उद्धरण
अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो, हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें – यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।
अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का जरा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो, हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें – यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।
हमारे देश में धर्म के नाम पर कुछ इने-गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए लोगों को लड़ाते-भिड़ाते हैं। धर्म और ईमान के नाम पर किये जाने वाले इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग होना चाहिए।
125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में कितने ऐसे लोग हैं जो भगतसिंह की क्रान्तिकारी राजनीति से परिचित हैं? क्या कारण है कि भगतसिंह की जेल डायरी तक उनकी शहादत के 63 साल बाद सामने आ सकी वह भी सरकारों के द्वारा नहीं बल्कि कुछ लोगों के प्रयासों से? क्या कारण है कि आज तक किसी भी सरकार ने भगतसिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी राजनीतिक विचारधारा को एक जगह सम्पूर्ण रचनावली के रूप में छापने का प्रयास तक नहीं किया? इन सभी कारणों का जवाब एक ही है कि भगतसिंह के विचार आज के शासक वर्ग के लिए भी उतने ही खतरनाक हैं जितने वे अंग्रेजों के लिए थे।
जिस वक़्त भगतसिंह और उनके साथी हँसते-हँसते मौत को गले लगा रहे थे, ठीक उस समय, 15-24 मार्च 1931 के बीच संघ के संस्थापकों में से एक बी.एस. मुंजे इटली की राजधानी रोम में मुसोलिनी और दूसरे फासिस्ट नेताओं से मिलकर भारत में उग्र हिन्दू फासिस्ट संगठन का ढाँचा खड़ा करने के गुर सीख रहे थे। जब शहीदों की क़ुर्बानी से प्रेरित होकर लाखों-लाख हिन्दू-मुसलमान-सिख नौजवान ब्रिटिश सत्ता से टकराने के लिए सड़कों पर उतर रहे थे तो संघ के स्वयंसेवक मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने और शाखाओं में लाठियाँ भाँजने में लगे हुए थे और जनता की एकता को कमज़ोर बनाकर गोरी सरकार की सेवा कर रहे थे।
कॉ. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्युनिस्ट संगठनकर्ता थीं, जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था। कम्युनिज़्म में अडिग आस्था के साथ उन्होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। एक व्यापारी और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद किया और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी। उन्होंने अपनी अन्तिम घड़ी तक माओ त्से-तुङ के इन शब्दों को सच्चे अर्थ में अपने जीवन में उतारने की कोशिश की: “एक कम्युनिस्ट को किसी भी समय और किसी भी परिस्थिति में अपने निजी हितों को प्रथम स्थान नहीं देना चाहिए; उसे इन्हें अपने राष्ट्र और आम जनता के हितों के मातहत रखना चाहिए। इसलिए स्वार्थीपन, काम में ढिलाई, भ्रष्टाचार, मशहूरी की ख़्वाहिश इत्यादि प्रवृत्तियाँ अत्यन्त घृणास्पद हैं, जबकि निःस्वार्थपन, भरपूर शक्ति से काम करना, जनता के कार्य में तन-मन से जुट जाना और चुपचाप कठोर परिश्रम करते रहना ऐसी भावनाएँ हैं जो इज़्ज़त पाने लायक हैं।”
फासीवाद जब भी हिंसा का इस्तेमाल करता है, उसका प्रतिकार सर्वहारा हिंसा द्वारा किया जाना चाहिए। यहाँ मेरा मतलब व्यक्तिगत आतंकवादी कार्रवाइयों से नहीं है, बल्कि सर्वहारा वर्ग के संगठित क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष की हिंसा से है। फैक्ट्री “हण्ड्रेड्स” को संगठित करके जर्मनी ने एक शुरुआत कर दी है। यह संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब एक सर्वहारा संयुक्त मोर्चा होगा। इस संघर्ष के लिए पार्टी-प्रतिबद्धताओं को लाँघकर मज़दूरों को एकजुट होना होगा। सर्वहारा संयुक्त मोर्चे की स्थापना के लिए सर्वहारा की आत्मरक्षा सबसे बड़े उत्प्रेरकों में से एक है। हर मज़दूर की आत्मा में वर्ग-चेतना को बैठाकर ही हम फासीवाद को सामरिक बल से उखाड़ फेंकने की तैयारी में भी सफल हो पायेंगे, जो कि इस मुकाम पर सर्वाधिक ज़रूरी है।
स्पेन का गृहयुद्ध सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का एक अद्भुत उदाहरण था जब फासिस्टों से गणतांत्रिक स्पेन की रक्षा करने के लिए पूरी दुनिया के 50 से अधिक देशों से कम्युनिस्ट कार्यकर्ता स्पेन पहुँचकर अन्तरराष्ट्रीय ब्रिगेडों में शामिल हुए थे। हज़ारों कम्युनिस्टों ने फासिस्टों से लड़ते हुए स्पेन में अपनी कुर्बानी दी थी। इनमें पूरी दुनिया के बहुत से श्रेष्ठ कवि, लेखक और बुद्धिजीवी भी थे। उस वक़्त जब दुनिया पर फासिज़्म का ख़तरा मँडरा रहा था, जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी दुनिया को विश्वयुद्ध में झोंकने की तैयारी कर रहे थे, ऐसे में स्पेन में फासिस्ट फ्रांको द्वारा सत्ता हथियाये जाने का मुँहतोड़ जवाब देना ज़रूरी था। जर्मनी और इटली की फासिस्ट सत्ताएँ फ्रांको का साथ दे रही थीं लेकिन पश्चिमी पूँजीवादी देश बेशर्मी से किनारा किये रहे और उसकी मदद भी करते रहे। केवल स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने फ्रांकों को परास्त करने का आह्वान किया और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के आह्वान पर हज़ारों- हज़ार कम्युनिस्टों ने स्पेन की मेहनतकश जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ते हुए बलिदान दिया।
जो आदमी यहाँ हिम्मत हार बैठता है और अपनी आत्मा को खो देता है, उसकी सूरत उस आदमी की अपेक्षा कहीं अधिक बुरी होती है जिसका शरीर यहाँ पंगु बना दिया गया है। यदि आपकी आँखों को यहाँ विचरने वाली मृत्यु पोंछ चुकी है, यदि आपकी इन्द्रियों में पुनर्जन्म फिर प्राणों का संचार कर चुका है, तो शब्दों के बिना भी आपको यह पहचानने में देर नहीं लगती कि कौन डगमगा चुका है, किसने दूसरे के साथ विश्वासघात किया है; और आप झट से उसे पहचान लेते हैं जिसने क्षण भर के लिए भी इस विचार को मन में आश्रय दिया है कि घुटने टेक देना और अपने सबसे कम महत्वपूर्ण सहकर्मियों का पता बता देना बेहतर है। जो लोग दुर्बल पड़ जाते हैं, उनकी हालत दयनीय है। अपनी वह ज़िन्दगी वे किस तरह बितायेंगे जिसे बचाने के लिए उन्होंने अपने एक साथी की ज़िन्दगी बेच डाली है।
“अगर स्वराज्य आने पर भी सम्पत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूँगी ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेजी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का सब हित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिये हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ायेगी कि वे विदेशी नहीं स्वदेशी हैं? कम से कम मेरे लिए तो स्वराज्य का अर्थ यह नहीं है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाये।”
व्यवस्था में जिस आमूल परिवर्तन की बात भगतसिंह कर रहे थे उसका अर्थ था एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण को असम्भव बना दिया जाये। वह एक ऐसे समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे जहाँ सारे सम्बन्ध समानता पर आधारित हों और हर व्यक्ति को उसकी मेहनत का पूरा हक़ मिले। इसी क्रम में उस समय सत्ता हस्तानान्तरण के लिये बेचैन और जनता की स्वतःस्फूर्त शक्ति को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिये इस्तेमाल कर रही कांग्रेस के बारे में भगतसिंह का कहना था कि सत्ता हस्तानान्तरण से दलित-उत्पीड़ित जनता के जीवन में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा जब तक एक देश द्वारा दूसरे देश और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण का समर्थन करने वाली व्यवस्था को धवस्त करके एक समानतावादी व्यवस्था की नींव नहीं रखी जायेगी। उनका मानना था कि तब तक मेहनतकश जनता का संघर्ष चलता रहेगा। आज 66 साल के पूँजीवादी शासन में लगातार बढ़ रही जनता की बदहाली और शोषण अत्याचारों की घटनाओं से भगतसिंह की बातें सही सिद्ध हो चुकी है। भगत सिंह और उनके साथियों ने फाँसी से तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को गवर्नर को लिखे गए पत्र में कहा था, “यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने (भारतीय) जनता और श्रमिकों की आय पर अपना एकाधिकार कर रखा है चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों द्वारा ही निर्धनों का खूऩ चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता”