननायक

मई दिवस की कहानी

मज़दूरों का त्योहार मई दिवस आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों के शानदार आन्दोलन से पैदा हुआ। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर 16-18 घण्टे तक खटते थे। कई देशों में काम के घण्टों का कोई नियम ही नहीं था। “सूरज उगने से लेकर रात होने तक” मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे। दुनियाभर में इस माँग को लेकर अलग-अलग आन्दोलन होते रहे थे। भारत में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस माँग पर कामबन्दी की थी। लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई।

अपने-अपने मार्क्स

हर साल की तरह इस साल भी कार्ल मार्क्स के 203वें जन्मदिवस के अवसर पर बहुत सारे बुर्जुआ लिबरल्स, सोशल डेमोक्रेट्स और संसदीय जड़वामन वामपन्थियों ने भी उन्हें बहुत याद किया और भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दीं। इन सबके अपने-अपने मार्क्स हैं जो वास्तविक मार्क्स से एकदम अलग हैं।

नाज़ी-विरोधी योद्धा सोफ़ी शोल की 100वीं जन्मतिथि के अवसर पर

हिटलर और उसके नाज़ी शासन ने लाखों यहूदियों को तो मौत के घाट उतारा ही था, उसके बर्बर शासन के विरुद्ध लड़ने वाले, किसी भी रूप में उसका विरोध करने वाले 77 हज़ार अन्य जर्मन नागरिकों की भी हत्या की थी। इन नाज़ी-विरोधी योद्धाओं को फ़ौजी अदालतों और तथाकथित ‘जन न्यायालयों’ में मुक़दमे के नाटक के बाद गोली से उड़ा दिया गया या मध्ययुगीन बर्बर गिलोतीन से गर्दन काटकर मौत की सज़ा दी गयी। इन्हीं में से एक नाम था सोफ़ी शोल का जिसे 22 साल की उम्र में गिलोतीन से मार दिया दिया। उसके साथ उसके भाई हान्स शोल और साथी क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट को भी गिलोतीन पर चढ़ा दिया गया।

मज़दूर वर्ग की मुक्ति का दर्शन देने वाले महान क्रान्तिकारी चिन्तक कार्ल मार्क्स के स्मृति दिवस (14 मार्च) के अवसर पर

बुर्जुआ वर्ग ने ऐसे हथियारों को ही नहीं गढ़ा है जो उसका अन्त कर देंगे, बल्कि उसने ऐसे लोगों को भी पैदा किया है जो इन हथियारों का इस्तेमाल करेंगे – आधुनिक मज़दूर वर्ग – सर्वहारा वर्ग।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के 90वें शहादत दिवस (23 मार्च) के अवसर पर

‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ क्रान्तिकारियों के लिए महज़ एक भावनात्मक रणघोष नहीं था बल्कि एक उदात्त आदर्श था जिसकी व्याख्या हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) ने इस रूप में की:
“क्रान्ति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। …उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा।”

चिंगारी से भड़केंगी ज्वालाएँ (लेनिन के कुछ रोचक संस्मरण)

रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन के कुछ रोचक संस्मरण, मज़दूर संघर्षों को एक सूत्र में पिरोने वाले इन्क़लाबी अख़बार ‘ईस्क्रा’ की तैयारी के सम्बन्ध में

एक महान क्रान्तिकारी की आख़ि‍री लड़ाई और उसकी याद के आईने में हमारा समय

13 सितम्बर को यतीन्द्रनाथ दास की शहादत को 91 बरस हो गये। उनकी लड़ाई अंग्रेज़ों की जेल में राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के लिए थी। मगर जिस आज़ाद हिन्दुस्तान के लिए तिल-तिलकर भूख से मरने का रास्ता जतिन ने चुना था, क्या वह हमें मिला?

काकोरी के शहीदों की क़ुर्बानी हमें आवाज़ दे रही है

काकोरी काण्ड के शहीदों और उनके द्वारा स्थापित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की विरासत को भगतसिंह-आज़ाद और उनके साथियों ने आगे बढ़ाया और आज़ादी के पौधे को उन्हीं की तरह अपने रक्त से सींचा। उन सभी क्रान्तिकारियों का सपना एक ऐसे आज़ाद देश का निर्माण करना था जहाँ ऊँच-नीच, जाति-धर्म, मालिक-मजूर, किसी तरह की ग़ैरबराबरी नहीं होगी।

कार्ल लीब्कनेख़्त और रोज़ा लग्ज़म्बर्ग : जीवन के अन्तिम घण्टे

हत्यारे काम में लगे हैं, उनके दुश्मन अब उनके क़ब्ज़े में हैं। उनकी नज़र में लीब्कनेख़्त है एक यहूदी, लीब्कनेख़्त, स्पार्टकस लीग वाला, लीब्कनेख़्त, आन्दोलनकर्ता और विद्रोही, वह शख्स जिसका कोई देश नहीं, वह शख्स जो सबकुछ बराबर कर देना चाहता है, वह व्यक्ति जो औरतों का राष्ट्रीकरण कर देना चाहता है, वह व्यक्ति जो पैसों को ख़त्म कर देना चाहता है। वहीं लीब्कनेख़्त अब उनके कब्ज़े में है।

वे हमारे नेताओं की हत्या कर सकते हैं पर उनके विचारों को कभी नहीं मिटा सकते!

महान कम्युनिस्ट नेत्री और सिद्धान्तकार रोज़ा ने दूसरे इण्टरनेशनल के काउत्स्कीपंथी संशोधनवादियों और अन्ध-राष्ट्रवादियों के विरुद्ध जमकर सैद्धान्तिक-राजनीतिक संघर्ष किया और मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु की हिफ़ाज़त की। साम्राज्यवाद की सैद्धान्तिक समझ बनाने में उनसे कुछ चूकें हुईं और बोल्शेविक पार्टी-सिद्धान्तों और सर्वहारा सत्ता की संरचना और कार्य-प्रणाली पर भी लेनिन से उनके कुछ मतभेद थे (जिनमें से अधिकांश बाद में सुलझ चुके थे और रोज़ा अपनी गलती समझ चुकी थीं), लेकिन रोज़ा अपनी सैद्धांतिक चूकों के बावजूद, अपने युग की एक महान कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेत्री थीं।