Category Archives: महान जननायक

शहीद दिवस (23 मार्च) पर भगतसिंह व उनके साथियों के विचारों और सपनों को याद करते हुए!

व्यवस्था में जिस आमूल परिवर्तन की बात भगतसिंह कर रहे थे उसका अर्थ था एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण को असम्भव बना दिया जाये। वह एक ऐसे समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे जहाँ सारे सम्बन्ध समानता पर आधारित हों और हर व्यक्ति को उसकी मेहनत का पूरा हक़ मिले। इसी क्रम में उस समय सत्ता हस्तानान्तरण के लिये बेचैन और जनता की स्वतःस्फूर्त शक्ति को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिये इस्तेमाल कर रही कांग्रेस के बारे में भगतसिंह का कहना था कि सत्ता हस्तानान्तरण से दलित-उत्पीड़ित जनता के जीवन में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा जब तक एक देश द्वारा दूसरे देश और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण का समर्थन करने वाली व्यवस्था को धवस्त करके एक समानतावादी व्यवस्था की नींव नहीं रखी जायेगी। उनका मानना था कि तब तक मेहनतकश जनता का संघर्ष चलता रहेगा। आज 66 साल के पूँजीवादी शासन में लगातार बढ़ रही जनता की बदहाली और शोषण अत्याचारों की घटनाओं से भगतसिंह की बातें सही सिद्ध हो चुकी है। भगत सिंह और उनके साथियों ने फाँसी से तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को गवर्नर को लिखे गए पत्र में कहा था, “यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने (भारतीय) जनता और श्रमिकों की आय पर अपना एकाधिकार कर रखा है चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों द्वारा ही निर्धनों का खूऩ चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता”

शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी

अपने संघर्ष के दौरान मज़दूर वर्ग ने बहुत-से नायक पैदा किये हैं। अल्बर्ट पार्सन्स भी मज़दूरों के एक ऐसे ही नायक हैं। यह कहानी अल्बर्ट पार्सन्स और शिकागो के उन शहीद मज़दूर नेताओं की है, जिन्हें आम मेहनतकश जनता के हक़ों की आवाज़ उठाने और ‘आठ घण्टे के काम के दिन’ की माँग को लेकर मेहनतकशों की अगुवाई करने के कारण 11 नवम्बर, 1887 को शिकागो में फाँसी दे दी गयी। मई दिवस के शहीदों की यह कहानी हावर्ड फास्ट के मशहूर उपन्यास ‘दि अमेरिकन’ का एक हिस्सा है। इसमें शिलिंग नाम का बढ़ई मज़दूर आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले जज पीटर आल्टगेल्ड को अल्बर्ट पार्सन्स की ज़िन्दगी और शिकागो में हुई घटनाओं और मज़दूर नेताओं की कुर्बानी के बारे में बताता है।

राहुल सांकृत्यायन की जन्मतिथि (9 अप्रैल) और पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ -इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है कौन गाय खाने वालों से गो न खाने वालों को लड़ा रहा है असल बात यह है – ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।

ग़रीब किसानों और मज़दूरों के ‘राहुल बाबा’

राहुल सांकृत्यायन, जिन्हें ग़रीब किसान और मज़दूर प्यार से राहुल बाबा बुलाते थे, एक चोटी के विद्वान, कई भाषाओं और विषयों के अद्भुत जानकार थे, चाहते तो आराम से रहते हुए बड़ी-बड़ी पोथियाँ लिखकर शोहरत और दौलत दोनों कमा सकते थे परन्तु वे एक सच्चे कर्मयोद्धा थे। उन्होनें आम जन, ग़रीब किसान, मज़दूर की दुर्दशा और उनके मुक्ति के विचार को समझा। उनके बीच रहते हुए उन्हें जागृत करने का काम किया और संघर्षों में उनके साथ रहे। वे वास्तव में जनता के अपने आदमी थे।

एक सच्चा सर्वहारा लेखक -मक्सिम गोर्की

गोर्की ने अपने जीवन और लेखन से सिद्ध कर दिया कि दर्शन और साहित्य विश्‍वविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़े-लिखे विद्वानों की बपौती नहीं है बल्कि सच्चा साहित्य आम जनता के जीवन और लड़ाई में शामिल होकर ही लिखा जा सकता है। उन्होंने अपने अनुभव से यह जाना कि अपढ़, अज्ञानी कहे जाने वाले लोग ही पूरी दुनिया के वैभव के असली हक़दार हैं। आज एक बार फिर साहित्य आम जन से दूर होकर महफ़िलों, गोष्ठियों यहाँ तक कि सिर्फ़ लिखने वालों तक सीमित होकर रह गया है। आज लेखक एक बार फिर समाज से विमुख होकर साहित्य को आम लोगों की ज़िन्दगी की चौहद्दी से बाहर कर रहा है।

अक्टूबर क्रान्ति के दिनों की वीरांगनाएँ

अक्टूबर क्रान्ति की नायिकाएँ एक पूरी सेना के बराबर थीं और नाम भले ही भूल जायें उस क्रान्ति की जीत में और आज सोवियत संघ में और औरतों को मिली उपलब्धियों और अधिकारों के रूप में उनकी निःस्वार्थता जीवित रहेगी।

मीना किश्‍वर कमाल : वर्जनाओं के अंधेरे में जो मशाल बन जलती रही

सपनों पर पहरे तो बिठाये जा सकते हैं लेकिन उन्‍हें मिटाया नहीं जा सकता। वर्जनाओं के अंधेरे चाहे जितने घने हों, वे आजादी के सपनों से रोशन आत्‍माओं को नहीं डुबा सकते। यह कल भी सच था, आज भी है और कल भी रहेगा। अफगानिस्‍तान के धार्मिक कठमुल्‍लों के “पाक” फरमानों का बर्बर राज भी इस सच का अपवाद नहीं बन सका। मीना किश्‍वर कमाल की समूची जिन्‍दगी इस सच की मशाल बनकर जलती रही और लाखों अफगानी औरतों की आत्‍माओं को अंधेरे में डूब जाने से बचाती रही।